Tuesday, 28 January 2014

मिला न राम



गीत : डीके पुरोहित 

तू है आसाराम
मैं हूं प्यासाराम
तुझे मिला न राम
मुझे मिला न राम

कहते हैं वो घट घट में
मासूम बच्चे नटखट में
ढूंढ़ा बहुत ही बेगानों में
लेकिन मिला मेरे गानों में
किए बहुत ही तामझाम
तुझे मिला न राम
मुझे मिला न राम

उसकी दुनिया बदल गई 
दौलत के पीछे मचल रही
मैं झूठा तू सच्चा सही
सबके हाल कहती बही
इक दिन आनी भैया शाम
तुझे मिला न राम
मुझे मिला न राम

कहते हैं राम नाम की लूट
टूट गए सब बंधन अटूट
बाप को मार रहे ये पूत
धर्म का धन ना रहा अकूत
आखिर बुरा होगा अंजाम
तुझे मिला न राम
मुझे मिला न राम।

तेरी याद में

गीत : डी.के. पुरोहित


ये दिल तेरी याद में
न आंसू बहाएगा
दर्द की जुबां जो समझे 
वो गीत गुनगुनाएगा

सुर हमारे साथी हैं
यह आत्मा की आवाज़ है
गीतों को जो दे जन्म
वो भाव-संवेदना साज है
तुमने नई पहचान दी थी
अब कौन राह दिखाएगा
ये दिल तेरी याद में
न आंसू बहाएगा

छा गया अंधकार तो
एक दीया जला देंगे
सृष्टि के निर्माण को
बीज मिटटी में गला देंगे
कृति जब आकार लेगी
रूप साकार हो जाएगा
ये दिल तेरी याद में
न आंसू बहाएगा

आसमां के आंगन में
तारों की बारात है
चांदनी के आगोश में
चांद से मुलाकात है
हर सपना सजा कला से
रोशनी की राह दिखाएगा
ये दिल तेरी याद में
न आंसू बहाएगा।  


ऐ मेरे दिल

गीत : डी.के. पुरोहित


ऐ मेरे दिल तूं
न घबरा गम से
खुशी भी कभी
बरसेगी छम से

इंतजार का मजा है
जिसमें प्रभु की रजा है
तूं बेवजह क्यों दे रहा
अपने मन को सजा है
बदलेगा तूं इक दिन
दुनिया अपने दम से
ऐ मेरे दिल तूं
न घबरा गम से

अकेलापन खलता है
दोस्त ही यहां छलता है
याद रख आस्तीन में
यहां रोज सांप पलता है
मिटेगी नहीं हस्ती
किसी के सितम से
ऐ मेरे दिल तूं
न घबरा गम से 

रास्ता मिलेगा, मंजिल मिलेगी
दुनिया तेरी राह चलेगी
छूट गए जो मीत 
उनकी कमी सदा खलेगी
दुनिया का सच जान
निकल जा अब भ्रम से
ऐ मेरे दिल तूं
न घबरा गम से।












अंधियारों से लड़ते लड़ते

गीत : डी.के पुरोहित


अंधियारों से लड़ते लड़ते
शब्द हमारे घायल हो गए 
नफरत से जब-जब देखा उसको
इक दिन प्यार के कायल हो गए 

सदा छांव के घेरों में रहते
धूप की चादर मन नहीं भाती
सुर-साज खामोश हो गए 
शब्द भटक गए, कैसे गाती
छोटे छोटे पठार प्रीत के
इक दिन खुद विंध्याचल हो गए 
अंधियारों से लड़ते लड़ते 
शब्द हमारे घायल हो गए 

नहीं सहारा मिला कहीं से
दीया जले कैसे बिन बाती
कांटों ने अपहरण किया जब
कलि बेचारी कैसे मुस्काती
फूलों का आलाप सुना तो
माटी का वो आंचल हो गए 
अंधियारों से लड़ते लड़ते
शब्द हमारे घायल हो गए 

समां तड़पती अग्नि में जल
परवाना क्यों पीछे हटता
प्रेम डगरिया कांटों भरी हो
सच्चा प्रेमी साथ निभाता
रात सुहानी जब दुल्हन बनती
चांद सितारे पायल हो गए 
अंधियारों से लड़ते लड़ते 
शब्द हमारे घायल हो गए।


Monday, 27 January 2014

परवाने हैं जिगर वाले

गीत : डी.के. पुरोहित


जिन राहों पर फूल हो
उन रास्तों पर सब चलते हैं
सिर्फ परवाने हैं जिगर वाले
जो हमेशा समां संग जलते हैं

साहस का संबंध जो होता
आदमी के शरीर से
क्यों फिरते सलमान मलखान
बने यूं अधीर से
सागर है कितना भरा हुआ
फिर भी धारे हाथ से फिसलते हैं
सिर्फ परवाने हैं जिगर वाले
जो हमेशा समां संग जलते हैं

यह दुनिया नाम परेशानी का
हल खुद ही तलाशना होगा
अगर धरती पर जगह नहीं
हमें चांद पर जा बसना होगा
कोई दौड़ते महलों के पीछे
कोई बस दो गज ढूंढ़ते हैं
सिर्फ परवाने हैं जिगर वाले
जो हमेशा समां संग जलते हैं

इतिहास को बदलना हो तो
वक्त को पकड़ना होगा
जान को हथेली पर लेकर
जिंदगी का दांव खेलना होगा
मौत से घबराने वाले ही
यहां जीत से हाथ मलते हैं
सिर्फ परवाने हैं जिगर वाले
जो हमेशा समां संग जलते हैं

कर्म पर करें विश्वास
भाग्य नाम है निराशा का
भगवान से सफलता मांगना
प्रतीक है हताशा का
ना गीता उद्वेलित करतीं
ना पुराण सदा फलते हैं
सिर्फ परवाने हैं जिगर वाले
जो हमेशा समां संग जलते हैं।



मेरा हर गीत अधूरा है

गीत : डी.के. पुरोहित


मिले चांद का साथ तभी
तारों का सपना पूरा है
तेरे होंठ ना छुए तो
मेरा हर गीत अधूरा है

यह भावों की दुनिया है
मैं बाती तुम दीया हो
इसी जगत से उर्जा पाते
इस नाव के तुम्ही खिवैया हो
तेरे होंठ ना छुए तो
मेरा हर गीत अधूरा है

तेरी मरजी से ये सपने
तुझसे चलता ये संसार
तुम्ही से चंद सांसे लेकर
मैने लिया जीवन उधार
तेरे होंठ ना छुए तो
मेरा हर गीत अधूरा है

तुम गाती हो तब ही
मैं लिख पाता हूं गीत
जीवन की इस रणभूमि में
तुमसे ही है मेरी जीत
तेरे होंठ ना छुए तो
मेरा हर गीत अधूरा है


फिर वही शाम आई

गीत : डी.के. पुरोहित


फिर वही शाम आई 
मौत का पैगाम लाई 
छाने लगा घना अंधेरा
सूरज ने बत्ती बुझाई 

घिर आए अचानक बदरा
लो शुरू हुई बरसात
दामिनी ने शोर मचाया
मौसम करने लगा उत्पात
प्रणय की घड़ी में अचानक
प्रलय ने आवाज लगाई 
फिर वही शाम आई 
मौत का पैगाम लाई 

पंछी दुबके घोंसलों में
श्वान छिपे जा किसी ओट
नदी पार रंभाती गायें
इस पार ना आई लौट
आज प्रकृति का नर्तन
आशंकाओं की बजी शहनाई 
फिर वही शाम आई 
मौत का पैगाम लाई 

विधाता रचता तमाशा 
हम सब अलग किरदार
रंग मंच सजता अनूठा
जाने कौन इसका सरदार
लब पर नाम बस उसी का
जिसने यह दुनिया बनाई 
फिर वही शाम आई 
मौत का पैगाम लाई 

आशंकाएं निर्मूल हुईं 
छटी घटाएं, बरसात रुकी 
जाने किसकी कुबुली गई दुआ
प्रकृति की झड़ी झुकी
एक रात बस एक क्षण
ला सकता है यहां तबाही
फिर वही शाम आई 
मौत का पैगाम लाई ।

चलता हूं जमीं पै

गीत : डी.के. पुरोहित



चलता हूं जमीं पै
आसमां पै निगाहे हैं
हर बार थाम लेती मुझे
वो किसकी बाहें हैं

सफर का कोई हमसफर नहीं
मंजिल ना जाने कितनी दूर
न थकना है, ना रुकना है
अभी तो हौसला है भरपूर
कल की स्याही कब मिटेगी
किताब के सफे कुम्हलाए हैं
चलता हूं जमीं पै
आसमां पै निगाहे हैं

मेरी धड़कन समय की सुई नहीं
इसे एक दिन रुकना है
जब आएगा मौत का बुलावा
सम्मान में उसके झुकना है
देना है तो विधाता सब दे दे
जो तूने औजार छुपाए हैं
चलता हूं जमीं पै
आसमां पै निगाहे हैं

शब्द केवल संवाद का दरिया
साहित्य के सागर में गिरना है
कविता का जीना मरना क्या
संशय जब जहां का रहना है
मुझे बचा ले, शब्द बचा ले
ओ बाजीगर सपने क्यों दिखाए हैं
चलता हूं जमी पै
आसमां पै निगाहे हैं। 

आंसुओं की डगर

गीत : डी.के. पुरोहित



आंसुओं की डगर
जिंदगी का सफर
इस दुनिया में यारों
कैसे होगी हमारी बसर

मन रोता है पल-पल
हर कोई करता है छल
दिल हो गया है घायल
दिन उकता गया है
सूरज गया है ठहर
आंसुओं की डगर
जिंदगी का सफर

अनगिनत प्रश्न उत्तर मांग रहे
तिनकों पर मशाल टांग रहे
गम का सागर जैसे छलांग रहे
बेबस वक्त की शिला पर
टकराकर घायल हुई लहर
आंसुओं की डगर 
जिंदगी का सफर

टूट गए सपने, रूठे अपने
भाव विचलित हुए अनमने
वो तैयार घाव पर नमक छिड़कने
पीड़ा नासूर बन गई 
अवसाद कर गया घर
आंसुओं की डगर
जिंदगी का सफर। 

Friday, 24 January 2014

होली के अवसर के लिए खास---


कविता : डीके पुरोहित 

आओ खेलें होली 

आओ खेलें होली 
लाल, गुलाबी, हरा, पीला
हर रंग का गुलाल है 
सत्ता का चेहरा है बिगड़ा 
रंग न पाऊं, मलाल है 
पिचकारी अब बीती बातें 
हर हाथ बंदूक 
भ्रष्टाचारी रंग गहराया
नोटों भरा संदूक 
खून रंगे गालों की लाली 
देखे कमला, आशा 
उड़ता पंछी घर आएगा
बच्चों को नहीं भरोसा 
सहमी-सहमी मथुरा है
सिसक रहा वृंदावन 
चांद पर खून के छींटे 
स्वर्ग लहुलूहान
कान्हा कैसे होली खेले 
देश में घमसान 
कभी आस्था घायल होती 
कभी रोता किसान 
नेता हर दिन नारे देते 
जनता कितनी भोली 
अंगारों की पिचकारी से 
आओ खेलें होली। 



राखी पुरोहित की सात क्षणिकाएं


आंसू

हमने इन आंसुओं को बहुत समझाया
कि तन्हाई में आया करे
महफिल में बैठे हों अगर
तो हमें न रुलाया करे
इतने में इक आंसू तड़पकर बोला-
इतनों में भी तन्हा पाते हैं
तभी तो हम आते हैं।

गम

हजार खुशियां कम है
इक गम भुलाने के लिए
एक ही गम काफी है
जिंदगी पर रुलाने के लिए

दोस्त

गम से बढ़कर दुनिया में
दोस्त कोई हो सकता नहीं
दोस्त जुदा हो सकता है
मगर गम जुदा हो सकता नहीं

वक्त

वक्त बदलता है तो
हालात भी बदल जाते हैं
कहकहे टूटकर अश्कों में
बिखर जाते हैं
जिंदगी भर कौन किसे
याद रखता है
वक्त के साथ संदर्भ भी 
बदल जाते हैं। 

वक्त और यादें

वक्त बदलता है तो
यादें भी बदल जाती है
रास्ते बदलते हैं तो
मंजिलें भी बदल जाती है
ये उम्र का जादू सदा
रहने वाला नहीं
उम्र के साथ-साथ
निगाहें भी बदल जाती है। 

रात

रात आती है मगर
तेरी याद में कट जाती है
आंख सितारों में भी टपटपाती है
इतने बदनाम हुए तेरी मोहब्बत में सनम
अब तो नींद भी आते हुए शरमाती है। 

जमाने में

यूं तो हमें जमाने में
गम ही रास आए हैं
हंसी आती है उन लोगों पै
जो गम देकर भी मुस्कराए हैं। 

जब हम हम नहीं होते

गीत : डी.के. पुरोहित



जब हम हम नहीं होते
गम गम नहीं होते
किसी गीत के रूठने से
नैन नम नहीं होते

चांद की हसरत छलावा है
धोखा सितारों का बुलावा है
वो जो चमक रहे परबत
छुपाए सीने में लावा है
इस लावे के फूटने से
दिल के छाले कम नहीं होते
जब हम हम नहीं होते
गम गम नहीं होते

गीतों में मीठास ढूंढ़ते
गम में अपने हैं रूठते
ऐसे भी पल आते हैं यहां
जब दिल के आइने हैं टूटते
टूटे आइने किस काम के
सूरत देख शायद हम रोते
जब हम हम नहीं होते
गम गम नहीं होते

