Friday, 24 January 2014

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जीवन की यह रीत पुरानी

गीत : डी.के. पुरोहित



रह जाती है यादें केवल
सब कुछ है लुट जाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

भाव-ताव में लगा यहां हूं
नहीं जानता अपना मूल
सबके दोष लगा हूं गिनाने
पकड़ न पाता अपनी भूल
अपनी राह मैं नहीं जानता
औरों को राह दिखाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

ठोकर पर ठोकर है खाई 
फिर भी मन ना संभला
सुबह को छोड़ अकेला
सूरज किस पार जा ढला
नया सवेरा होना तय है
समीर का झोंका नित आता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

उजले तन के लोग सभी
मन के मेले निकले
बाजीगर गीतों के घट से
छदम शब्द यहां फिसले
वीणा सुर की सजी रह गई 
गीत छला रह जाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

हार-जीत के कुरुक्षेत्र में
भाइयों से भाई लड़ते
धर्मयुद्ध के नाम पर
नारायण छदम रूप धरते
छल-कपट बाणों की बरसा
तरकस में स्वार्थ क्यों भरता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

धर्मग्रंथ के नाम पर
शपथ हजारों लेते
न्याय के कटघरे में वो
झूठ की दुहाई देते
कलम हाथ में लिए झूठ की 
वो मृत्यु दंड लिख जाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

यह जग सारा अंगारों पर
इक चिंगारी की देरी है
मक्कार-मतलबी हाथों में
परमाणु बम की ढेरी है
कबीरा गली-गली में घूम
प्रेम की अलख जगाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता।






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