गीत : डी.के. पुरोहित
दर्पण वही दिखाता है
जैसा सामने चेहरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
वो लोग भी क्या लोग हैं
जो दौलत के लिए लड़ते हैं
मानवता की लांघ कर सीमा
क्यों धरम-जात पर मरते हैं
हिरन पगले भटकते फिरते
बिन पानी यह सहरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
महलों वाले, बंगलों वाले
सीना ताने फिरते हैं
झोंपड़पट्टी वाले उनको
आंखों में रोज खटकते हैं
पीकर मदिरा रोज बहकते
करते तेरा-मेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
ताल-तलैया नदी सूखती
सागर का रहता पेट भरा
बादल बनते बरसा होती
हरियाली चूनर पहनती धरा
सागर लाख कसेला हो
मेघों में अमृत का डेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
हमने आंखों में पीड़ा को
आंसू बन झरते देखा है
उपर वाले साहुकार के दर
पाप धर्म का लेखा है
जाना अटल सत्य है भाई
फिर भी मोहमाया का घेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है।
दर्पण वही दिखाता है
जैसा सामने चेहरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
वो लोग भी क्या लोग हैं
जो दौलत के लिए लड़ते हैं
मानवता की लांघ कर सीमा
क्यों धरम-जात पर मरते हैं
हिरन पगले भटकते फिरते
बिन पानी यह सहरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
महलों वाले, बंगलों वाले
सीना ताने फिरते हैं
झोंपड़पट्टी वाले उनको
आंखों में रोज खटकते हैं
पीकर मदिरा रोज बहकते
करते तेरा-मेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
ताल-तलैया नदी सूखती
सागर का रहता पेट भरा
बादल बनते बरसा होती
हरियाली चूनर पहनती धरा
सागर लाख कसेला हो
मेघों में अमृत का डेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
हमने आंखों में पीड़ा को
आंसू बन झरते देखा है
उपर वाले साहुकार के दर
पाप धर्म का लेखा है
जाना अटल सत्य है भाई
फिर भी मोहमाया का घेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है।
0 comments:
Post a Comment