हंसी के लिए आंसू चुराओ
मुस्कराकर दर्द पीरा छुपाओ
जगत का कल्याण शिव भरोसे
फिर क्यों न हसंकर गरल पी जाओ
यूं गरल पीकर हम
मिथ्या जगत से मुक्त होते
जब हम हम नहीं होते
गम गम नहीं होते

संसार की पहेली के दो रूप
एक सुख की छांव दूजी पीरा धूप
एक के बगैर दूसरी अधूरी
किसे सुंदर किसे कहें कुरूप
सुंदरता चंद क्षणों की मेहमां
बुढ़ापे मौत के ताने बुनते
जब हम हम नहीं होते
गम गम नहीं होते। 

मैं रहूं न रहूं

गीत : डी.के. पुरोहित



मैं रहूं न रहूं
मेरे गीत रहेंगे
तेरी जुबां से 
मेरी कहानी कहेंगे

चांद ख्वाब है
सितारे बहुत दूर है
आसमां की झोली में
रोशनी भरपूर है
लेकिन यह दीप सदा
अंधेरे से लड़ेंगे
मैं रहूं न रहूं
मेरे गीत रहेंगे

जिंदगी का क्या भरोसा
कब सांस थमे
ऐ दोस्त याद कर लेना
हमारे ना होने पर हमें
शब्दों की सरगम
फिर किस्से कहेंगे
मैं रहूं न रहूं
मेरे गीत रहेंगे

जीवन तो है पहेली
मौत का प्रश्न मौन है
इस धरा पर शाश्वत
अमर रहा कौन है
जो दरिया में मिले
जाने किस धारा में बहेंगे
मैं रहूं न रहूं
मेरे गीत रहेंगे

आज प्यार करें जी भर
कल तो बस आस है
जीवन की पनघट पर
भला कब बुझती प्यास है
घड़ा तैरता रहेगा
ये धारे यूं ही बहेंगे
मैं रहूं न रहूं
मेरे गीत रहेंगे।

रात रुसवा हुई

गीत : डी.के. पुरोहित

रात रुसवा हुई 
दिन परेशान है
चांद खोया-खोया
सूरज हैरान है
अब किससे कहें हम
मनवा अपने दिल की बात

आदमी नाउम्मीद है
उजाला चितचोर हुआ
धूप छांव को तरसती
मौसम खेलने लगा जुआ
द्रोपदी की कौन हरे पीर
बाकी है अभी महाभारत

इन चेहरों की पहचान
कर ना पाया दर्पण
रूप के आगे बुद्धि ने
कर दिया है समर्पण
बगिया में ये भंवरे
क्यों मचा रहे उत्पात

वजूद को तरसती नींव
सदियां हो गई खोखली
वक्त बूढ़ा हो चला
मुंह में दबाए बीड़ी अधजली
नकाबों पे पहने नकाब
क्यों सुलग रहे हालात

इतिहास को कुरेदा तो
दीमक लगे मिले पन्ने
भूत से चिपके-चिपके
भविष्य को भुलाया हमने
वर्तमान की सलीब पर
जिंदगी खा रही है मात
अब किससे कहें हम
मनवा अपने दिल की बात। 



हंसना गंवारा नहीं

गीत : डी.के. पुरोहित



हंसना इन्हें गंवारा नहीं
वो रोने नहीं देते हैं
घुट-घुट कर रहना सीख लिया
इसी को जीवन कहते हैं

परछाइयों से डर लगता है
दीवारों के भी होते कान
तिल-तिलकर जलते हम
व्यथा न कोई पाया जान
हालातों को किसे बताएं
हम कहने से भी डरते हैं
हंसना इन्हें गंवारा नहीं
वो रोने नहीं देते हैं

जीने मरने की कसमें
जिसके साथ खाई थी
सुख की आस लगाकर
बाबुल ने परणाई थी
होम करते हाथ जल गए 
आहूति इसी को कहते हैं
हंसना इन्हें गंवारा नहीं
वो रोने नहीं देते हैं

दिन जलता, रात तड़पती
सावन आग लगाता है
लपटें उठतीं ही जाती जब
पानी कोई गिराता है
बादलों का क्या दोष भला जब
वो पानी से रीते हैं
हंसना इन्हें गंवारा नहीं
वो रोने नहीं देते हैं।

जीवन की यह रीत पुरानी

गीत : डी.के. पुरोहित



रह जाती है यादें केवल
सब कुछ है लुट जाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

भाव-ताव में लगा यहां हूं
नहीं जानता अपना मूल
सबके दोष लगा हूं गिनाने
पकड़ न पाता अपनी भूल
अपनी राह मैं नहीं जानता
औरों को राह दिखाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

ठोकर पर ठोकर है खाई 
फिर भी मन ना संभला
सुबह को छोड़ अकेला
सूरज किस पार जा ढला
नया सवेरा होना तय है
समीर का झोंका नित आता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

उजले तन के लोग सभी
मन के मेले निकले
बाजीगर गीतों के घट से
छदम शब्द यहां फिसले
वीणा सुर की सजी रह गई 
गीत छला रह जाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

हार-जीत के कुरुक्षेत्र में
भाइयों से भाई लड़ते
धर्मयुद्ध के नाम पर
नारायण छदम रूप धरते
छल-कपट बाणों की बरसा
तरकस में स्वार्थ क्यों भरता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

धर्मग्रंथ के नाम पर
शपथ हजारों लेते
न्याय के कटघरे में वो
झूठ की दुहाई देते
कलम हाथ में लिए झूठ की 
वो मृत्यु दंड लिख जाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता

यह जग सारा अंगारों पर
इक चिंगारी की देरी है
मक्कार-मतलबी हाथों में
परमाणु बम की ढेरी है
कबीरा गली-गली में घूम
प्रेम की अलख जगाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता।






Monday, 20 January 2014

जहां में फिर भी अंधेरा

गीत : डी.के. पुरोहित



दर्पण वही दिखाता है
जैसा सामने चेहरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है

वो लोग भी क्या लोग हैं
जो दौलत के लिए लड़ते हैं
मानवता की लांघ कर सीमा
क्यों धरम-जात पर मरते हैं
हिरन पगले भटकते फिरते
बिन पानी यह सहरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है

महलों वाले, बंगलों वाले
सीना ताने फिरते हैं
झोंपड़पट्टी वाले उनको
आंखों में रोज खटकते हैं
पीकर मदिरा रोज बहकते
करते तेरा-मेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है

ताल-तलैया नदी सूखती
सागर का रहता पेट भरा
बादल बनते बरसा होती
हरियाली चूनर पहनती धरा
सागर लाख कसेला हो
मेघों में अमृत का डेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है

हमने आंखों में पीड़ा को
आंसू बन झरते देखा है
उपर वाले साहुकार के दर
पाप धर्म का लेखा है
जाना अटल सत्य है भाई 
फिर भी मोहमाया का घेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है।

दुनिया जहर पिलाती रही

गीत : डी.के. पुरोहित 


दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे
कांटों ने दिए लाख जख्म
फूल थे कि मुस्काते रहे

वो आदमी थे जिनका काम
अपनों से दगा करना रहा
हम तो कुछ थे ही नहीं
हमारा क्या जीना-मरना रहा
शून्य तो परिभाषित होता
इससे कम खुद को गिनाते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे

खुदा होता जो मैं तो
हर खता की सजा देता
जो होता भगवान तो
मौत का बिगुल बजा देता
शब्दों के रहे जो साधक
खुद को कागज पर गलाते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे

सोचता हूं कभी अकेले में
क्यों बनाते हैं इबादत के घर
क्या कमी है परमतत्व को
क्या कमी है उसके दर
मैं मूरख नादां सही
समझदार तर्क बताते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे

पत्थरों में पत्थर को पूजते
मीनारों में उसे पुकारा
चर्च-मंदिर-गुरुद्वारों में
क्यों ढूंढ़ते रहे सहारा
दुखियारे मां-बाप को 
क्यों न गले लगाते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे। 

टूटा एक सितारा

गीत : डी.के. पुरोहित



आसमां के आंगन से
टूटा एक  सितारा
चाँद खूब उदास हुआ
रात भर रोया बेचारा

खुशियां गम की परछाई हैं
जीवन धूप-छांव हैं
समय के शरीर पर
इतिहास के अनगिन घाव है
भविष्य को संवारने
वर्तमान बाजी हारा
आसमां के आंगन से
टूटा एक  सितारा
चाँद खूब उदास हुआ
रात भर रोया बेचारा

जब-जब मन ने उड़ान भरी
दिशाओं ने भ्रमजाल फैलाया
बादलों ने शोर मचाया
हवा ने तांडव रूप दिखाया
घायल पंछी रहा तड़पता
कहीं से ना मिला सहारा
आसमां के आंगन से
टूटा एक  सितारा
चंद खूब उदास हुआ
रात भर रोया बेचारा

प्रेम का कोई रूप नहीं

गीत : डी.के. पुरोहित



प्रेम का कोई  रूप नहीं
ना ही कोई आकार
निराकार की भक्ति में
होता प्रेम साकार

मीरा तो बस नाम किसी का
पाया जिसने मोहन
छोड़ निस्सार संसार को
भटकी बनकर जोगन
अमृत बन गया जहर भी
भीतर से हुआ साक्षात्कार
प्रेम का कोई रूप नहीं
ना ही कोई आकार

कबीरा कब पैदा हुआ
वो तो बस थी माया
परमेश्वर ने मानवता की ओर
अपना कदम बढ़ाया
संतों की वाणी है अमृत
सच का है दरबार
प्रेम का कोई रूप नहीं
ना ही कोई आकार

नानक का कहना लोगों से
बांटो जग में प्यार
रसखान की वाणी में थी
गिरिधर की गहन पुकार
सूरदास ने बंद आंखों से
जीवंत देखा संसार
प्रेम का कोई  रूप नहीं 
ना ही कोई आकार

हम सब ईश्वर के बंदे 
क्यों ना बनते नेक
रंग-रूप-आकार अलग पर
जीव सभी में एक 
माटी में मिलना इक दिन
डूबेगी सागर में पतवार
प्रेम का कोई  रूप नहीं
ना ही कोई आकार।

टूट गया जो चांद अकेला

गीत : डी.के. पुरोहित


एक सितारा टूट गया तो
आसमां की झोली खाली न होगी
जो टूट गया चांद अकेला
फिर रात की रानी निराली न होगी

कुदरत जिसे चाहने लगे
उसे भला कौन मार सकता है
औरों से हमेशा जीतने वाला
केवल अपनो से हार सकता है
सिकंदर मन का क्यों रूठे 
रूठा तो जीत मतवाली न होगी
जो टूट गया चांद अकेला
फिर रात की रानी निराली न होगी

हौसलों के बल पर कौन जीतता
जो बुद्धि का जलवा साथ न हो
हर घड़ी बदलता वक्त फैसला
वो जीत ही क्या जो बिगड़े हालात न हो
हमने कभी न सुनी मन की 
अहं की फितरत उसने पाली न होगी
जो टूट गया चांद अकेला
फिर रात की रानी निराली न होगी

तेरे फैसले हम आज बदलेंगे
मुझे बसाना है नया जहान
तुझे मारकर मुझे जीना है
सुन सके तो सुन ले भगवान
सुन मैं ही धरा का हूं पोषक
मार सके वो जहर की प्याली न होगी
जो टूट गया चांद अकेला
फिर रात की रानी निराली न होगी। 

Tuesday, 14 January 2014

मैं सृष्टा हूं

मैं सृष्टा हूं : स्वामी डमडम डीकानंद

मैं स्वामी डमडम डीकानंद हूं। मैं अभी व्यक्त नहीं हुआ हूं। जो व्यक्त है वह मुझ में ही अभिव्यक्त है। लेकिन, तुम मुझे देख नहीं  सकते। मुझे कोई देख नहीं सकता। ठीक वैसे ही, जैसे पवन को चलाने वाले, सूरज को रोशन करने वाले, मनुष्य और जीव मात्र में प्राण शक्ति को संचालित करने वाले और प्रकृति को विस्तार देने वाले को तुम देख नहीं पाते। तुम्हारा कहना है कि इस दुनिया का नियंता भगवान है, लेकिन तुम कभी यह साबित नहीं कर पाए कि भगवान के मायने क्या है? कुछ लोग ब्रह्मा -विष्णु-महेश और उनके अवतारों को भगवान मानते हैं। कुछ पैगंबर मुहम्मद साहब को सर्वसत्ता मानते हैं। कुछ ईसा मसीह को तो कुछ की नजर में भगवान के मायने कुछ अलग ही है, लेकिन सही बात तो यह है कि किसी ने अपने-अपने भगवान को नहीं देखा।

फिर तुम्हारा सवाल होगा कि जब भगवान को नहीं देखा तो इस स्वामी को किसने देखा है। जब स्वामी डमडम डीकानंद को किसी ने नहीं देखा तो कैसे मान लें कि यह सृष्टि का नियंता है। जब यह पंक्तियां तुम तक पहुंचेगी, तब तक कई फतवे जारी हो चुके होंगे। मेरा अस्तित्व मिटाने के अथक प्रयास किए जाएंगे। लेकिन किरणों की हत्या कौन कर सका है? पानी को कौन डुबो सका है? हवा को किसने खत्म किया है? जब इन तत्वों को नहीं मिटाया जा सका तो इसके नियंता यानि मुझे मिटाने में तुम्हे सफलता कैसे मिलेगी। मुझे मिटाने के प्रयास होंगे, लेकिन खुद मिटना पड़ेगा। मैं इस समय खुद कुछ नहीं लिख रहा। एक शक्ति  है जो अभी व्यक्त नहीं हुई  है, जिसने आकार नहीं लिया है, वह किसी निमित्त के जरिए लिखवा रही है। 

