गीत : डी.के. पुरोहित
रात रुसवा हुई
दिन परेशान है
चांद खोया-खोया
सूरज हैरान है
अब किससे कहें हम
मनवा अपने दिल की बात
आदमी नाउम्मीद है
उजाला चितचोर हुआ
धूप छांव को तरसती
मौसम खेलने लगा जुआ
द्रोपदी की कौन हरे पीर
बाकी है अभी महाभारत
इन चेहरों की पहचान
कर ना पाया दर्पण
रूप के आगे बुद्धि ने
कर दिया है समर्पण
बगिया में ये भंवरे
क्यों मचा रहे उत्पात
वजूद को तरसती नींव
सदियां हो गई खोखली
वक्त बूढ़ा हो चला
मुंह में दबाए बीड़ी अधजली
नकाबों पे पहने नकाब
क्यों सुलग रहे हालात
इतिहास को कुरेदा तो
दीमक लगे मिले पन्ने
भूत से चिपके-चिपके
भविष्य को भुलाया हमने
वर्तमान की सलीब पर
जिंदगी खा रही है मात
अब किससे कहें हम
मनवा अपने दिल की बात।
रात रुसवा हुई
दिन परेशान है
चांद खोया-खोया
सूरज हैरान है
अब किससे कहें हम
मनवा अपने दिल की बात
आदमी नाउम्मीद है
उजाला चितचोर हुआ
धूप छांव को तरसती
मौसम खेलने लगा जुआ
द्रोपदी की कौन हरे पीर
बाकी है अभी महाभारत
इन चेहरों की पहचान
कर ना पाया दर्पण
रूप के आगे बुद्धि ने
कर दिया है समर्पण
बगिया में ये भंवरे
क्यों मचा रहे उत्पात
वजूद को तरसती नींव
सदियां हो गई खोखली
वक्त बूढ़ा हो चला
मुंह में दबाए बीड़ी अधजली
नकाबों पे पहने नकाब
क्यों सुलग रहे हालात
इतिहास को कुरेदा तो
दीमक लगे मिले पन्ने
भूत से चिपके-चिपके
भविष्य को भुलाया हमने
वर्तमान की सलीब पर
जिंदगी खा रही है मात
अब किससे कहें हम
मनवा अपने दिल की बात।
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