Thursday, 14 November 2013

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सुर सम्राट को ‘डूम’ कहकर करते हैं अपमानित

-बाहर तो यश ज्योत जल रही, घर में अमावास अंधियारी...मिरासी और मांगणियार कलाकार को विदेशों में तो खूब सम्मान मिला लेकिन अपने ही घर में लोग उन्हें ‘डूम’ कहकर संबोधित करते हैं, डूम का आशय है-पशु समान, ऐसे शब्दों से अपमानित होने वाले कलाकार अपने ही घर में हैं डरे-सहमे....

-डी.के. पुरोहित

बाड़मेर। आजादी के 65 साल बाद भी पश्चिमी राजस्थान के मरुस्थलीय सीमावर्ती बाड़मेर व जैसलमेर जिले में मिरासी जाति के कलाकार उपेक्षित हैं। उन्हें देश-विदेश में लोक संगीत के क्षेत्र में बेशक सम्मान मिला लेकिन अपने ही घर में लोग उन्हें ‘डूम’ जैसे शब्दों से अपमानित करते हैं। ‘डूम’ से आशय है पशु समान।

विदेशों में लोक संगीत की धूम मचाने वाले मिरासी कलाकारों को खूब सम्मान मिला, लेकिन घर से बाहर। अपने ही घर में उन्हें डूम और डूमड़ा जैसे शब्दों से अपमानित किया जा रहा है। दीवान सालिमसिंह उपन्यास से चर्चित हुए साहित्यकार ओमप्रकाश भाटिया ने इस मुद्दे को अपने नाटक ‘डूम’ में उठाया था। इस नाटक के माध्यम से इस समस्या को भाटिया ने बेहतर ढंग से उठाया।

रियासतकाल से चली आ रही है परंपरा

इन कलाकारों को ‘डूम’ जैसे शब्दों से अपमानित करना रियासत काल से चला आ रहा है। सामंतशाही के दौरान इन कलाकारों को अपमान का घूंट पीना पड़ता था, मगर आजादी के बाद भी उनकी स्थिति में बदलाव नहीं आया। हालत यह है कि उन्हें लोग सम्मान नहीं देते। एक समय था जब राज परिवार में या जागीरदारों के घरों में कोई कार्यक्रम होता था, मांगणियार कलाकारों को बुलाया जाता था। बदले में उन्हें कुछ मुद्राएं या वस्तु दी जाती थी, उसी से इन कलाकारों का गुजारा चलता था। आजादी मिली तो लगा कि अब इनका जीवन स्तर उठेगा और बदलाव आएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आज भी इन्हें अपमान का घूंट पीना पड़ रहा है।

अपने बच्चों को लोक संगीत नहीं सिखाते

हालत यह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही लोक संगीत की परंपरा अब ये लोक कलाकार अपने बच्चों को नहीं सिखाना चाहते। मिरासी कलाकार चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़े लिखे और बड़े पदों पर पहुंचे। लेकिन उनकी इच्छा भी पूरी होना आसान नहीं हैं, क्यों कि उन्हें अपने घर में खास तवज्जो नहीं मिलती। जैसे तैसे गुजारा करते हैं। विदेशों में इक्का-दुक्का कार्यक्रम मिलते हैं, इसमें भी बिचैलिए पैसे खा जाते हैं, जिससे कलाकारों के हाथ मोटी रकम नहीं आ पाती। ऐसे में बच्चों को पढ़ाना आसान नहीं हैं।

मजबूरी में बच्चे भी गौरों को रिझाते हैं

इन कलाकारों के पास इतने पैसे नहीं है कि अपने बच्चों को अच्छी तालीम दे सके। मजबूरन बच्चे भी हाथ में वाद्ययंत्र लिए गोरों और अन्य सैलानियों को रिझाने के लिए सोनार किले, पटुओं की हवेली, गड़सीसर लेक और अन्य पर्यटन स्थलों पर संगीत प्रस्तुत करते रहते हैं, इससे जो मिल जाता है, उससे ही घरखर्च में सहारा मिलता है।

होटलों में यदा-कदा मौका मिलता है

इन कलाकारों को होटलों में यदा-कदा कार्यक्रम प्रस्तुत करने का मौका मिलता है। लेकिन नाचने वाली महिलाओं को अब होटल वाले बुलाते हैं, जिससे कला का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। एक कलाकार ने बताया कि नाचने वाली और गणिकाएं जब से होटलों में कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगी है, कला की उपेक्षा हो रही है। जब महिलाएं होटलों में नाच-गान कर रही हैं तो संभ्रांत कलाकार इस पैसे से किनारा करने लगे हैं।

पर्व व मेलों में भी हो रही अनदेखी

मिरासी कलाकारों की पंद्रह अगस्त व छब्बीस जनवरी पर या मरु मेले पर ही पूछ होती है। लेकिन अब इन मेलों में भी बाहर से कलाकार बुलाए जा रहे हैं, जिससे इनको रहा-सहा सहारा भी खत्म होता नजर आ रहा है। पहले मरु मेले पर जैसलमेर में मिरासी कलाकारों को अच्छा पैसा मिलता था, लेकिन टूरिज्म विभाग ने भी अब बाहर से पेशेवर कलाकारों को बुलाना शुरू कर दिया है, जिससे अपने घर में भी इनकी पूछ कम होती जा रही है।

टूरिज्म विभाग ने भी नहीं ली सुध

इन कलाकारों का जीवन स्तर बढ़ाने के लिए टूरिज्म विभाग ने भी खास प्रयास नहीं किए। पूर्व कलेक्टर ललित के पंवार ने मिरासी कलाकारों को नि:शुल्क प्लाॅट देकर आसरा उपलब्ध करवाया था, लेकिन उनके बाद किसी कलेक्टर ने इन कलाकारों की जिंदगी में झांकने का प्रयास नहीं किया। ऐसे में इन कलाकारों ने जरूर पड़ने पर अपने प्लाॅट ओने-पोने दामों में बेच दिया।

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