Saturday, 26 July 2014

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बाल कविता: डी.के. पुरोहित

आंखें कह जाती है

वाणी जो कह न पाए
आंखें वह कह जाती है
आंसू बनकर पीरा
आंखें स्वत: छलकाती है
और प्रीत की रीत निभाने
आंखें शरमाती है
भीतर का आक्रोश
लाल आंखें बताती हैं
कभी विवशता में
आंखें डबडबाती है
हां या ना के उत्तर में
आंखें पलकें झपकाती हैं
गुप्त मंत्रण करने में
आंखें साथ निभाती है।

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