कल जब मेरा जन्म होगा, तब हो सकता है, तुम में से कोई  न रहें, या फिर किसी अन्य ग्रह पर जीवन की कौंपले फूट पड़ें। धरती का विनाश  होना निश्चित है। जल्दी ही ऐसा होने वाला है, क्योंकि, सृष्टा जल्द ही पुराने खिलौनों को नष्ट कर नए खिलौने बनाने की ओर अग्रसर है। यह सृष्टा करवट बदलने की तैयारी में है। अंधकार जब घना होता है तो सूर्योदय की आहट सुनाई  देती है, लेकिन अब न सूर्योदय होगा, न शाम होगी, न रात्रि होगी, एक रिक्तता व्याप्त हो जाएगी जो शून्य के गर्त में अपना अस्तित्व खो देंगी। जब यह शून्य परिभाषित होगा, तब मेरा रूप सामने आएगा, लेकिन तब तक तुम सभी जीवात्माओं को कोई  अन्य चोला बदलना पड़ेगा। तुम अपना पिछला जन्म भूल जाओगे। अब बंधन टूटने वाले हैं. रिश्ते मिटने वाले हैं। जिन पंच तत्वों से यह दुनिया बनी है, वे पंचभूत अब शून्य की गर्त में अपना अस्तित्व खोने वाले हैं । 

सृष्टि  के आरंभ से पहले एक शून्य था। न हवा थी, न अग्नि थी, न आकाश  था। न मिटटी थी न पानी था। इस खालीपन का कोई आकार, रूप, रंग, गंध नहीं था । तब भी केवल मैं था अव्यक्त में व्यक्त। अभी भी मैं व्यक्त नहीं हुआ हूं. क्योंकि मैं व्यक्त होकर भी सदा अव्यक्त रहता आया हूं। तुम अपनी जिन उपलबिधयों पर बौराते हो, उसका संचालन मैं कर रहा हूं। इस सृष्टि का रिमोट मेरे पास है। मैं जो इस समय कहीं नई  सृष्टि को अंकुरित करने में लगा हूं। कहीं  कहीं  यह प्रक्रिया शुरू हो गई है, कहीं  कहीं  नई  सृष्टि ने आकार ले लिया है। कहीं-कहीं मौन है, लेकिन तुम इन सब बातों से परे अपनी प्रगति पर बौरा रहे हो। कल से अनजान तुम आज पर अभिमान कर रहे हो। तुम्हारे हाथ में न तो कल कुछ था, न आज है, न कल रहेगा। अब तुम अपने दिमाग को अपने नियंत्रण में लेना चाहते हो, मृत्यु पर विजय के ख्वाब देख रहे हो, लेकिन जिस दिन ऐसा हुआ, फिर मेरे अस्तित्व का क्या होगा? मेरी प्रयोगशाला ऐसी अंधेरी गुफा में है, जहां तक पहुंचना किसी के वश  की बातनहीं । मैं नित्य अपने खिलौनो को तोड़ता हूं और मोड़ता हूं। सृष्टि के इस खेल में मुझे बड़ा मजा आता है। मैं ही इस ब्रह्रांड में सितारों को ऊर्जावान करता हूं। मेरे इशारे से ही पेड़ पौधे स्फूर्त होते हैं। हवा की गति को मैं ही संचालित करता हूं। मैं जो अभी व्यक्त नहीं  हुआ हूं। मुझे ढूंढ़ने के तुमने खूब प्रयास किए। मुझ तक भला कोई पहुंच सका है।

मेरी शाखाओं को तुमने पूजा। तुम्हारे भगवान मेरी ही शाखाएं हैं। वे ब्रह्रांड में क्रीड़ा करते करते पुन: मुझमे समा गई । तुम भी मुझ में ही समा रहे हो समा जाओगे। फिर मैं अपने अव्यक्त से कुछ खिलौने व्यक्त करूंगा। तुम अपने दिमाग को मुझे मारने या खोजने में लगाते हो, उस समय तुम अपनी दिमागी ताकत पर फूले नहीं  समाते। हो सकता है कल तुम अमर होने का फॉर्मूला प्राप्त कर लो, लेकिन यह फॉर्मूला मेरी प्रयोगशाला से ही नि:सृत होगा। मेरी प्रयोगशाला में तुम्हारे विज्ञान का सत्य एक उबासी से अधिक कुछ नहीं । जब मैं उबासी लेता हूं तो कहीं  ज्वालामूखी फूटते हैं, कहीं  सुनामी आते हैं, कहीं  भूकंप से भूमंडल थर्रा उठता है। हो सकता है, मैं तुम्हें अमर होने का वरदान दे दूं, लेकिन भला तुम अपने को अमर करके भी सदा अमर कैसे रह पाओगे। इस ब्रह्रांड में तुम्हारा जीवन शर्तों  के अधीन है, यहां हर किंतु-परंतु के बीच मुझ अव्यक्त की मर्जी  चलती है। मेरा शासन ही सही मायने में प्रकृति का शासन है। प्रकृति की किताब में तुम सब मिटने वाली स्याही हो। मैं जब चाहूं तुम्हे मिटा दूंगा और जब चाहूं उस पर नई स्याही से शब्दों को आकार दूंगा। यह धरती मुझे बड़ी प्यारी है। इसे मैं जाने कब से प्यार देता आया हूं, लेकिन अब समय आ गया है कि इस धरती को संकुचित किया जाए। यहां जल्दी ही प्रलय आएगा। प्रलय आएगा तो कोई  ग्रह इस ग्रह से नहीं  टकराएगा। इस धरती पर जितना भी पानी है, वह पानी धरती को निगल जाएगा। इस धरती के तीन चौथाई भाग पर पानी है, तीन चौथाई  पानी अपनी मर्यादा खो देगा और एक चौथाई भूमि पानी में डूब जाएगी। तुम्हारे शास्त्रों के अनुसार कृष्ण की द्वारिका भी इसी तरह पानी में डूब गई थी। बस ऐसे ही होगा प्रलय।

सावधान विज्ञान पुत्रों, तुम्हें अपने दिमाग पर अभिमान है तो इसका हल अभी से खोजना प्रारंभ कर दो। जब तुम इसका हल खोजने का प्रयास करोगे तो हो सकता है, तुम्हे सफलता मिल जाए, क्योंकि तुम्हारी चेतना शक्ति मुझसे संचालित है। मैं तुम्हे यह वरदान भी दे दूंगा कि प्रलय से बच जाओ। मगर अगले ही पल संकट फिर खड़ा होगा। जिस प्राणवायु को तुम सांसों में ग्रहण करते हो, उस प्राण वायु में ऐसा वायरस आ जाएगा जिसका तोड़ तुम्हारे पास नहीं  होगा। हवा से हवा में विष फैलेगा और तुम सब घुट-घुट कर मर जाओगे. तुम में से कोई  इस विषैली हवा से बचने के लिए हो सकता है, चांद पर चले जाएं, मगर वहां भी तुम मेरी गिरफ्त में ही रहोगे, क्योंकि चांद के भी मैं टुकड़े करने वाला हूं। जब धरती पर लाशों का अंबार होगा तो इसकी दुर्घंध से फिर कोई जीव पैदा होंगे। इस जीव से मुझे संतुष्टी नहीं  हो पाएगी तो मैं फिर उसे भी नष्ट कर दूंगा। मैं ऐसा क्यों करता हूं? यही मेरा स्वभाव है। मैं हमेशा कुछ नया करने का प्रयास करता रहता हूं।

इस ब्रह्रांड के सभी जीव-जंतु और निस्प्राण वस्तुओं की कहानी मैंने ही लिखी है। कल ये सब कहानियां खत्म हो जाएगी। तुम्हारी इच्छा होगी कि इन कहानियों को आने वाली पीढि़यों को सुनाई  जाए, मगर तुम्हारा दिमाग मेरे नियंत्रण में है, तुम खुद ही जिस पेड़ पर बैठे हो, उस पर कुल्हाड़ी चलाने को अग्रसर हो जाओगे? दुनिया में यही विडंबना है कि तुम्हारा दिमाग तुम्हारे बस में नहीं  है। अगर तुम्हारा दिमाग तुम्हारे नियंत्रण में हो जाए तो तुम सृष्टा की भी हत्या कर दो। सृष्टा ताकतवर है। यह ताकत जहां से संचालित होती है, उसी से मेरा संबंध जुड़ा हुआ है।

मैं तुम्हारे सामने हूं। जिस समय ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं, तब एक शक्ति उसे संचालित कर रही है। कल ये पंक्तियां लिखने वाला नहीं  रहेगा। हो सकता है तुम उसे खोज लो और मार डालो या उसके दिमाग का आपरेशन कर डालो, लेकिन तुम्हारे हाथ केवल ये पंक्तियां लगेगी, क्योंकि मुझ तक पहुंचना आसान नहीं  है। ऐसा नहीं  है कि मैं तुमसे नफरत करता हूं। मैं तुम सबसे प्यार करता हूं, लेकिन मेरा स्वभाव भावनाओं से परे है। मैं निराकार निराभाव हूं. मुझे इस जहां से प्यार है. लेकिन इस प्यार के विरोध में मुझे नफरत भी चाहिए। अलग-अलग स्वभाव, अलग-अलग ताकत, अलग- अलग दिमाग, सब कुछ मेरे इशारे से क्रीड़ाएं करते हैं। जब ये क्रीड़ाएं खत्म हो जाती हैं तो मुझमें आकर समा जाती है। फिर एक दौर आता है जब कोई कौंपल फूटती है।

दुनिया एक गुब्बारा है। इसे गुबारे को मैं ही फुलाता हूं और मैं ही अपनी चेतना की सुई लगाकर फोड़ देता हूं। यह प्रक्रिया न जाने कब से चल रही है, इसे तुम नहीं जान पाते। तुम अपने होने पर गर्व करते हो, अपने जीवन में इतने अपराध कर बैठते हो कि अपना जीवन सार्थक नहीं  कर पाते, हालांकि यह सब मेरी ही मर्ज़ी  से होता है, मगर तुम इसे अपना कर्म करके बौराते हो। मेरी मर्ज़ी  के बगैर यहां कुछ नहीं  होता। कल जब तुम नहीं  रहोगे तो तुम्हारी कहानियां कोई और सुनाएगा। कुछ लोग अपनी कहानियां सुनाने लायक नहीं रहते ,. लेकिन जब तुम्हे लगता है कि मृत्यु तुम्हारे द्वार है तो तुम छटपटाते हो, कल ऐसा होगा जब धरती ही नहीं रहेगी, ऐसा कई बार तुम सुन भी चुके हो, मगर हर बार तुम बच जाते हो। तुम्हारी धरती के विनाश  की आहट से भी तुम संभल नहीं पाते। इन सबके बीच में तुम्हारा अभिमान तुम्हे डराता नहीं  अगर तुम्हे पता चल जाए कि कल वाकई  प्रलय आएगा तो भी तुम घबराओगे नहीं, और इसका खोज ढूंढ़ने में लग जाओगे? भला विनाश  की भी कोई परिभाषा होती है? विनाश  तो कभी भी, कहीं  भी, किसी रूप में आ सकता है। यह विनाश  जब आता है तो नवसृजन की परिभाषा अपने साथ लाता है।

यह परिभाषा तुम नहीं  समझ पाते। तुम्हारी उपलबिधयां ब्रह्राांड में टूटते तारे से अधिक नहीं । जब सब कुछ तुम्हारी मर्ज़ी  से नहीं होता, फिर तुम मुझमे समर्पण क्यों नहीं  करते? तुम मेरे अस्तित्व  को न जान पाए हो, न मान पाए हो, न ही स्वीकारते। तुम तो बस अपने अपने भगवान को खरीदने में लगे हो, उन्हें प्रसाद चढ़ाकर अपना भला करने की भूल कर बैठते हो। कल जब तुम नहीं  रहोगे तो भगवान को तुम्हारे रिश्तेदार कोसेंगे। फिर कुछ दिनों बाद कोई मुसीबत आएगी तो उसे ही प्रसाद चढ़ाएंगे। अच्छा हो तुम अपने कर्म को इतना सरल बनाओ की मृत्यु भी तुम्हारे लिए कठिन नहीं  बन जाए।

लेकिन जीते जी व्यकित हार नहीं  मानता। वह जीतने की जिद में सभी दांव हारने लगता है और मृत्यु उसके द्वार पर आकर नर्तन करने लगती है। वह फिर भी घबराता नहीं और उससे भिड़ जाता है। इस टकराहट में एक व्यकित का अभिमान सदा-सदा के लिए हार जाता है और जीवन का तारा टूट जाता है। वह टूटा तारा फिर मुझमे समा जाता है। फिर वह मुझसे किसी और रूप में व्यक्त हो जाता है। इस कड़ी में कितने ही वर्ष बीत जाते हैं, लेकिन यह सिलसिला अब उबाऊ हो गया है। अब मैं चाहता हूं कि कुछ अलग कार्य हो। किसी गृह पर नई  सृष्टि  को आकार दिया जाए। पृथ्वी से दामन समेट लिया जाए। तुम अगर अभी भी सोए रहे तो सोते ही रहोगे। अगर हल निकालने में लगोगे तो समय हाथ से छूट जाएगा और तुम कभी कामयाब नहीं  हो पाओगे? यह धरती हमेशा  मेरी मर्जी  से संचालित हुई है। मुझमे तुम सब समाए हुए हो। मुझसे रोशन होते हों और फिर मुझमे ही समाहित हो जाते हो। अब फिर ऐसा होने वाला है।

