Wednesday, 13 November 2013

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सुनहरे शहर की मौलिक पहचान खतरे में

-सोने जैसे चमकने वाले पीले पत्थर देशी-विदेशी सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, यही शहर की मौलिक पहचान है, मगर लोग दीवारों और घरों पर तरह-तरह के रंग-रोगन कर इसकी पहचान खत्म कर रहे हैं, दीवारों पर तरह-तरह के रंग-रोगन किए जा रहे हैं और नारे लिखे जा रहे हैं, इस तरह पीले पत्थर की आभा खत्म हो रही है

-डी.के. पुरोहित-

दुनिया के नक्शे में गोल्डन सिटी, स्वर्णनगरी व सुनहरे शहर के रूप में प्रसिद्ध जैसलमेर की मौलिक पहचान खतरे में है। सात समंदर पार से और देश के कोने-कोने से जिस सुनहरे शहर को देखने पर्यटक यहां आते हैं उनके लिए यह निराशा भरी स्थिति है। यहां के लोग अब शहर की मौलिक पहचान मिटाने पर आमादा है।

हालत यह है कि स्थानीय लोग अब शहर के पीले और सुनहरे रंग को हटा कर यहां पत्थरों पर कृत्रिम रंगों का उपयोग कर इसकी आरिजनलिटी को नुकसान पहुंचा रहे हैं। वर्षों पहले जब विख्यात साहित्यकार अज्ञेय यहां आए थे तो उन्होंने तत्कालीन कलेक्टर को चेताया था कि इस शहर की मौलिक पहचान को खतरा न हो, इसके प्रबंध किए जाए। यही बात लता मंगेषकर, चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन और श्रीलंका की राष्ट्रपति भी कह चुकी है, मगर अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई।

विदेशी सामाजिक कार्यकर्ता सू कारपेंटर भी इस सुनहरे शहर की मौलिक पहचान को लेकर चिंतित रही है। अपने जैसलमेर प्रवास के दौरान उन्होंने किले के लोगों से मार्मिक अपील भी की थी और कहा था कि प्लीज इस शहर की मौलिकता को खतरा न पहुंचाएं। मगर ये सब बातें बातों-बातों में हवा हो गई। स्थिति यह है कि चाहे सोनार किले की दीवारें हों, चाहे पटुवा हवेली की पोल हो, सालिमसिंह, नथमल और आस-पास के पर्यटन स्थलों पर नारे, चित्र और अभद्रता भरे शब्द अंकित किए जा रहे हैं। पोस्टरों से दीवारें अटने लगी है। आज से कुछ वर्ष पहले जैसलमेर के कलेक्टर निरंजन आर्य ने अपने कार्यकाल में इस दिशा में कार्रवाई की थी, मगर उनके यहां से स्थानांतरण होने के बाद स्थिति फिर जस की तस रह गई।

वर्तमान जिला कलेक्टर एन.एल. मीणा इस दिशा में बिलकुल ही चिंतित नहीं हैं। उन्हें न तो जैसलेर के पर्यटन से मतलब है और न ही शहर की मौलिकता को बचाने के लिए कदम उठाए। अपने अब तक के कार्यकाल में उन्होंने पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए कोई खास प्रयास नहीं किए। कलेक्टर के सामने लोंग टाइम टूरिज्म को बढ़ावा देने की चुनौती है, मगर वे कोई जलवा नहीं दिखा पाए। लोग उनसे अपेक्षाएं रख रहे हैं, मगर उनकी तंद्रा नहीं जाग रही। शहर में जगह-जगह लोग घरों की दीवारों को भांति-भांति के रंगों और आयल पेंट से पौत रहे हैं, मगर उन्हें रोकने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। जन जागृति बगैर पर्यटन को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। यहां के लोग भी मौलिकता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।

राजस्थानी के विख्यात कवि स्व. श्यामसुंदर श्रीपत का एक दोहा है-"सूरज पूछे सारथी, भू पर किसड़ो भांण। जूंझारो जदुवंष रो, चमके गढ़ जैसांण।।"...यानि सूरज अपने सारथी से पूछता है कि यह धरती पर दूसरा सूरज कहां से आया? तब सारथी कहता है कि यह यदुवंषियों द्वारा निर्मित जैसलमेर का किला है, जो चमक रहा है।...जब सूरज की किरणें इस किले पर पड़ती है तो किला सोने जैसा चमकने लगता है और ऐसा लगता है जैसे धरती पर कोई दूसरा सूरज दस्तक दे चुका है। श्यामसुंदर श्रीपत ने सोनार किले और जैसलमेर के गोल्डन पत्थरों पर काफी लिखा है। श्रीपत के दोहों का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

