Poem

कविता: डी.के. पुरोहित

ओ इंसान तू किसके भरोसे जिये जा रहा


खुदा को मारने
खुदा आ रहा है
ओ इंसान तू
किसके भरोसे जिये जा रहा है
वो आलीशान मस्जिदों में
आराम करता है
उसका बंदा सड़कों पर
बिना छत रहता है
तेरी खिदमत में नमाज पढ़ते हैं
तू है कि उपेक्षा किए जा रहा है
ओ इंसान तू
किसके भरोसे जिये जा रहा है

भगवान नाम एक तमाशा है
पंडों पुजारियों की भाषा है
इनकी पूजा में छिपी
मानव मन की हताशा है
वो मूर्तियों पर सजाता
सोने के ताज है
उसकी चैखट के बाहर
लक्ष्मी सीता की लुटती लाज है
वो पत्थर मुस्कराकर
प्रसाद और चढ़ावा लिए जा रहा है
ओ इंसान तू
किसके भरोसे जिये जा रहा है

गॉड, वाहे गुरु सब दिखावा है
इंसानी जजबातों से छलावा है
हम ही यहां स्वर्ग बसाएंगे
इंसान ही हकीकत बाकी बहकावा है
उसने खुद के लिए चुनी
अमरता की राह
ये भूखे-नंगे बच्चे, मांए मरती,
क्यों नहीं उसकी परवाह
वो रोज मर-मरकर
फिर जिये जा रहा है
ओ इंसान तू
किसके भरोसे जिये जा रहा है

जब वो नहीं है तो
कौन हमारा सहारा है
ओ मानव मन तू नासमझ
तू इसलिए बेचारा है
सूरज किसके भरोसे जीता है
चांद-तारों का कौन रखवाला है
सागर की तुम पूजा करो
वही बादलों का निवाला है
पेड-पौधे हमें फल देते हैं
हमें जिंदगी हमें बल देते हैं
नदियां हमारी माता है
आसमां हमारा पिता है
यह धरती ही दोस्तों
कुरआन-बाइबिल-गीता है
इसे पढ़ो, इसे पूजो
बचाना है तो इसे बचाओ
चर्च-मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे से
ओ नादां जरा बाहर आओ
कल जब प्रलय आया तो
कौन बचाने आएगा
हमारा बीज तत्व बचा रहा तो
फिर नया जहां बस पाएगा
अपने को कमजोर मान
अनदेखे पर भरोसा किए जा रहा है
ओ इंसान तू
किसके भरोसे जिये जा रहा 

2 comments:

  1. हमें तो बस मुहब्बत से डिलों पे राज़ करना है
    शायर फिरोज फतेहपुरी

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