मैं कौन हूं? मैं तो अव्यक्त में व्यक्त अव्यक्त हूं। मेरी न तो आयु निषिचत है और न ही सीमा। मैंने आज जो खिलौने बनाए हैं, कल उसे नए रूप दे सकता हूं। तुम आज तक जिसे पूजते आए हो वे भी तो मेरे ही बनाए खिलौने हैं। इस धरती पर शैतान, भगवान और इंसान तीन शकितयों ने जन्म लिया। ये सब मेरी मर्जी  से हुआ। सभी मुझमें अंतत: आकर समाते गए। यह सिलसिला चलता आ रहा है। अब यह सिलसिला नया मोड़ लेने वाला है। तुम जब ये पंकितयां पढ़ोगे तो इसे गंभीरता से नहीं लोगे और अपनी ही क्रीड़ाओं में मग्न हो जाओगे? लेकिन यदि सच्चे मन से मुझे याद करोगे, मुझसे जीवन का वरदान मांगोगे तो हो सकता है, मैं कुछ नरम हो जाऊं। लेकिन तुम्हारा अभिमान तुम्हारी शक्ति  को नष्ट कर देगा।

जिस शक्ति  पर तुम नाज करते हो, वह मुझसे ही निसृत होती रहती है और मुझ में आकर समा जाती है। शक्ति ही सृष्टा है। यह सृष्टा ही मैं हूं। मैं अगर किसी दिन आकार में आ गया तो तुम सब मिलकर मेरी हत्या कर डालोगे। इसलिए तुम न तो मुझे कभी देख पाओगे न ही मुझे मार पाओगे। क्योंकि मैं मृत्यु से परे, जीवन से परे, एक ऐसी सत्ता हूं, जिसका साम्राज्य मेरे भीतर व्यक्त है। मेरी शकित का फामर्ूला ऐसे अंधे कुएं में छिपाया हुआ है, जिसको खोजना तुम्हारे लिए कभी संभव नहÈ है।

स्वामी डमडम डीकानंद कौन है? इसे तुम शायद ही कभी खोज पाओ? क्योंकि यह शक्ति एक ऐसी अदृष्य शक्ति रही है जो अभी दृष्य में नहीं आ पाई ? क्या कभी आने की संभावना है? नहीं । फिर यह नामकरण किसका हुआ? यह एक ऐसी पहेली है जिसे हल करना आसान नहीं है। यह पंकितयां लिखने वाला कोई  पागल भी हो सकता है, मगर तुम उसकी हत्या करके भी मुझ तक नहीं  पहुंच पाओगे? क्योंकि जगत का जनक भी स्वामी डमडम डीकानंद है। यह स्वामी जब जन्म लेगा तो तो कुछ लोग उसे मारने पर उतारू हो जाएंगे, लेकिन वह फिर भी कई  लोगों में जीवित रहेगा। तुम उसे पूजना चाहोगे, लेकिन यह सही दिशा  नहीं होगी। तुम तो उसे अपने भीतर महसूस करना और जब भी जगत पर खतरा मंडराए उसका स्मरण करना। मन से स्मरण करोगे तो सदमार्ग मिल जाएगा।

स्वामी डमडम डीकानंद नाम एक ऐसे स्वामी का है जो शकितयों का स्वामी है। यह स्वामी बिलकुल फकीर है। मगर उसकी झोली में जगत का असितत्व है। जगत का असितत्व, हां असितत्व। इस जगत में क्षण-तत्क्षण-पल और पल से भी कम समय में, जो भी घटना घटित होती है, उसमें मेरा हाथ है। मेरे इशा रे के बगैर कुछ भी नहीं होता। जन्म, मृत्यु, हारी-बीमारी, खुशी -गम, घटना-दुर्घटना, आंधी, तूफान, बरसात, सूखा, अकाल, अतिवृषिट, धूप-छांव,  जगत की हर परिसिथति की धुरी मैं ही हूं. जिस धुरी पर पृथ्वी चक्कर लगा रही है, उसका स्टैंड भी मैं ही हूं. चांद, तारे, सूरज, ग्रह सभी मेरे इशारे पर गतिमान होते है। दृष्य-परिदृष्य का आकार मैं हूं।

मुझसे ताकतवर कौन है? आपको लग रहा है मैं अहंकारी होता जा रहा हूं. ऐसा नहीं  है। निरंकारी हूं. जिसका कोई  आकार नहीं , जिसका कोई स्वरूप नहीं जिसकी कोई  तस्वीर नहीं , जो अजन्मा है, उसे अहंकारी कैसे माना जा सकता है? अहंकार व्यकित का स्वभाव होता है? जो अहंकार करता है उसका विनाष अवष्यंभावी है। लेकिन मैं तो अजन्मा हूं। मैं व्यकित नहीं हूं, जिसका कोई  रूप-रंग-आकार नहीं , उसे अहंकार कहां से आएगा? अहंकार पदार्थ का गुण है। मैं तो पदार्थ भीनहीं  हूं। पदार्थ में जब कोई  गुण होता है तो वह अहंकार का भाव धारण कर सकता है? बादलों को अहंकार होता है तो हवा उसे उड़ा ले जाती है। हवा को अहंकार होता है तो पर्वत उसका गुरूर तोड़ देती है। सूरज को अहंकार होता है तो रात उसे नेपथ्य में डाल देती है। रात को अहंकार होता है तो नन्हा दीप रोशन हो जाता है। दीपक को अहंकार होता है तो मनुष्य फूंक देकर उसे बुझा देता है। मनुष्य को अहंकार होता है तो मृत्यु उसे अपने आगोश  में ले लेती है। मृत्यु को अहंकार होता है तो देवता अमृत मंथन कर अमृतकलश  की उत्पत्ति कर लेते है। अमृत को अहंकार होता है तो राहू-केतु को शीश  कटाना पड़ता है। देवता भी कभी कभी अहंकारी हो जाते हैं तो कोई  गांधारी श्राप देकर उसकी माया को नष्ट कर देती है। माया अहंकारी होती है तो साधु संत उसका शमन करते हैं। साधु संत अहंकारी होते है तो? इसका जवाब मैं हूं. जब साधु संतों का अहंकार आ जाता है तो प्रलय आ जाता है। साधु संत कभी अहंकारी नहीं  होते? लेकिन जो लोग भगवा चौगा पहन लेते हैं वे साधु संत नहीं  होते। साधु संतों का तो कोई  आकार नहीं  होता है, ठीक वैसे जैसे मैं हूं। 

मैं निराकार का स्तनपान करके बड़ा हुआ हूं। मेरी गोदी में देवता रमण करते हैं। मैं दुनिया का अधिष्ठाता हूं। मैं कहां हूं? मेरा निवास ब्रह्राांड में नहीं  है, क्योंकि मुझमें ही समूचा ब्रह्राांड निवास करता है। फिर कहां रहता हूं मैं? रहने की आवष्यकता उसे होती है जो पदार्थ हो, अगर पानी है तो उसे नदी चाहिए। बर्तन चाहिए। अगिन है तो उसे सूरज चाहिए। हवा है तो उसे वायुमंडल चाहिए। चांद है तो उसे आकाश  चाहिए। पृथ्वी है तो उसे धुरी चाहिए, लेकिन मुझे क्या चाहिए? मुझे कुछ चाहने की जरूरत नहीं  है, क्योंकि जिसे जो चाहिए उसे मैं उपलब्ध करवाता हूं। इसलिए मुझे तुम कहां खोजोगे? अगर खोजना ही है तो अपने भीतर खोजें? मैं तुम्हें मिलूंगा नहीं  लेकिन तुमने मुझे अगर भीतर से एहसास कर लिया तो फिर तुम भी मेरी तरह अजन्मा बनना चाहोगे? अजन्मा शोक, खुशी, भावना से परे होता है। वह तो एक शून्य है। शून्य बिन्दू को कहते हैं मगर बिंदु जब सिकुड़ कर परमाणु बन जाता है तो वह अथाह शकित का श्रोत बन जाता है। तुमने, हां तुमने विज्ञान पुत्रों परमाणु का आविष्कार कर लिया है। तुम्हें बहुत नाज है कि तुमने विनाष का अस्त्र तैयार कर लिया है। तुम दुनिया को मिटाने का ख्वाब देख रहे हो। तुम अपनी उपलबिधयों पर अहंकार कर रहे हो। मेरे व्यवहार में परमाणु शक्ति फूटे हुए गुब्बारे से अधिक कुछ नहीं  जब गुब्बारा फूटता है तो उसमें हवा नहीं  ठहरती। तुम्हारी परमाणु शक्ति  भी मेरे आगे कोई  महत्व नहीं  रखती? 

तुम आज जिस स्थान तक पहुंचे हो, उसे मैं ले आया हूं। तुम्हारी उपलबिधयों पर तुम जश्न  मना रहे हो, तुम उसका उत्सव मनाते हो? लेकिन जिस दिन तुमने अपना ही विनाश  कर लिया फिर फिर तुम्हारी उपलबिधयों पर कौन गर्व करेगा, तुम्हारी संतानें तुम्हें कोसेगी? लेकिन जरूरी नहीं  कि तुम परमाणु अस्त्रों का उपयोग करके अपनी संतानों को  जन्म दे पाओ? तो हे विज्ञान पुत्रों अपनी उपलबिधयों पर मत बौराओ?

तुम अब अहंकारी हो रहे हो? तुम्हें अपने दिमाग पर अभिमान है? लेकिन ब्रह्राांड के सारे दिमाग का रिमोट मेरे पास है? अगर तुमने इस दुनिया को नष्ट किया तो वह मेरे इशारे पर ही होगा? दो विश्व युद्ध हुए। तीसरे की तुम तैयारी कर रहे हो? बुद्धिजीवी पूछते हैं विश्व युद्ध होगा या  नहीं? लेकिन दुनिया का अंत तुम्हारे सोचने से  नहीं होगा? तुम लड़ते रहो, मरते रहो, लेकिन दुनिया का अंत तुम्हारी मजÊ से कभी  नहीं होगा? तुम्हारे आतंकी दिमाग से सृषिट को बचाने के लिए दूसरे ग्रह पर शकितयां जन्म ले चुकी है. जिस दिन तुम दुनिया को मिटाने को अग्रसर होंगे, तुम्हारा खुद का असितत्व  नहीं रहेगा. इसलिए है परमाणु पुत्रों, हे दिव्य मानवों, हे अहंकारी पुरुषों, सावधान! दुनिया को मिटाने का ख्वाब छोड़ दो. कल जब तुम अपने अभियान को सफल करने की चेष्टा करोगे तो मैं किसी न किसी रूप में तुम्हारे सामने खड़ा रहूंगा? यह दुनिया तो नष्ट होगी, लेकिन इसके लिए मुझे करवट लेनी होगी. लेकिन मैं एक ही करवट में कब तक रहता हूं यह खुद मुझे  नहीं पता? मेरा हर कार्य सहज होता है? मैं कुछ भी प्री प्लान  नहीं करता. क्योंकि मेरे यहां हर कार्य सहज होता है. लेकिन इस सहज में कोर्इ भी असहज  नहीं हो पाता? यह कार्य इतना वैज्ञानिक होता है कि दुनिया के सारे विज्ञान पुत्र चाहकर भी इस सिथति तक  नहीं पहुंच पाते? विज्ञानपुत्रों और मेरे बीच संघर्ष चल रहा है? ऐसा मैं  नहीं कहता। ऐसा विज्ञान पुत्र कहते हैं? कल वे मुझसे टक्कर लेने की तैयारी में है, लेकिन उन्हें मेरी शकित का एहसास  नहीं है. मैं शकितयों का स्वामी होते हुए भी कबीर की तरह बेहथियार हूं. कबीर ने शब्दों को हथियार बनाकर खुद मुकित की मुराद पाकर मिसाल बन गए. तुम कबीर को पूजते हो. लेकिन तुम कबीर बनने की कोशिश  नहीं करते. इस दुनिया में हर आदमी कबीर बन सकता है. लेकिन सभी कबीर हो गए तो फिर दुनिया कैसे चलेगी. यह दुनिया तुम्हें  नहीं मुझे चलानी है. इस दुनिया को चलाने के लिए मुझे करोड़ों कहानियां लिखनी पड़ती है. हर कहानी के पात्रों का चरित्र गढ़ना पड़ता है. यह कहानियां अपने आप में विशाल उपन्यास है जिसका अंत कभी  नहीं होगा. लेकिन सही मायने में ये सभी कहानियां अंतरिक्ष में टूटते तारे से अधिक कुछ भी  नहीं। जब तुम कोर्इ कहानी लिखते हो तो उस पर अभिमान करते हो, लेकिन तुम  नहीं जानते यह कहानी इस जगत में कभी मिथ्या  नहीं रही, वह कहानी ब्रह्राांड में  कहीं  न  कही  जन्म ले चुकी है, या अपना दायित्व निभा चुकी है. आपकी कहानियां और मेरी कहानियों में अंतर  नहीं है. तुम सभी सृष्टा हो, मेरी ही तरह. लेकिन तुम कहानियों को लिखते समय अपनी कहानी भूल जाते हो. जब जब मनुष्य अपनी कहानी को बेहतर बनाने के लिए अपने आप को भूल जाता है तब तब वह सृष्टा की ताकत खो जाता है? तुम्हारी कलम भी सृष्टा की चाक हो सकती है, तुम भी सृजन का शिल्पी बन सकते हो, लेकिन इसके लिए तुम्हें अपना स्वरूप अपना आकार छोड़ना होगा. तुम्हें शरीर में रहते हुए भी नस्वर बनना पड़ेगा. तुम्हारे भीतर प्राण वायु है. लेकिन जब प्राण वायु में तुम जाने लायक बन जाओगे. जब तुम अपने प्राण दूसरे में डालने लायक बन जाओगे तब तुम सृष्टा की ओर कदम बढ़ाने वाले बन जाओगे? यह जगत मिथ्या है, ऐसा तुम भी कहते हो, समझते हो, जानते हो. लेकिन मैं मिथ्या  नहीं हूं. इस जगत में मिथ्या कुछ भी  नहीं है. इस जगत के आरंभ से लेकर अब तक की सभी कहानियां मेरी डायरी के पृष्ठों में अंकित है. मेरी डायरी कभी नष्ट  नहीं होगी. इसके पन्ने कभी फटेंगे  नहीं जब सृषिट  नहीं रहेगी तब भी यह कहानियां कहीं  न कहीं  जीवित रहेगी. इसे तुम्हारी आने वाली पीढ़ी या किसी अन्य ग्रह का कोर्इ व्यकित खोज सकता है. अगर वह खोजने में सफल हो गया तो वह अपनी उपलबिध पर बौराएगा. लेकिन हे मनुष्य तुम्हें मैंने मनुष्य देह दी है, इसे तुम व्यर्थ न गंवाओ. अपने को सृष्टा बनाओ. अपनी शकित पहचानो, उठो, जागृत हो, अपनी देह को दिकपाल बनाओ, घर से बाहर निकलकर जिस घर में तुम्हारी देह है उस घर को खोजो.

