Monday, 20 January 2014

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दुनिया जहर पिलाती रही

गीत : डी.के. पुरोहित 


दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे
कांटों ने दिए लाख जख्म
फूल थे कि मुस्काते रहे

वो आदमी थे जिनका काम
अपनों से दगा करना रहा
हम तो कुछ थे ही नहीं
हमारा क्या जीना-मरना रहा
शून्य तो परिभाषित होता
इससे कम खुद को गिनाते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे

खुदा होता जो मैं तो
हर खता की सजा देता
जो होता भगवान तो
मौत का बिगुल बजा देता
शब्दों के रहे जो साधक
खुद को कागज पर गलाते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे

सोचता हूं कभी अकेले में
क्यों बनाते हैं इबादत के घर
क्या कमी है परमतत्व को
क्या कमी है उसके दर
मैं मूरख नादां सही
समझदार तर्क बताते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे

पत्थरों में पत्थर को पूजते
मीनारों में उसे पुकारा
चर्च-मंदिर-गुरुद्वारों में
क्यों ढूंढ़ते रहे सहारा
दुखियारे मां-बाप को 
क्यों न गले लगाते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे। 

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