Monday, 11 November 2013

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अनदेखी से खत्म हो रहा है लोक साहित्य: बिज्जी

-विजयदान देथा-बिज्जी अब नहीं रहे। उनके निधन से लोक साहित्य के चितेरे का एक युग खत्म हो गया। लोककथाओं का जादूगर नहीं रहा, मगर उनका लोक साहित्य हमें प्रेरणा देता रहेगा । आज से करीब सात-आठ साल पहले जैसलमेर की होटल नारायण निवास में लोक साहित्य से संबंधित एक साहित्यिक आयोजन में इस संवाददाता ने बिज्जी से करीब एक घंटे तक बातचीत की । उनसे लिया साक्षात्कार पाठकों के लिए प्रस्तुत है ।

-डी.के. पुरोहित-

वर्ल्ड स्ट्रीट: साहित्यकार कमलेश्वर का आज निधन हो गया, मगर आपके कार्यक्रम में उन्हें श्रद्धांजलि तक नहीं दी गई ? आखिर यह चूक कैसे हो गई ?

बिज्जी: यह चूक बहुत बड़ी है । कमलेश्वर हम सभी के लिए आदरणीय और सम्मानित हैं । उनका जाना वाकई साहित्य को क्षति है । कल के सत्र में उन्हें हम सब श्रद्धांजलि देंगे ।

वर्ल्ड स्ट्रीट: लोक साहित्य खत्म हो रहा है, क्या कारण है ?

बिज्जी: लोक साहित्य तो खूब बिखरा हुआ है, मगर उसकी लोक जीवन में अनदेखी की वजह से वह खत्म होता जा रहा है । युवा पीढ़ी को लोक साहित्य में रुचि नहीं है, लोक साहित्य को समृद्ध करने से ही साहित्य का सागर भरा रह सकता है । युवा पीढ़ी को लोक साहित्य की तरफ लौटना होगा । हमारी पीढ़ी के साहित्यकार भी लोक साहित्य को कमतर आंकते रहे हैं, जिसकी वजह से वह लगातार परिदृश्य से गायब ही हो रहा है ।

वर्ल्ड स्ट्रीट: राजस्थान में तो लोक साहित्य समृद्ध रहा है, फिर भी गिने चुने साहित्यकार ही आगे आ पाए ?

बिज्जी: देखिए, लोक साहित्य हमारे जीवन का अहम हिस्सा रहा है । राजस्थान ही नहीं हर प्रदेश में लोक साहित्य की अहमियत रही है। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी लोक साहित्य की अंगुली पकड़कर ही बच्चों को सिखाते रहे हैं । लोक साहित्य हमारे मानसिक विकास की आधारशिला रही है, लेकिन कई साहित्यकार इसे बोरिंग सबजेक्ट मानते हैं । वे सोचते हैं लोक साहित्य से पहचान नहीं मिल सकती । लेकिन मैंने कभी लोक साहित्य से अपने को अलग नहीं माना । यही कारण है कि लोगों का खूब प्यार मिला ।

वर्ल्ड स्ट्रीट: आपकी कहानियों पर फिल्में बनी, क्या फिल्मों में साहित्य के साथ न्याय हो पाता है ?

बिज्जी: फिल्में दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई जाती है । साहित्यिक कहानियों पर बनी फिल्में अच्छा प्रयास है, मगर इसमें कई बार कुछ प्रसंग अनावश्यक जोड़ देने से मूल कृति विस्मृत कर दी जाती है । जो मूल कहानी नहीं पढ़ पाता, वह फिल्म को देखकर उस कृति के बारे में वैसी ही धारणा बना लेता है । इससे कहानीकार की छवि प्रभावित होती है ।

वर्ल्ड स्ट्रीट: आपकी कहानियों में गडरिये, मूर्ख राजा, भूत व राजकुमारियों के पात्र जीवंत हुए हैं । मौजूदा दौर में जबकि ये सभी किरदार हमारे जीवन से लुप्त हो रहे हैं, तो इनकी सार्थकता कितनी है ?

बिज्जी: कोई भी विषय प्रासंगिक है या नहीं उसका समय से लेना देना नहीं है । गांधी आज भी प्रासंगिक है और आगे भी रहेंगे । लोक कहानियों के ये पात्र हर युग में सार्थक रहेंगे । जब हमारे जीवन में इनका जिक्र नहीं हो रहा होगा, तब भी कोई बच्चा इस प्रकार की कहानी पढ़कर और अधिक रोमांचित होगा । सार्थकता साहित्य की बनी रहती है । लोक साहित्य तो वैसे भी हमारी जिंदगी का हिस्सा रहा है ।

वर्ल्ड स्ट्रीट: आज कहानी के नाम पर सेक्स का भोंडा प्रदर्शन किया जा रहा है, इस पर आप क्या कहना चाहेंगे ?

बिज्जी: सेक्स हालांकि निजी मामला है । आज भी हमारी संस्कृति में यह नितांत निजी मामला है । लेकिन फिल्मों ने माहौल को बिगाड़ दिया है । अब बच्चे भी समय से पहले वयस्क हो रहे हैं, ऐसे में कहानीकार भी जल्दी लोकप्रियता पाने के लिए सेक्स को अपनी कहानी का हिस्सा बना रहे हैं । यह प्रवृर्ति एक दिन कहानी का ट्रेंड ही बदल देगी और साफ-सुथरी कहानियां हमारी जिंदगी से दूर होती जाएंगी ।

वल्र्ड स्ट्रीट: आप बोरुंदा जैसे साधारण गांव में रहते हैं, आपको मुंबई में नहीं होना चाहिए था ?

बिज्जी: (हंसकर) मुझे तो बोरुंदा ही अच्छा लगता है। मुंबई मेरा मुकाम कभी नहीं रहा । क्योंकि मुझे तो गांव की चौपाल, खेत-खलिहान और प्रकृति से प्रेम रहा है । गांव अब भी प्रदूषण मुक्त है । मुझे साहित्य के माध्यम से लोगों की सेवा करने का मौका मिला, और कुछ कहानियों पर फिल्में बनी, फिर मुंबई जाने की क्या जरूरत है ।

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