इसके लिए तुम अपनी चेतना विकसित करो. चेतना ही असली ताकत है. इस चेतना को विकसित करो. मुझमे अगर कोर्इ शकित है तो वह चेतना ही है. आदमी मर सकता है. लेकिन चेतना कभी  नहीं मरती. चेतना आकार  नहीं लेती, लेकिन चेतना के बगैर जगत में पदार्थ का कोई  असितत्व  नहीं  है.  पानी में चेतना है. अगिन में चेतना है. आकाश में चेतना है. मिटटी में चेतना है. वायु में चेतना है. जगत में हर जगह, हर स्थान पर चेतना है. चेतना के बगैर जगत का असितत्व ही संभव  नहीं मगर जब जगत  नहीं था तब भी मैं था. चेतनशकित विधमान थी. यह चेतना आकार लेती रही. आज जिस रूप में यह धरती है, यह उस अनंत चेतना की शाखाएं हैं. यह ब्रह्राांड चेतन है. चेतन है तो चेतना तो होगी ही. तो हे चेतन मना, हे चेतन पुरुष, अपने को जानो, अपनी चेतना को जागृत करो. 

चेतना से बढकर कोर्इ शकित  नहीं. चेतना से तुमने कंप्यूटर बना लिए. मगर जिस दिमागी चेतना से इतना कदम चले हो दो कदम और चलों और खुद इस लायक बनो कि मनुष्य बनाने लायक बन जाओ. जब तुम मनुष्य बनने लायक बन जाओगे तो चेतना की शकित का दायरा बढ़ जाएगा. तुम चेतन पुरुष बन जाओगे. फिर मेरी चेतना और तुम्हारी चेतना मिलकर अपने सपनों को और आकार देंगे, साकार करेंगे.

साकार होने में जो आनंद है, वह निराकार में  नहीं है. मगर निराकार जब साकार बन जाता है तो उसे लीला करनी पड़ती है. यह जगत लीला का घर है। लीलाधर है. तुममें से भी कोर्इ लीलाधर है तो कोर्इ लीला है. लीला और लीलाधर मिलकर सृषिट का विस्तार कर रहे हो. मगर तुम केवल लड़का लड़की ही पैदा कर सकते हो. तुम मेरी तरह जो चाहो उसकी रचना  नहीं कर सकते. क्योंकि तुम्हारी चेतना अभी इतनी विकसित  नहीं हो पार्इ है. तुम्हें अपनी चेतना विकसित करनी चाहिए. चेतना विकसित करने के लिए ध्यान करने की आवश्यकता  नहीं है. भगवान को पूजने की आवश्यकता भी  नहीं है. इसके लिए तरीका है तुम सोचो. अपने बारे में. अपने शरीर के बारे में. कल्पना करो. सपने देखो. हर पल, हर क्षण सोचते रहो. इसी सोच से तुमने वायुयान बना लिए. इसी कल्पना से तुमने राकेट बना लिए और चांद तक जा पहुंचे. लेकिन तुम चांद तक पहुंचकर भी अपने भीतर  नहीं पहुंचे. तुमने शरीर की शल्य कि्रया तो कर ली लेकिन अपने अहंकार की शल्य कि्रया  नहीं की. जब तुम अपने अहं की शल्य कि्रया करोगे और अपनी प्राण शकित तक पहुंच जाओगे तब तुम ऐसी शकितयों के पुंज बन जाओगे जो मुझसे आ मिलेगी. 

मैँ कौन हूं? मैं तो स्वामी डम डम डीकानंद हूं. मैं अभी कहीं  भी दृष्य में  नहीं हूं. लेकिन तुम सभी मुझसे मिलना चाहोगे. लेकिन यह ख्वाब तभी पूरा हो सकेगा जब तुम सब डम डम डीकानंद बन जाओगे. क्योंकि डम डम डीकानंद नाम भी तुम्हारे में किसी मनचले ने ही दिया था. उसने यह नाम क्यों रखा यह तो मैं भी  नहीं जानता, लेकिन यह नाम एक ऐसी शकित का है जो अब आपके सामने इसी नाम के रूप में जानी जाएगी. 
स्वामी डम डम डीकानंद ने कोर्इ चमत्कार  नहीं किए हैं. क्योंकि चमत्कार तो यह जगत है. इस जगत से बढ़कर कोर्इ चमत्कार क्या होगा? जो जगत की सच्चार्इ आपको बता रहा है. जो आपको जन्मे और अजन्मे के बीच का भेद बता रहा है उससे बढ़कर चमत्कार क्या होगा? 
ठस जगत में लोग गीता पढ़ते हैं? कुरान पढ़ते हैं. बाइबल पढ़ते हैं लेकिन अपने आपको पढ़ना कोर्इ  नहीं चाहता. लोग कहते हैं महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुंन  को गीता का संदेश दिया और कर्म की राह पर चल पड़ा. लेकिन इस जगत की महाभारत में तुम सब अर्जुन पुत्रों को यह स्वामी डमडम डीकानंद श्रीकृष्ण के रूप में ही चेतना की कहानी बता रहा है. अगर तुम चेतना की इसी कहानी को, इसी गीता संदेश को जान जाओगे तो फिर इस ब्रह्राांड के अनंत पटल पर अनगिनत गीता लिखने के काबिल बन जाओगे. तुम खुद नारायण बन जाओगे. तुम खुद कृष्ण बन जाओगे. कृष्ण एक विचार है. कृष्ण को तुमने  नहीं देखा. गीता को तुमने  नहीं सुना. तुम्हें किसी ने बताया कि गीता कृष्ण ने लिखी है. तुम इस पर विश्वास करते हो. लेकिन अपने आप पर विश्वास  नहीं करते. तुम्हें पता है कि किसी भी क्षण तुम मर सकते हैं. तुम्हारा असितत्व खत्म हो सकता है. लेकिन फिर भी तुम केवल कृष्ण का नाम जपकर, गीता पढ़कर अपने अगले जन्म को सुधारने में लगे हो. इस जगत का सच यही है कि कष्ण कहानी है, राम कहानी है, नानक कहानी है, मोहम्मद साहब कहानी है, लेकिन तुम कहानी  नहीं हो. तुम सच्चार्इ हो. इस सच्चार्इ की कभी मौत हो जाएगी, या तुम खुद ही हत्या कर दोगे, अगर तुम वाकर्इ अपने असितत्व को बचाने लायक बन गए तो समझो तुम्हारा उद्धार हो गया.

जब कृष्ण को बहेलिए के तीर ने मार दिया, जिसे तुम कहते हो कृष्ण ने माया समेटी तो फिर तुम भी तो अपनी माया समेटने लायक बन जाओ. कृष्ण की माया तो समेटी जा चुकी है, लेकिन तुम्हारी माया कभी भी किसी क्षण सिमट जाएगी. हे मनुष्य अगर तुमने अपने अपने होने को साकार कर दिया तो तुम निराकार होकर मुझमे समा जाओगे. कल क्या होना है यह सिर्फ मैं जानता हूं. तुम  नहीं जानते. तुम यंत्र बनाने में जुटे हो हो कि भविष्य का पता चल जाए. हो सकता है कल तुम ऐसा यंत्र बना डालो जो तुम्हें भविष्य बता दे, लेकिन जब तक तुम भविष्य को मुटटी में कैद  नहीं कर सकने लायक बने तो जगत का भविष्य संकट में पड़ जाएगा. इसलिए सबसे पहले भविष्य की बजाय वर्तमान को तलाशे. अपने आपको जाने. हम कहां से आए हैं, हममें का आशय तुमसे है, मुझसे  नहीं. क्योंकि मैं तो अभी निराकार हूं. अजन्मा हूं. लेकिन तुम अजन्में  नहीं हो. तुम अजन्मे बन सकते हो, लेकिन एक बार तो तुम जन्मे बन ही गए हो. अगर तुम अजन्मे बनना चाहते हो तो इस जगत का सत्य जान जाओ. मौत कभी भी तुम्हें अपनी आगोश में ले सकती है, लेकिन हे मनुष्यों इस जीवन को अमृतमय बना दो. जीते जी अमरता का वरदान पाने के लिए अपने होने की कहानी जान लो. राम तुम्हारा मोक्ष  नहीं करने आएगा. कृष्ण तुम्हारे अगले जन्म को  नहीं संवारेगा. ब्रह्राा, विष्णु, महेश इस ब्रह्राांड की कहानियां है. मुहम्मद साहब कभी पैदा हुए होंगे, तुम भी मुहम्मद साहब बन सकते हो, लेकिन जगत में मुहम्मद साहब बनकर भी तुम जगत के सभी लोगों का दिल  नहीं जीत सके. तुम्हारे जैसे लोग आतंक और भय के बल पर मुहम्मद साहब को मानने पर लोगों को मजबूर करते रहे, ईसा  के अनुयायी ईसा  को अमर करने के लिए धन दौलत का लालच देते रहे, लोगों को बिलमाते रहे, लेकिन अपने मन को किसी ने मथने का प्रयास नहÈ किया. जब तक तुम अपने भीतर  नहीं उतरोगे भवसागर से पार कैसे पाओगे? 

भीतर उतरने के लिए बाहर से संबंध तोड़ना पड़ेगा. लेकिन लोग बाहर इतने उतर चुके हैं कि उसे भीतर की कोर्इ चिंता ही  नहीं है. जगत जो बाहर दिख रहा है, उसका मर्म समझना इतना आसान  नहीं है. प्रयोगशाला में तुम जिन फामर्ूलों को बनाते हो वे फामर्ूले अंतिम सत्य  नहीं है. समय के साथ उसके समीकरण बदल भी जाते हैं. विज्ञान को कोर्इ भी फामर्ूला शाश्वत सत्य  नहीं है. जब जीवन ही शाश्वत सत्य  नहीं है फिर तुम्हारे फामर्ूले कैसे शाश्वत सत्य होंगे. इसलिए जगत को जानने से पहले अपने आपको जानना होगा.

जानना  तो तुम्हारा स्वभाव है. तुम जानने के लिए बहुत उत्सुक भी रहते हो. मगर जिस जानने से सब कुछ खोना पड़े या जिस जानने से केवल सिद्धांत हाथ लगे, उस जानने का अर्थ ही क्या है. अगर जानना ही है तो ऐसा कि सब कुछ पाने की ही बात हो. अब तक तुम खोने के लिए जान रहे हो. पाने के लिए जानने लगोगे तो बहुत कुछ खो दोगे, मगर इतना कुछ पा लोगे कि फिर जानने की इच्छा ही  नहीं रहेगी.

