Monday, 27 January 2014

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फिर वही शाम आई

गीत : डी.के. पुरोहित


फिर वही शाम आई 
मौत का पैगाम लाई 
छाने लगा घना अंधेरा
सूरज ने बत्ती बुझाई 

घिर आए अचानक बदरा
लो शुरू हुई बरसात
दामिनी ने शोर मचाया
मौसम करने लगा उत्पात
प्रणय की घड़ी में अचानक
प्रलय ने आवाज लगाई 
फिर वही शाम आई 
मौत का पैगाम लाई 

पंछी दुबके घोंसलों में
श्वान छिपे जा किसी ओट
नदी पार रंभाती गायें
इस पार ना आई लौट
आज प्रकृति का नर्तन
आशंकाओं की बजी शहनाई 
फिर वही शाम आई 
मौत का पैगाम लाई 

विधाता रचता तमाशा 
हम सब अलग किरदार
रंग मंच सजता अनूठा
जाने कौन इसका सरदार
लब पर नाम बस उसी का
जिसने यह दुनिया बनाई 
फिर वही शाम आई 
मौत का पैगाम लाई 

आशंकाएं निर्मूल हुईं 
छटी घटाएं, बरसात रुकी 
जाने किसकी कुबुली गई दुआ
प्रकृति की झड़ी झुकी
एक रात बस एक क्षण
ला सकता है यहां तबाही
फिर वही शाम आई 
मौत का पैगाम लाई ।

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