Thursday, 10 July 2014

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बाल कविता: डी.के. पुरोहित




पंछी छोड़ता बसेरा                     

भोर की पहली किरण के साथ
पंछी छोड़ देता है बसेरा
भरता है उड़ान नभ में
ले जाए जहां सपनों का सवेरा
दिन भर में जो मिल पाता
चोंच में भर वापस आता
खुद भी खाता और
अपने बच्चों को भी खिलाता
मेहनत में करता विश्वास
लालच का न करता पगफेरा
भोर की पहली किरण के साथ
पंछी छोड़ देता है बसेरा।


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