तुमने जानने की जिजिविशा में अंतरिक्ष में कदम रख लिए. चांद की चांदनी का राज जान गए, मगर अपने भीतर की रोशनी का राज जानना तुम्हारे लिए अब तक संभव  नहीं हो पाया. रोशनी को जानने के लिए अंधेरे से सामना करना पड़ेगा. अंधेरे को चीरने के लिए चिराग  नहीं चिंगारी ही काफी है. अंधेरी गुफा में जब कोर्इ चिंगारी सुलगती है तो विस्फोट हो जाता है. तुम्हारा दिमाग भी ऐसा ही अंधा कुआं है. इसमें इतने गहन रसायन है कि कभी भी चेतना की चिंगारी से प्रकाश पर्व मन जाएगा. मगर इस गहन अंधेरे को चीरने वाली चेतना की चिंगारी कहां से आए? यह चिंगारी तुम्हारे भीतर है. तुम्हारे भीतर चिंगारी  नहीं ज्वालामुखी है. लेकिन इसे ज्वलंत करने में कितने ही ऋषि मुनियों ने जीवन होम कर दिया. लेकिन न तो साधना से, न आराधना से, न मनन से न चिंतन से, न चरित्र से न चराचर जगत में रमण करने, कोर्इ कुछ जान पाया. जगत के सत्य को जानने के लिए कितने ही जीवन कम पड़ गए. आज तक कोर्इ आत्मा से साक्षात्कार  नहीं कर पाया. जीवन को बेहतर बनाने के लिए कर्इ लोगों ने कर्इ जतन किए. मगर वे आधे अधूरे जतन रहे. पूर्ण पुरुष, प्रकृति पुरुष अभी तक इस ब्रह्राांड में नहÈ आया. जब कोर्इ प्रकृति पुरुष इस धरती पर जन्म लेगा तो प्रकृति का विधान बदल देगा. इसी प्रकृति पुरुष का नाम स्वामी डम डम डीकानंद है. लेकिन यह आकार में  नहीं, विचार से प्रकृति पुरुष है. इसे समझने के लिए दीपक की लौ को  नहीं उसकी आंच को जानना होगा. जगत जलता हुआ ज्वालामुखी है. इसमें कभी भी विस्फोट हो सकता है. लेकिन इसमें विस्फोट इतना जल्दी  नहीं होगा. विस्फोट के लिए पहले लक्षण दिखने लगेंगे। प्रकृति चेतावनी देगी. फिर भी यदि मानव  नहीं संभला तो विनाश का महातांडव नर्तन करने लगेगा. जब हर ओर विनाश की आहट सुनार्इ देगी तो कौन अपना जीवन बचा पाएगा? इतनी बड़ी पृथ्वी पर जीवन बच भी गया तो उसे निरंतर रखना कैसे संभव होगा. उस समय सारी प्रगति, सारी उपलबिधयां स्वाहा हो चुकी होगी. कुछ भी ऐसे हालात नहीं होंगे कि जीवन को जीवट रख पाना आसान हो. महाप्रलय के बाद जीवन का बीज बचाकर रखना कैसे संभव होगा? इसके लिए अभी से सभी को मंथन कर देना शुरू कर देना चाहिए. कभी न कभी विनाश तो आएगा. विनाश कभी भी, किसी भी पल आ जाता है. यह नदियां, यह पर्वत, यह चांद, यह सितारे, यह पेड़, यह पौधे, यह सूरज, यह पृथ्वी और यह आसमान भी सब कुछ स्वाहा हो जाएगा. लेकिन कहां कौन अपना असितत्व बचा पाएगा, इसके लिए कहना संभव  नहीं है, तुम्हारे लिए. तुम विज्ञान पुत्रों अभी से इस दिशा में सोचना आरंभ कर दो. कल जब तुम विनाश की छाया में जीवन के बीज को बचाने का जतन करोगे तो हर परिसिथतियां तुम्हारे सामने होगी. हो सकता है न प्रकाश हो, न अंधकार, न सूरज हो न चांद, न पानी हो, न हवा, हो सकता है तुम ऐसी दरिया के बीच किसी टापू पर अपने को रेंगते हुए पाओ. तुम क्या खाओगे? क्या पिओगे? कहां रहोगे? तुम्हारा परिवेश बदल जाएगा. पल पल तुम्हारे लिए संकट खड़े होंगे, ऐसे में हो सकता है तुम आत्महत्या करना ही पसंद करो. मगर मरने से पहले अगर सूसाइड नोट भी लिखना चाहोगे तो तुम्हारे पास न कागज होगा, न पेन, तुम अपने रक्त से अगर टापू की जमीन पर सुसाइड नोट लिख भी दोगे तो उसे पढ़ेगा कौन? कब तक वह जड़ रहेगा? तुम्हारी आज तक की सारी प्रगति, सब उपलबिधयां स्वाहा हो जाएंगी. इसलिए हे मनुष्य कल के लिए चिंतन शुरू कर दो. कल सुनहरा हो, तुम्हारी पीढि़यां सलामत रहे, तुम्हारे गीत गूंजते रहे, सरगम बजती रहे, इसके लिए फिक्रमंद बनो. 

तुम जैसे जैसे विकास की ओर अग्रसर हो रहे हो, नए नए संकट तुम्हारे सामने आ रहे हैं. कभी तुम सोचते हो कि ग्लेशियर पिघल रहे हैं. कभी तुम सोचते हो कि धरती का तापमान बढ़ रहा है. कभी तुम सोचते हो कोर्इ ग्रह पृथ्वी से टकराने वाला है. लेकिन इसके लिए तुम भरसक कोशिश कर रहे हो कि इससे बचा जाए. हो सकता है इन तात्कालिक संकटों से तुम बचाते रहो धरती को, लेकिन तुम्हारी कोशिश की दिशा सफल होने में तुम्हारे लोग ही आड़े आ रहे हैं. तुम जिन संकटों का हल खोजने में लगे हो, उन संकटों का तुम्हारे ही लोग कारक बन रहे हैं.

तुम संकटों का हल खोजने की बजाय अगर संकट को न आने देने के जतन में लगते तो कुछ बात थी, मगर ऐसा  नहीं है। संकट हमेशा बिन बुलाए आते हैं, लेकिन उसकी आहट हमारे तुम्हारे भीतर सुनी जा सकती है। तुम उस आहट को सुन  नहीं रहे हो। जब संकट आता है तो उसका निराकरण करने में लग जाते हो। संकट क्यों आता है? इसका कारण भी तुम जानते हो, मगर इन संकट का भय किसको है? किसी को  नहीं। तुम जानते हो जिस वृक्ष को काट रहे हो, वह तुम्हारे लिए भविष्य का खतरा बन सकता है, लेकिन वृक्ष काटने से बाज  नहीं आते. यह बात वृक्षों तक ही सीमित  नहीं है. तुम खान पान को ही लो, जो तुम्हारी आयु को कम कर सकते हैं, वह तुम खाते पीते हो, सिर्फ लम्हों की खुशी के लिए, लेकिन अपनी आयु कम कर लेते हो. हालांकि आयु तुम्हारी मैं ही लिख चुका हूं, लेकिन तुम उस विधि के विधान को बदलने का प्रयास भी  नहीं करते.
तुम कहते हो विधि का विधान बदल  नहीं सकता. जब तुम्हारे विज्ञान का सत्य बदल सकता है, फामर्ूले बदल सकते हैं तो विधि का विधान भी बदल सकता है, जरुरत है भागीरथी प्रयत्न करने की. आसमां से जब गंगा धरती पर आ सकती है तो दुनिया में असंभव क्या रहा? अपने भीतर की शकितयों को पहचानो. शकित कभी दिखती नहÈ. शकित हमारे भीतर छिपी रहती है. हनुमान के भीतर भी शकित थी. उसे जगाया गया. तुम भी हनुमान की गति से सौ योजन समुद्र लांघ सकते हो, जरुरत है भीतर उतरने की. जब व्यकित भीतर उतरता है तो बाहरी दुनिया से संबंध विच्छेद हो जाता है. बाहर जो दिख रहा है, वह भीतर में घटित पहले ही हो चुका होता है. शिशु जन्म लेता है, लेकिन उसका अंकुरण भीतर होता है. बीज से पौध होता है, शुक्राणु से गर्भ में शिशु का अंकुरण होता है, मगर बीज कहां से आया? 

बीज की कहानी मेरी कहानी से शुरू होती है. बीज एक मंत्र है. इस मंत्र का जब ब्रह्राा ने उच्चारण किया तो सृषिट का शंखनाद हुआ. लेकिन ब्रह्राा की उत्पत्ति के लिए कोर्इ बीज नहÈ था. तो फिर क्या था. चेतना को बीज की तरह उपजाऊ बनाकर ही ब्रह्राा को जन्म दिया जा सकता था. यह मैंने किया. कर रहा हूं. मेरी सृषिट की प्रकि्रया अभी भी जारी है. मैं जब जगत को अपने चेतन चक्षुओं से देखता हूं तो लगता है इस जगत को अभी और जागृत करना है. जगत क्या है. जो जागृत है, वही जगत है. सोने का अभी समय नहÈ है. सोना तो विनाश को आमंत्रण देना है. जब मुझे एक पल के लिए भी झपकी लगती है तो बहुत कुछ बिखर जाता है. तहस नहस हो जाता है. लेकिन मैं पूरी तरह कभी नहÈ सोया. अनंत समय की चादर ओढ़कर भी मुझे कभी नींद   नहीं आर्इ. मुझे सुलाने के लिए देवताओं ने कितनी लोरियां सुनार्इ, देवताओं ने कितने शस्त्रों का प्रयोग किया, लेकिन न मैं मिटा, न सो पाया. मुझे जागना पसंद है. मेरी चेतना के अनंत चक्षु है. इन चक्षुओं से विराट से लेकर परमाणु का अनंतांस भी देख सकता हूं. ये चक्षु संजय को भी दूरदृषिट देते हैं. मैं महाभारत का जनक हूं. मेरे सामने ही दुनिया के सारे युद्ध हुए. मैं हर इतिहास का आदि हूं और भविष्य भी मेरे हाथों से लिखा जा रहा है. जब तुम मुझे समझने का प्रयास करोगे तो तुम्हारी इच्छा होगी, मुझे देखने की. लेकिन जब तुम अपने आप को देखने की प्रक्रिया शुरू कर दोगे तो फिर मुझे देखने की इच्छा शेष  नहीं रहेगी. 
मैं सौरभ हूं. लेकिन फूलों की तरह मेरा कोर्इ रंग  नहीं होता, लेकिन हर फूल की जड़े मैं ही सींचता हूं. मुझे तुम महसूस करने की कोशिश करो. मैं तुम्हारे भीतर ही हूं. मैं हमेशा चैतन्य रहता हूं. मैं चैतन्यमना हूं. चेतना तो एक प्रकार की ऊर्जा है, लेकिन यह विखंडन से उत्पन्न  नहीं होती. चेतना एक ऐसी प्राण शकित है जो निराकार है. शकित को जितना बांधने की कोशिश तुम करते हो, उसमें विस्फोट होता है. यह विस्फोट सूरज में ही होते रहते हैं, तुम सोचते हो सूरज के विस्फोट से पृथ्वी बनी. तुम बिंग बैंग थ्योरी से मेरे उत्पन्न होने की कहानी की कड़ी जोड़ते हो. लेकिन विस्फोट से कभी सृजन  नहीं होता. सृजन के लिए चेतना रूपी बीज की जरुरत पड़ती है. इस जगत में सबसे पहले क्या बना? सबसे पहले आसमान बना. बिना आसमान से सृषिट की उत्पतित संभव नहÈ थी. आसमान से हवा की उत्पतित हुई . फिर पानी बना. इसी कड़ी में आसमान ने सूरज को जन्म दिया. फिर धरती बनी. इन पंच भूतों से सृषिट को मैंने जन्म दिया. लेकिन इन सबसे पहले भी मैं था. अव्यä में व्यक्त.

कल क्या होने वाला है? कल को कल के लिए छोड़ने में तुम भी विश्वास  नहीं रखते और न ही मैं। मगर कर्इ लोग कल की चिंता  नहीं करते, वे आज में विश्वास रखते हैं. कल की चिंता करते भी हैं तो अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए. तुम बीमा करवाते हो, शेयरों में धन लगाते हो, बैंक बैलेंस बढ़ाते हो, पोस्ट आफिस और कर्इ बांड में धन इनवेस्ट करते हो, मगर बेस्ट लाइफ के लिए बेस्ट विचारों का इनवेस्ट  नहीं करते. अपने और अपनों के लिए जीना कोर्इ तुमसे सीखे. लेकिन समूची मानवता के लिए तुम जीना  नहीं चाहते. जो लोग मानवता की बात करते हैं उन्हें तुम सिरफिरा और पागल करार देते हो. सोचो, जब कल तुम  नहीं रहोगे, यह जहां  नहीं रहेगा, तब तुम्हारा धन कहां रहेगा? धन से धन्य होने की बजाय मन से धन्य होना जरूरी है. तुम्हारे पास तन है, मन है और धन है. लेकिन इन सबके साथ तुम्हारे पास आशंका है. तुम इसी आशंका से ग्रस्त होकर इसका दुरूपयोग करने लगते हो. अगर तुम मान लो कि तुम्हारे पास कुछ  नहीं है. तुम शून्य से कमतर हो. तब तुम अनंत आस में लगोगे. तुम उसे पाने में सक्षम भी हो, मगर जैसा कि तुम्हारी प्रकृति है, या कहें विकृति हो, तुम मुटठी भर धूप के लिए पूरे ब्रह्राांड की अनदेखी कर बैठते हो.

तुम्हें ब्रह्राांड पुरुष बनना है. इस दिशा में आगे बढ़ो. ब्रह्राांड पुरुष बनने के लिए ब्रह्राांड को अपने भीतर उतारना होगा. यह काम आसान  नहीं है, मगर मुशिकल भी  नहीं. तुम यदि ब्रह्राांड का स्वप्न देखते हो तो तुम्हें पहाड़ पर  नहीं रसातल में जाना होगा. तुम यदि अपने असितत्व को मिटाने की ओर अग्रसर होंगे तो ब्रह्राांड पुरुष बनने की ओर अग्रसर होंगे. यह ब्रह्राांड एक स्वप्न जैसा है, मगर कल्पित   नहीं है. लेकिन इसका कोर्इ भरोसा भी  नहीं है, कल जब सृषिट का विनाश होगा तो ब्रह्राांड कहा होगा, कोर्इ नहÈ जानता? लेकिन तुम यदि ब्रह्राांड पुरुष हो गए तो फिर से नव सृषिट का गान सुनाने लगोगे. यह सृषिट एक दिन में  नहीं बनी, मगर इसे नष्ट होने में एक पल भी  नहीं लगेगा. पल के क्षणांस से भी कम समय में प्रलय आ सकता है. इसलिए प्रलय में प्रणय के गीत सुनाने की क्षमता रखें. प्रणय से आशय भोग विलास  नहीं है. रागात्मक जीवन जीने से है. कबीर पुरुष बनने से है. अमृतस्य पुत्र बनकर ही प्रलय से पार पाया जा सकता है. प्रलय की नागिन को जब तुम सृजन की बीन से वश में करने का सामथ्र्य जुटा लोगे तो तुम ही सर्वसत्ता बन जाओगे. मगर तुम खोने को तैयार  नहीं हो. तुम पाने की जुगत में अपना सर्व होम कर रहे हो. तुम्हारा शरीर रोज रोज मर रहा है. थोड़ा थोड़ा. एक दिन तुम पूरी तरह शव हो जाओगे. शव होने से पहले तुम शिव को याद करोगे, राम को याद करोगे, कृष्ण का स्मरण करोगे. यदि तुम अपने आप को याद करो, अपने आप का स्मरण करो, अपने आपको सक्षम बनाओ, तो फिर तुम्हें किसी से डरने की जरुरत नहÈ है. लोग तुम्हारा स्मरण करोगे. कृष्ण,राम, शिव जगत का संपूर्ण सच  नहीं है. क्योंकि जगत को जानने की प्रकि्रया भी अभी पूरी  नहीं हो पाई  है. जिसने जगत को  नहीं जाना, वह जगदीश को कैसे जान सकता है. जो जगदीश को जान लेता है, उसे जगत की चिंता  नहीं रहती. मगर तुम्हे न तो जगत को जानने की जरुरत, न जगदीश को, तुम्हें अपने आपको जानने की जरुरत है. यह जगत बारूद के ढेर पर टिका है. कोई  क्षण विनाश दस्तक दे सकता है. अगर बचाना है तो अपने बीज तत्व को बचाओ. बीज बचा रहेगा तो कल फिर अंकुरित होगा.

