कविता : डी.के. पुरोहित
क्रांतिचेता ने महानगर के टावर पर
खड़े होकर कहा था
लोकतंत्र से-
तुमने मुझे आज मरने पर किया है मजबूर
नौकरी के इंतजार में
उम्र ढल गई
बाल हो गए सफेद
चेहरे पर उतर आया
ययाति का बुढ़ापा
मैंने कब चाहा था शाश्वत यौवन
जिंदगी के चार दिन
गुजारना चाहता था प्रियतमा के संग
हंसी-खुशी और परिवार का सहारा बनने की
चाहत थी मन में
यहां मुटठी भर धूप भी होती नहीं नसीब
और उनके आंगन में
दिन भर चमकता रहा सूरज
चांद को देखकर करनी चाही थी
मैंने भी कविता
लिखना चाहा था सौंदर्य का महाकाव्य
चांदनी जला बैठी अरमानों की दुनिया
दादा ने सोचा था-
मरने से पहले घर बसा ले पोता
बाप ने कहा था नहीं दोहराऊंगा अपना इतिहास
पहले खड़ा हो ले बेटा अपने पैरों पर
मां बचपन में गुजर गई
बहन की उठ नहीं पाई डोली
दहेज का दानव सुरसा-सा
मुंह खोलता रहा हर बार
बहन मां सी लगने लगी थी
और एक दिन भाग गई किसी के साथ
फिर कभी लौटकर नहीं आई
बस खबर छपी थी मय फोटो अखबार में
एक युवती का सामूहिक बलात्कार कर
फेंक दिया गया समंदर में
पोस्टमार्टम कर पुलिस ने कर दिया
बिना शिनाख्त लाश का दाह संस्कार
अब तो आंसुओं पर भी ऐतबार न रहा
कोई रोता है किसके लिए
बाप की छाती हो गई है
अकाल के थपड़े सहती
सूखी और बंजर भूमि
उम्मीदों के बादल अब
सपनों के आसमान पर भी नहीं उमड़ते
उनकी मौत की कल्पना
सोने नहीं देती मुझे चैन की नींद
उस दिन जब लाला ने कहा था-
नहीं मिलेगा अब उधार
मेहनत की दाल और
पसीने की रोटी के लिए
भूल गया था डिग्रियों का पुलिंदा
हर तरफ हाथ-पैर मारकर भी
नहीं जुटा पाया
बाप की खांसी की दवा
खांसी अब टीबी में बदल गई है
अपनी भूख भुला कर बाप की दवा के लिए
बुझाई थी उस अधेड़ औरत की प्यास
और अपनी ही नजरों में गिरने लगा था
बस मजबूरी में
उस दिन जब खबर पढ़ी थी बहना की
दुर्वासा का क्रोध उमड़ आया था
और आज अपनी करनी पर
धिकारने लगा है मन
आज सिर्फ आज मेरा पौरुष जाग गया है
क्योंकि बाप इस दुनिया में नहीं रहा है
दुनिया में अकेला हूं और अब
सोच लिया है मैंने
नहीं मरुंगा खांसते-खांसते
बन जाऊंगा ओसामा
और उड़ा डालूंगा किसी दिन
पूंजीवादी टावर को
मगर लावारिश होता तो यह भी कर देता
यहां मेरा बाप
मरने के बाद भी रोज मारा जाएगा
उसकी आत्मा अगर कहीं होगी तो कहेगी
क्यों पैदा हुआ मेरे घर कंस
मेरी मरी मां चीत्कारेगी
बहन तो माफ कर देगी मुझे
पर मैं अपने आपको
माफ नहीं कर पाऊंगा
बस किसी को मिटाने की बजाय
अरे ओ लोकतंत्र
तेरे नाम यह खुला पत्र छोड़कर
कूद रहा हूं इस टावर से
और सचमुच मेरे लोकतंत्र
वह उसी क्षण कूद पड़ा था टावर से
मगर किसी को नहीं मिला वह खुला पत्र
जो क्रांतिचेता ने लिखा था लोकतंत्र के नाम।