ऐसे में तो कौन आएगा जैसलमेर देखने

अगर जैसलमेर के पीले यानी गोल्डन स्वरूप को नहीं बचाया जा सका तो फिर इसे कौन गोल्डन सिटी कहेगा? सात समंदर पार से आने वाले सैलानी गोल्डन पत्थरों को देखकर अभिभूत हो जाते हैं। काबिले गौर बात यह है कि इस प्रकार के पत्थर जैसलमेर के अलावा दुनिया में कहीं नहीं हैं, मगर इस ओर अभी तक चिंतन नहीं किया गया। कलेक्टर और अधिकारियों से ही बात नहीं बनेगी, यहां के चिंतकों और समाजसेवियों को भी इस दिशा में कदम उठाने होंगे।

वादे हैं वादों का क्या

जैसलमेर को बचाने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत, अशोक गहलोत व वसुंधरा राजे ने कई वादे किए, मगर वादे तो वादे होते हैं। अशोक गहलोत दो बार मुख्यमंत्री बने मगर उन्होंने भी जैसलमेर के लोंगटर्म टूरिज्म को देखते हुए जैसलमेर की मौलिकता को बचाने के दिशा में प्रयास नहीं किए। वे कई बार जैसलमेर आए हैं, मगर मजाल है जो उनका ध्यान इस ओर गया हो। कई बार पत्रकारों ने उनका ध्यान भी आकर्षित किया, मगर उन्होंने अपने पद का अहं दिखाते हुए उन्हें चुप करा दिया। जनसत्ता के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने भी जैसलमेर की मूल पहचान बनाए रखने की आवश्यकता जताई थी। उन्होंने भी लोगों की अनदेखी पर चिंता जताई थी। लेकिन न तो नौकरशाही, न ही नेता और न ही जनता, सभी अपनी-अपनी ढपली-अपना राग अलाप रहे हैं, ऐसे में गोल्डन सिटी के मौलिक स्वरूप को कौन बचाएगा, यह चिंता और सवाल है और अभी तक अनुत्तरित है। स्थिति यह है कि जैसलमेर के बाहर के लोग जैसलमेर के लिए चिंतित हैं, मगर खुद जैसलमेर के लोग इस दिशा में जागरूकता नहीं दिखा रहे हैं। उनकी अनदेखी की वजह से ही जैसलमेर के पर्यटन के लिए खतरा बढ़ रहा है।

सैलानियों की भी यही चिंता है

ब्रिटेन निवासी इली ले बताया कि जैसलमेर को लोग गोल्डन सिटी कहते हैं। इसका कारण इसके सोने जैसे चमकने वाले पीले पत्थर हैं, लेकिन यहां के लोग मूर्खता कर रहे हैं, वे अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार रहे हैं। जब कुदरत ने इतना अच्छा रंग दिया है फिर वे दूसरे रंगों से इसे बदरंग क्यों कर रहे हैं, यह समझ से परे है। चित्रकार गगन बिहारी दाधीच अक्सर कहा करते थे कि पिंक सिटी की पहचान जिस तरह मिटाई जा रही है, उसी तरह गोल्डन सिटी की पहचान भी खतरे में है। प्रकृति का अनुपम उपहार गोल्डन कलर निराला है, अब दूसरे रंगों की क्या जरूरत है। विख्यात पत्रकार आलोक मेहता कुछ वर्ष पहले जैसलमेर आए थे तो उन्होंने भी इस दिशा में अपनी चिंता व्यक्त की थी। इंग्लैंड की मार्या का कहना है कि गोल्डन सिटी को अपनी पहचान नहीं खोनी चाहिए।

अब तो जागो

इंतिहासकार और सांस्कृतिक कार्यकर्ता नंदकिशोर शर्मा का कहना है कि अब तो जैसलमेर के लोगों को जागना ही होगा। बहुत सो लिए। बहुत कुछ खो दिया। यही रवैया रहा तो जैसलमेर से सैलानी रूठ जाएंगे। जिस पर्यटन की वजह से जैसलमेर का विकास हुआ है, अगर इसकी मूल आभा नहीं बचाई जा सकी तो सैलानी यहां क्यों आएंगे? उन्होंने प्रशासनिक बैठकों में कई बार इस मुद्दे को भी उठाया, लेकिन मुद्दे तो उठाए जाने के लिए होते हैं, कार्य करने के लिए नहीं। शायद यही वजह है कि प्रशासन मौन है।




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