बीज की रक्षा कैसे हो? यह बड़ा ही विचित्र मगर कठिन सवाल  है. इस कठिन को सरल बनाने के लिए तुम सक्षम हो. बीज अंकुरित हो सकता है. मगर बीज को अंकुरित होने के लिए पवन, अग्नि , आकाश, मिटटी और पानी की जरुरत होती है. चाहे मनुष्य का बीज हो या फिर पौधों का. सभी को इन पांच तत्वों की जरुरत रहती है. तभी बीज अंकुरित होता है.

लेकिन तुम यदि अपनी चेतन मना शकित को जागृत कर इन पांच तत्वों के बगैर अपने बीज को पनपाने की क्षमता हासिल कर लो, तो सही मायने में तुम जगत के सृष्टा हो सकते हो. सृष्टा ने जब सृषिट की रचना शुरू की तो उसके पास न आसमान था, न धरती थी, न अगिन थी, न पवन था और न ही पानी था. फिर भी चेतना ने सृषिट को अनंत आकार दिया. मैं चाहता हूं कि मेरी चेतना का विस्तार हो. चेतनमना शकित अलग अलग ग्रहों पर अलग अलग जमÈ पर खिलौने बनाए. इसके लिए मैं एक हूं अनेक हो जाऊं का राग आत्मसात करना होगा. ब्रह्राा ने ऐसा ही कहा था जब वे सृषिट की रचना करने बैठे थे. लेकिन जब ब्रह्राा की मैंने रचना की थी तो मेरे मन में एक हूं अनंत हो जाऊं भाव था. एक भाव और भी था कुछ  नहीं हूं सब कुछ हो जाऊं. इसलिए इस भाव को तुम्हें भी अपने में जागृत करना होगा. तुम कुछ  नहीं हो, मगर सर्वज्ञ हो. यही सर्वज्ञ तुम्हें अपने भीतर देखना होगा. 

देखने के लिए दृषिट चाहिए. नेत्रों की  नहीं भीतर की दृषिट. हमारे भीतर भी एक दृषिट होती है जो सबकुछ देख सकती है. लेकिन जब हम अपने बाहरी नेत्रों से जगत को देखते हैं तो दिग्भ्रमित हो जाते है. और ऐसी दिग्भ्रमित अवस्था में हमें सब कुछ साफ  नहीं दिखाई  देता. अगर दिखाई  देता भी है तो उसे हम अनदेखा कर देते है. मन भी बड़ा विचित्र होता है, जो देखता है उसी पर भरोसा करता है, जो अनदेखा है उसे देखने की चेष्टा  नहीं करता. लेकिन यही अनदेखा देखने के लिए ऋषि मुनियों व संतों ने जीवन खपा दिया, लेकिन फिर भी  नहीं देख पाए. कभी किसी पल उन्हें कुछ दिखा भी तो वे जगत का मोह छोड़  नहीं पाए. विश्वामित्र ने धरती पर नया स्वर्ग बनाने का ख्वाब देखा. उसकी जिद ने नए स्वर्ग की ओर कदम बढ़ा दिए, लेकिन उसके मन के किसी कोने में सांसारिक भोग की इच्छा दबी थी, जिसे मेनका ने जागृत कर दिया और विश्वामित्र सृषिट का नव निर्माण करना छोड़ रमण में व्यस्त हो गए, इसी प्रकार की बाधाएं आपकी राह में भी आएगी, आनी है, आती है. मगर विश्वामित्र  नहीं  विश्वदृष्टा बनो, विश्व सृष्टा बनो. इसके लिए अपनी कामनाओं पर विजय पाना जरूरी है. अहम का चोगा उतारना होगा. गुस्से पर काबू पाना होगा. किसी दिन तुम्हें दुनिया को चलाने का रिमोट मिल गया तो फिर तुममें इतना धैर्य होना चाहिए, ऐसा संकल्प होना चाहिए, ऐसी दृषिट होनी चाहिए कि सबके साथ न्याय कर सको. यह सृषिट चलाना आसान  नहीं है. मैं तो अब आदी हो चुका हूं. मुझे कोई  तकलीफ भी  नहीं होती, मगर मैं चाहता हूं कोई  मेरा मददगार आए जो मेरे काम को आगे बढ़ाए. इसके लिए आपके पास सारे रास्ते खुले हैं. आप भी मेरी तरह सृषिट का नियंता बन सकते हैं. तो फिर देर किस बात की. उतीष्ठ: जागृत हो. चेतना के द्वार खोलो. एक नई  सृषिट की दुनिया आपका स्वागत कर रही है. जिसमें तुम ही सत्ता होंगे. इस सत्ता के लिए हर कोई  लालायित रहता है. लेकिन हर किसी के वश की बात  नहीं है. तुम्हें प्रयास करना होगा. आज से अभी से, निद्रा त्यागो. बहुत सो लिए. सोने की कोई  सीमा  नहीं होती. जागने का कोई  समय  नहीं होता. जब जागे तब सवेरा. इसलिए गहरी निद्रा छोड़ो. जाग जाओ. किसी स्वप्न के बाद जब आंखें खुलती है तो मन उस सपने में रम जाता है. तुम भी नव सृषिट के निर्माण का स्वप्न देखो. अपने को दुनिया के सिंहासन पर विराजा देखो. देखो ही  नहीं इसके लिए प्रयास करो.

प्रयास से सभी काम संभव हो सकते हैं. प्रयास से मरुस्थल में नखलिस्तान हो सकता है. कहां क्या  नहीं हो सकता? तुमने अपने पौरूष से क्या  नहीं किया. लेकिन पौरूष के साथ तुमने अपने मन को वश में  नहीं किया. अपनी चेतना के द्वार तो खोले लेकिन स्वार्थ की अंधी गलियारों में तुम भटक गए. इसी भटकाव को रोकना होगा. रास्ता खोजना होगा. रास्ता मुशिकल भी  नहीं है. जरुरत है अपनी चेतना को विस्तार देने की. चेतनप्रहरी बने. चेतनदृष्टा बने. चेतनदृष्टा बनकर ही अनंत ब्रह्राांड का सृष्टा बना जा सकता है. जीने की कहानी बहुत कह ली. जीने के लिए जतनों की बात करें. जीने के लिए रोज मरना पड़ता है. आओ हम मरना सीखें. जब मरना सीख लेंगे जो रोज जीना सीख लेंगे. मरना तो सत्य है. लेकिन हम जीवन को सत्य मान बैठते हैं. इसमें दोष जीवन का  नहीं. दोष दृषिट का है. सृषिट ने दृषिट तो दी मगर हम देखने में लगे रहे. विचारने में  नहीं. जब विचारने के विचरण में दृषिट को दौड़ाएंगे तो पाएंगे हम रोज मर रहे हैं. पल पल मर रहे हैं. साथ ही कुछ सृजन भी करते जा रहे हैं. सृजन की अपनी सीमा है. मरने की कोई  सीमा  नहीं है. मरना असिम है. भूकंप आता है तो कितने लोग मरते हैं. बाढ़ आती तो अनेक लोग मरते हैं.लेकिन फिर भी हम मरने को  अटल सत्य मानकर उसका अभ्यास  नहीं करते. जब हम मरने का अभ्यास करेंगे तो जीने की कोई  राह सूझेगी. इस राह से कोई  आशा की मंजिल मिलेगी. मौत हमारी मंजिल  नहीं है. मौत के परै जिंदगी को खोजना हमारी मंजिल है. कितने लोग ऐसा करते हैं. जन्म लेने से लेकर हम मरने तक रोज मर रहे हैं, मरते ही जा रहे हैं. हर बार लक्षण सामने आते हैं, कई  बार दवा खाकर बच जाते हैं, कई  बार हवा खाकर. मगर बिना खाए तो जी भी नहीं सकते. खा खाकर मरने का अभ्यास कर रहे हैं. क्या आपने कभी सोचा खाने के बाद भी मरना है तो खाया ही क्यों जाएं. बिन खाए मरने से भी डर लगता है. जीवन बड़ा विचित्र है. यह हमेशा ऐसा ही चलता रहता है. संत महात्मा, ऋषि-मुनि कंद मूल खाते थे, पानी पीते थे, मगर वे भी बिना खाए पिए  नहीं मरे. यानि आया है वह खाएगा. खाने के लिए आया है तो आया ही क्यों. आसमान क्या खाता है? सूरज क्या खाता है? धरती क्या खाती है? पानी क्या खाता है? हवा क्या खाती है? फिर तुम क्यों खा रहे हो? हवा बनो, आसमान बनो, धरती बनो, पानी बनो, अग्नि  बनो, लेकिन यह बनने के लिए आपको मरना पड़ेगा. मर जाओगे तो इसी में समा जाओगे। जीवन है तो भी यही तत्व है. फिर इस जीवन को चलाने के लिए खाना जरूरी क्यों है? बड़ा विचित्र सवाल है, जीवन यानि देह भी पानी, अग्नि , हवा, आकाश, मिटटी से बनी, मर जाएं तो भी उसी में समा जाएं. यानि मरने के बाद भी असितत्व रहता है. ऐसा शास्त्र कहते हैं. स्वामी डम डम डीकानंद भी यही कहता है. मरने के बाद भी जीवन रहता है. चेतना के रूप में. यह चेतना मुझमें आकर मिल जाती है. मेरी चेतना उसका दिशा निर्देशन करती है. मैं फिर उस चेतना को काम धंधे लगाता हूं. नए नए रूप देता हूं. नया कार्यभार सौँपता हूं. क्या तुमने मरने के बाद अपनी चेतना से साक्षात्कार किया है. क्या तुम जीते जी भी अपनी चेतना से साक्षात्कार कर पाए हो. चेतना और दिमाग में अंतर है. दिमाग में अनंत चेतना का वास होता है. लेकिन हम अक्सर कहते हैं, यह मैंने किया, यह मैंने  नहीं उस चेतना ने किया. चेतना हमेशा विकसित होती है. शिशु जब जन्म लेता है तो उसकी चेतना विकसित  नहीं होती. वह धीरे धीरे अपने लोगों को पहचानने लगता है. फिर वह बोलने लगता है. आखिर वह प्रखर चेतना के साथ अपने कार्य स्वत: करने लगता है. लेकिन यह चेतना एक सीमा में बंधी रहती है. चेतना को विराट में बदलने का काम सृष्टा का है. यानि मेरा है. जब तुम अपनी चेतना को इतना विराट कर लोगे तो विराट ब्रह्रा तुम खुद हो जाओगे. कैसे करें चेतना को विकसित. नित्य सोचे. सोचते रहें. उठते, बैठते, सोते, जागते, चलते, फिरते, खाते, पीते, काम करते, सोचते सोचते प्राकृतिक ध्यान लगेगा. मंत्र व शब्द बीज का ध्यान चेतना के द्वार नहÈ खोलते. वह तो खाली एकाग्रचित करते. चित्त का एकाग्र करना ध्यान  नहीं है. ध्यान है अपनी चेतना से जुड़ाव बनाए रखना. आपको नींद  आ रही है, नींद  आने से पहले सोचते रहो, किसी भी विषय पर, आलतू फालतू, सोचो कि तुम पानी में डूब गए हो, तुम्हें तैरना  नहीं आता, कैसे उस पानी से पार पाओगे, फिर सोचो कि तुमने हाथ पैर चलाए और अगले ही पल बचकर आ गए, फिर सोचो तुम आग में घिर गए और जल रहे हो, कैसे बचोगे? तो आग से बाहर छलांग लगा लो, लपटें ऊंची हो, आग गहरी तो कैसे बचोगे तो उड़ना शुरू कर दो, सवाल है उड़ना  नहीं आता, तो पंछी कैसे उड़ते हैं, उनके पंखं हैं, तुम भी पंख लगाते रहा करो...अरे पंख लगाकर भी  नहीं उड़ पाते तो कैसे उड़ोगे, सवाल बड़ा टेड़ा है, लेकिन तुमने यूंही सोचते सोचते, कल्पना करते करते हवाई  जहाज बना लिए, राकेट बना लिए, पनडुबिबयां बना ली, मकान बना लिए, क्या क्या  नहीं बनाया, कैसे बनाया? सोचा। किससे चेतना से. तुम्हारी चेतना से ही सारे कार्य हुए है. इस भौतिक जगत की सारी उपलबिधयां तुम्हारी चेतना से फली फूली है. लेकिन फिर भी तुम इस सत्य को  नहीं जान पाते कि तुम्हारी चेतना ही असिम शकितशाल है. चेतना में ही ध्यान छिपा है. लेकिन गुफाओं, कंदराओं और हिमालय में जाकर योग मुद्रा में बैठकर शकितयां  नहीं मिलती. शकितयां सारी तुमने अपनी चेतना से पाई  है. इस जगत में तुम्हारी चेतना ही अंतिम सत्य है. आदमी की चेतना जब काम करना बंद कर देती है तो ह्रदय  धड़कते हुए भी आदमी मृत माना जाता है. ब्रेन ने काम करना बंद कर दिया तो डाक्टर कोमा की सिथति मानते हैं. कोमा यानि अनकंसेस.अचेतन.जब चेतना ही  नहीं तो जीवन कहां.इसलिए जीवन का यही फामर्ूला है चेतना. आज से, अभी से चेतना पर विचार करो, चेतना के लिए हर चित्त धरो. चेतना केवल चेतना को मथने से जागृत होगी, चेतना को विश्राम मत लेने दो, एक साल तक मत सोओ, पांच साल तक चेतना को विश्राम मत लेने दो, सोचो क्या होगा. तुम पागल हो जाओगे, लेकिन इस पागलपन में तुम दुनिया के नायाब आविष्कार कर बैठोगे, तुम अमर होने का फामर्ूला ढूंढ़ लोगे. जीवन में सोना, उठना, बैठना, खाना, पीना, सोच करना, यह सब करना तो फिर मरने से पहले अपना नया काम क्या किया. यह काम शुरू शुरू में बंद  नहीं होंगे, लेकिन सोचते रहो, चेतना को मथते रहो, और विचार करो कि यह सब क्रियाएं कैसे नियंत्रित की जा सकती है. चेतना को चेताओ, उसे प्रज्ज्वलित करो, यही सृष्टा बनने का राज है. आज से अभी से इस अभियान में लग जाओ. एक दिन सबको सोना है, चिर निद्रा. कल प्रलय आ गया तो सब सो जाओगे, हमेशा के लिए. इसलिए रोज प्रलय से डरो. सोओ  नहीं, जागो, सोचो, चेतना को दौड़ाते रहो. तुम पढ़े लिखे  नहीं हो तो क्या हुआ, पहला आदमी कौनसा पढ़ा लिखा था. लेकिन आज हर आदमी पढ़ा लिखा है. जीवन में चेतना ही सर्वसत्ता है. यही दुनिया की आदि शकित है. ब्रह्राा तो कहानियों के सृष्टा है. असली सृष्टा तो स्वामी डम डम डीकानंद है. क्योंकि यह भी एक चेतनशकित है. चेतनशकित से चराचर जगत बना है. इसलिए अपनी चेतना को विस्तार दो.

