कविता : डीके पुरोहित
आओ खेलें होली
आओ खेलें होली
लाल, गुलाबी, हरा, पीला
हर रंग का गुलाल है
सत्ता का चेहरा है बिगड़ा
रंग न पाऊं, मलाल है
पिचकारी अब बीती बातें
हर हाथ बंदूक
भ्रष्टाचारी रंग गहराया
नोटों भरा संदूक
खून रंगे गालों की लाली
देखे कमला, आशा
उड़ता पंछी घर आएगा
बच्चों को नहीं भरोसा
सहमी-सहमी मथुरा है
सिसक रहा वृंदावन
चांद पर खून के छींटे
स्वर्ग लहुलूहान
कान्हा कैसे होली खेले
देश में घमसान
कभी आस्था घायल होती
कभी रोता किसान
नेता हर दिन नारे देते
जनता कितनी भोली
अंगारों की पिचकारी से
आओ खेलें होली।
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