Thursday, 24 July 2014

Filled Under: ,

लघु कथा: डी.के. पुरोहित



अक्षय का शव मेरे सामने हैं। अक्षय, जो कभी क्षय न हो। आज नष्ट हो गया। चूर-चूर हो गया उसका अहंकार। जिसने जीवन भर मुझसे नफरत की। हर पल मुझे नीचा दिखाने का प्रयास किया। मेरी दौलत हड़प ली। मेरी पत्नी व बच्चों की हत्या कर दी। आज उसकी मौत पर कोई आंसू बहाने वाला न था। बादल गरज रहे हैं। बिजली चमक रही है। शायद बारिश होने वाली है। मैं हिकारत भरी नजर से अक्षय के शव को देखता हूं और आगे बढ़ जाता हूं। 

तभी, अंतरआत्मा से आवाज उठती है-‘यह क्या कर रहा है महेश ? अपने दुश्मन से अब कैसी दुश्मनी निकाल रहा है। वह मर चुका है। उसे अपने किए की सजा मिल चुकी है। जो मर गया वह अक्षय का शव है। अक्षय नहीं हैं। शरीर खुद कुछ नहीं करता। उसे अच्छी या बुरी आत्मा करवाती है। भूल जाओ नफरत। आगे बढ़ो। उसकी पार्थिव देह को अग्नि दो। अक्षय दोस्ती का धर्म नहीं निभा सका, मगर तुम दुश्मन को भी कांधा देकर इंसानियत का धर्म निभाओ।’

मेरे कदम पीछे लौट आते हैं। श्रीमद्भागवत गीता की पंक्तियां-हर अवसर और हर अवस्था में जो अपना कत्र्तव्य दिखाई दे, उसी को धर्म समझकर पूरा करना चाहिए, मेरे जेहन में उभर आती है। बाबा ने भी हमें यही धर्म बताया था। आज अपने दुश्मन को अग्नि में समर्पित कर मैंने भी अपना धर्म निभाया।


0 comments:

Post a Comment