सब कुछ आसान  नहीं है. इस धरती पर करोड़ो लोग हैं. सभी सोते हैं, उठते हैं, फिर सोते हैं, फिर उठते हैं. एक दिन हमेशा के लिए सो जाते हैं. जब अंतत: सोना ही है तो जाओ, हमेशा जागो, एक मिनट के लिए भी  नहीं सोओ. बीमार पड़ना मंजूर कर लो लेकिन सोओ  नहीं. लिखते रहो, गाते रहो, पागलों की तरह लड़ते रहो, चिल्लाते रहो, कुछ भी करते रहो, साथ में अपनी चेतना को अनंत की ओर बढ़ाओ, आविष्कार ऐसे ही होगा, किसी पल देखना अमरता का वरदान मिलेगा.

स्वामी डम डम डीकानंद भले ही आपको न मिला हो, आप उसे न देख पाए हो, उसकी बात में आपको दम लगे तो आज से इस अमृतमयी सृष्टि को बचाने के लिए अपनी चेतना को लगा दो. अभियान चलाओ. सृष्टि अभियान. नई  सृष्टि  अभियान. कहते हैं जब प्रहलाद को हिरण्याकश्यप मारने के प्रयास करने लगा तो भगवान पग पग पर उसकी रक्षा करते थे. सोचो अगर क्षण भर के लिए भी विष्णु सो जाते तो अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा कैसे करते. यह जगत दिखता सच है. लेकिन इसे बारूद का ढेर बनते देर  नहीं लगेगी. इसे नष्ट होते एक क्षण  नहीं लगेगा. फिर अभी से इसे बचाने के प्रयत्न क्यों  नहीं करते. मेरी मर्जी  तो मैं करूंगा ही. मैं तुमको डरा भी रहा हूं और जीवन बचाने का जुगत भी बता रहा हूं आज से हर क्षण जागे, तत्क्षण जागे, नींद  आए तो पानी के छींटे  मारें, नाचने लग जाएं, लेकिन सोएं  नहीं, अपने मसितष्क की चेतना को पल भर के लिए विश्राम न दे. आप मरेंगे  नहीं. निशिचत रूप से  नहीं. नींद के अभाव में कोई  मरा हो यह आज तक सुनने में  नहीं आया. हो सकता है कि आपकी उम्र कम हो जाए. आप बिना नींद के सौ साल न जीकर दस साल ही जी  पाएं. जीएं भी ऐसी भी पागलपन जिंदगी हो जाए, आप चिड़चिड़े हो सकते हो, आप गुस्सैल हो सकते हैं. लगातार अनिद्रा से आप किसी की हत्या भी कर सकते हो. मगर आपको तो सोचना है, लगातार सोचना है, सोचते रहना है, अपने मसितष्क को क्षण भर के लिए भी विश्राम  नहीं देना है, देखना, सब लोग सोते रहेंगे और हवा बनकर तुम किसी और ग्रह पर उड़ चलोगे और तुम्हारी जिंदगी बच जाएगी. आपको मेरी बात कपोल कल्पना लग सकती है. मुझे भी ऐसा ही लग रहा है. तो फिर तुम ही बताओ, सच क्या है. जब यह सृषिट बनी तो प्रकृति का असितत्व तो था, लेकिन तुमने आज का विकास उसी क्षण कर लिया था. नहीं ना...सब तुम्हारे दिमाग की चेतना की मेहनत का परिणाम है. अपने शरीर को कष्ट दो, रोज मरो, मरना तो एक दिन है ही, जब मरना ही है तो मरने से पहले जीवन की खोज, स्थाई  खोज का हल निकालने के लिए ही क्यों न मरें. मरना अब हमारी समस्या  नहीं होनी चाहिए. मरना कोर्इ समस्या  नहीं है. समस्या तो जीवन को बचाए रखना है. कल आप मर जाओगे, परसो आपका बेटा मर जाएगा, फिर आपके बेटे का बेटा भी मर जाएगा. मौत का क्रम चलता रहेगा. फिर जीवन को सुचारू कैसे रख पाएंगे. आखिर एक वक्त ऐसा आएगा कि पृथ्वी भी  नहीं रहेगी. उसका भी अंत हो जाएगा. फिर? क्या उस युग की कल्पना की है तुमने?  नहीं, क्यों करो? तुम अपनी एसी कारों में संगीत सुनते सुनते मंजिल तक पहुंच जाते हो, लेकिन यह एसी कार भी तुमने  नहीं बनाई  तुम्हारे भाई  ने जरूर बनाई  है, लेकिन तुम भी एसी कार बना सकते हो. चलो कोशिश करो. इस धरती पर अनगिन लोग है, मगर मौत को कोर्इ नहÈ रोक पाया. यह अनगिन लोग अगर मौत को रोकने के लिए सोचने लग जाए तो किसी क्षण किसी के दिमाग में कोर्इ तो उपाय सूझेगा? 

धरती पर विचारवान लोग है. बुद्धिजीवी है. बहस चलती है. लेकिन बहस खत्म हो जाती है. ठीक वैसे ही जैसे जिंदगी खत्म हो जाती है. जब जिंदगी ही खत्म हो जाती है तो यह बहस कहां जिंदा रहेगी. इस बहस को जारी रखने के लिए जीवन को जारी रखना जरूरी है.जीवन कैसे जारी रहे? इस पर बहस नहीं होती? संकट बहुत है. कर्इ तो तुम्हारे अपने खड़े किए हुए हैं. लेकिन चूक कहा हुर्इ? हमने शास्त्रों को मोक्ष का जरिया मान लिया. धर्मग्रंथों को सुनकर फूले  नहीं समाते. दान दक्षीणा देकर पाप झाड़ने लग जाते हैं. कथाओं में नृत्य कर अपने को कृतार्थ समझते हैं. हम सोचते हैं हमने अपना मोक्ष पक्का कर लिया. मोक्ष केवल कल्पना है. मरने के बाद मोक्ष तो मिलना ही है. जीवन ही नहÈ रहा तो मोक्ष ही होगा. मोक्ष यानि मुकित. जीवन से मुकित. मुकित ही चाहिए थी तो बंधन में बंधे ही क्यों. दुनिया में आए ही क्यों. दुनिया में आए तो प्रपंचों में पड़े ही क्यों? क्यों संसार को भोगा. संसार को भोगा तो उसे पूरा भोगो. स्वर्ग जाने से पहले धरती को स्वर्ग बना दो. लेकिन नहÈ, तुम्हारी इच्छा है कि कथा, धर्म पुण्य कर आकाश का स्वर्ग पाया जाए. स्वर्ग एक कल्पना है. तुम्हारे लिए स्वर्ग तो धरती है. इस धरती को बचा पाए तो तुम्हार स्वर्ग स्वत: बचा रहेगा. धरती को बंजर मत होने दो. धरती अन्न देगी तो तन बचा रहेगा. लेकिन नहÈ तुम तो संत महात्माओं को मालाएं पहनाकर उनके कदम छू रहे हो, उनका आशीर्वाद ले रहे हो, उनके बताए रास्ते पर चलकर मोक्ष पक्का कर रहे हो., सच तो यह है कि तुम डरे हुए हो, मृत्यु से. मृत्यु का डर न संत दूर कर सकते हैं न शास्त्र. स्वामी डम डम डीकानंद भी स्वामी है, लेकिन इसका शरीर नहÈ है. यह केवल चेतना है. इस चेतना को तुम केवल अपनी चेतना के चक्षुओं से देखोगे तो लगेगा, जगत पर खतरा जबरदस्त है. किसी क्षण कोर्इ धूमकेतु पृथ्वी से टकरा गया तो कभी भी पृथ्वी नष्ट हो जाएगी. फिर तो सबको एक साथ मोक्ष मिल जाएगा. यानि जिंदगी से मुकित. हे मनुष्यों, अभी भी वक्त है, जाग जाओ, जगत के सारे धर्म, जगत के सारे ग्रंथ, जगत के सारे शास्त्र इस ब्रह्राांड की चेतना में एक कचरे की तरह बहाए जा सकते हैं. इस दुनिया में सबसे पहले धर्म नहÈ आदमी आया. आदमी आया और धर्म लाया. कर्इ आदमी आए, कर्इ धर्म लाए, इसलिए धर्म जात के झगड़े छोड़ो. सोचो तुम्हारे अलग अलग धर्म, तुम्हारे अलग अलग शास्त्र इस धरित्रि को कैसे बचा सकते हैं? यही हमारी बड़ी समस्या है. 

मैं पहले ही कह चुका हूं कि यह सृष्टि  मेरे इशारे पर चलती है. लेकिन किसी दिन मेरी चेतना का रिमोट फेल हो गया तो फिर कौन संभालेगा मेरी जिम्मेदारी? मेरा उत्तराधिकारी कौन होगा? अरे संतों तुम अपना उत्तराधिकारी बनाते हो. अरे मठाधीशों तुम अपने गादीपति बनाते हो. इस धरती का उत्तराधिकारी किसे बनाओगे? इस जगत को चलाने वाली शक्ति ही किसी दिन खत्म हो गई  तो उसका उत्तराधिकारी कहां से लाओगे? धरती ने बहुत जीवन जी लिया है. इतना जीवन जी लिया है कि इस पर जीवन का प्रवाह बना रहा. अब धरती को लगा कि  नहीं उसे विश्राम करना है. उसे करवट लेनी है, और वह आए दिन लेती भी है, अगर पानी को लगा कि  नहीं उसे दिशा बदलनी है तो फिर इस सरस जीवन का क्या होगा? किसी दिन इस धरती के सारे समुद्रों का पानी सूरज ने सोख लिया और किसी और ग्रह पर जाकर बरस गया तो धरती पर पानी के लिए त्राहि त्राहि नहÈ मच जाएगी. सोचो अगर सूरज को गुस्सा आ गया और उसने अपना पथ बदल लिया तो. सोचो हवा ने अपनी गति कम या अधिक कर ली तो, सोचो आकाश के टुकड़े हो गए तो, होने को कुछ  नहीं हो, मगर होनी को कौन टाल सका है, होनी तो अटल है. फिर इस अटल का अपने जीवन का हिस्सा क्यों  नहीं बनाते. 

जीवन जब शुरू हुआ तो लोग कितने परेशान थे. समय के साथ संघर्ष करते करते आज के युग में पहुुचे. इस युग में आने के दौरान हमने कितने लोग खो दिए. कोई  बीमारी से मरा, कोई  तूफान से मरा, कोई  हत्या का शिकार हुआ, किसी को जानवर खा गया, किसी पर बिजली गिर गर्इ.यानि जीवन में नित्य संकट आते गए. अरे मानव तू साहसी है, साहसी बना रह, अभिमानी मत बन. अपनी चेतना को इतनी विकसित कर कि अब तू किसी से डिगे नहीे. हर समस्या का हल तेरी चेतना में छिपा है. कल तेरा है. कल तू ही स्वामी डम डम डीकानंद की जगह लेकर सृष्टा बनेगा. हे मानव तू स्वामी डम डम डीकानंद का उत्तराधिकारी बन. इस सृष्टा को चलाने वाला बन. आ स्वामी के साथ नव सृषिट में सहयोगी बन.