क्रांतिचेता ने महानगर के टावर पर
खड़े होकर कहा था
लोकतंत्र से-
तुमने मुझे आज मरने पर किया है मजबूर
नौकरी के इंतजार में
उम्र ढल गई
बाल हो गए सफेद
चेहरे पर उतर आया
ययाति का बुढ़ापा
मैंने कब चाहा था शाश्वत यौवन
जिंदगी के चार दिन
गुजारना चाहता था प्रियतमा के संग
हंसी-खुशी और परिवार का सहारा बनने की
चाहत थी मन में
यहां मुटठी भर धूप भी होती नहीं नसीब
और उनके आंगन में
दिन भर चमकता रहा सूरज
चांद को देखकर करनी चाही थी
मैंने भी कविता
लिखना चाहा था सौंदर्य का महाकाव्य
चांदनी जला बैठी अरमानों की दुनिया
दादा ने सोचा था-
मरने से पहले घर बसा ले पोता
बाप ने कहा था नहीं दोहराऊंगा अपना इतिहास
पहले खड़ा हो ले बेटा अपने पैरों पर
मां बचपन में गुजर गई
बहन की उठ नहीं पाई डोली
दहेज का दानव सुरसा-सा
मुंह खोलता रहा हर बार
बहन मां सी लगने लगी थी
और एक दिन भाग गई किसी के साथ
फिर कभी लौटकर नहीं आई
बस खबर छपी थी मय फोटो अखबार में
एक युवती का सामूहिक बलात्कार कर
फेंक दिया गया समंदर में
पोस्टमार्टम कर पुलिस ने कर दिया
बिना शिनाख्त लाश का दाह संस्कार
अब तो आंसुओं पर भी ऐतबार न रहा
कोई रोता है किसके लिए
बाप की छाती हो गई है
अकाल के थपड़े सहती
सूखी और बंजर भूमि
उम्मीदों के बादल अब
सपनों के आसमान पर भी नहीं उमड़ते
उनकी मौत की कल्पना
सोने नहीं देती मुझे चैन की नींद
उस दिन जब लाला ने कहा था-
नहीं मिलेगा अब उधार
मेहनत की दाल और
पसीने की रोटी के लिए
भूल गया था डिग्रियों का पुलिंदा
हर तरफ हाथ-पैर मारकर भी
नहीं जुटा पाया
बाप की खांसी की दवा
खांसी अब टीबी में बदल गई है
अपनी भूख भुला कर बाप की दवा के लिए
बुझाई थी उस अधेड़ औरत की प्यास
और अपनी ही नजरों में गिरने लगा था
बस मजबूरी में
उस दिन जब खबर पढ़ी थी बहना की
दुर्वासा का क्रोध उमड़ आया था
और आज अपनी करनी पर
धिकारने लगा है मन
आज सिर्फ आज मेरा पौरुष जाग गया है
क्योंकि बाप इस दुनिया में नहीं रहा है
दुनिया में अकेला हूं और अब
सोच लिया है मैंने
नहीं मरुंगा खांसते-खांसते
बन जाऊंगा ओसामा
और उड़ा डालूंगा किसी दिन
पूंजीवादी टावर को
मगर लावारिश होता तो यह भी कर देता
यहां मेरा बाप
मरने के बाद भी रोज मारा जाएगा
उसकी आत्मा अगर कहीं होगी तो कहेगी
क्यों पैदा हुआ मेरे घर कंस
मेरी मरी मां चीत्कारेगी
बहन तो माफ कर देगी मुझे
पर मैं अपने आपको
माफ नहीं कर पाऊंगा
बस किसी को मिटाने की बजाय
अरे ओ लोकतंत्र
तेरे नाम यह खुला पत्र छोड़कर
कूद रहा हूं इस टावर से
और सचमुच मेरे लोकतंत्र
वह उसी क्षण कूद पड़ा था टावर से
मगर किसी को नहीं मिला वह खुला पत्र
जो क्रांतिचेता ने लिखा था लोकतंत्र के नाम।
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