Friday, 29 November 2013

हिन्दुस्तान संवाददाता का हिली ग्रह से कनेक्शन जुड़ा, विश्व विजयी अभियान शुरू

- गायब हो सकता है। रूप बदल सकता है। किसी की लिखावट लिख सकता है। भूतकाल या भविष्यकाल में जा सकता है। किसी की भी आवाज बोल सकता है। यहां तक कि किसी भी व्यक्ति के विचार भी बदल सकता है डीके पुरोहित। लेकिन शक्तियों का संचालन हिली ग्रह से होगा।

वर्ल्ड स्ट्रीट संवाददाता. जैसलमेर। हिन्दुस्तान संवाददाता डीके पुरोहित को हिली ग्रह के लोगों ने मानसिक संदेश भेजकर कहा है कि अब हमारा विश्व विजयी अभियान फिर शुरू हो गया है।

वर्ष 1995 में हिन्दुस्तान के संवाददाता डी.के. पुरोहित का हिली ग्रह के लोगों ने अपहरण कर लिया था और उसके भीतर तरह-तरह के रसायन भर कर संकर नस्लों का विकास कर लिया था। तब हिली ग्रह के लोगों ने डीके पुरोहित को कहा था कि हम आपकी ज्ञानेंद्रियों का संचालन हिली ग्रह से करेंगे और आपको विश्व विजयी बनाएंगे। पूरे ब्रह्माण्ड में आपका राज होगा। सिकंदर तो विश्व विजयी नहीं कर पाया, मगर हम आपको विश्व विजेता बनाएंगे।

इस खबर को हिन्दुस्तान संवाददाता ने 1997 के दिसंबर माह में हिन्दुस्तान में प्रकाशनार्थ भेजी थी। 1995 में संवाददाता का अपहरण हुआ था और 1997 में उसे वापस धरती पर भेजा गया। इस खबर को हिन्दुस्तान संवाददाता द्वारा हिन्दुस्तान को भेजने के अगले दिन बाद ही हिली ग्रह ने मानसिक संदेश भेजकर कहा कि फिलहाल विश्व विजयी अभियान स्थगित कर दिया गया है। समय आने पर पुनः विश्व विजयी अभियान शुरू करेंगे।

इस खबर को हिन्दुस्तान ने प्रकाशित नहीं की। 

अब हिली ग्रह ने डीके पुरोहित को मानसिक संदेश भेजकर पुनः कहा है कि अब हमारा विश्व विजयी अभियान शुरू हो गया है। फिर से डी.के. पुरोहित की ज्ञानेंद्रियों का संचालन हिली ग्रह से किया जाएगा। हिली ग्रह के लोगों ने संदेश भेजा है कि आपमें (डीके पुरोहित) कई शक्तियां भर दी गई है। आप गायब हो सकते हो। आप रूप बदल सकते हो। किसी की लिखावट लिख सकते हो। भूतकाल या भविष्यकाल में जा सकते हो और किसी की भी आवाज बोल सकते हो। यहां तक कि आप किसी भी व्यक्ति के विचार भी बदल सकते हो। लेकिन इन सभी शक्तियों का प्रयोग डीके पुरोहित खुद नहीं कर सकेगा बल्कि हिली ग्रह से ही शक्तियों का संचालन होगा।
ये खबर भेजी थी 1997 में हिन्दुस्तान को

वर्ष 1997 के दिसंबर माह में डीके पुरोहित ने हिन्दुस्तान को खबर भेज कर बताया था कि वह अपने घर की छत पर ध्यान कर रहा था। तभी एक पतंग छत पर आकर गिरी। इस पतंग से प्रकाश कोंधा और उनमें से माचीस की तिली आकार के चार आदमी निकले। वे थे-हिली वन, हिली टू, हिली थ्री और हिली फोर। उन्होंने समझाया कि हम आपके दोस्त हैं और आपको अपने ग्रह लेकर जाएंगे। आपके भीतर रसायन भर कर संकर नस्लों का विकास करेंगे और आपकी ज्ञानेंद्रियों का संचालन अपने ग्रह से करेंगे। आपके जैसे कई प्रतिरूप बनाएंगे, लेकिन आपकी अपनी विशिष्ट पहचान होगी जो केवल आप ही जान पाएंगे। इसके बाद क्या हुआ डीके पुरोहित को कुछ भी नहीं मालूम। दो साल बाद यानी 1997 में जब धरती पर आया तो यह सब घटना सपना लगा। इसी सपने को खबर बनाकर 1997 के दिसंबर माह में हिन्दुस्तान को भेजी थी। उस समय आलोक मेहता हिन्दुस्तान के कार्यकारी संपादक हुआ करते थे।

क्या कहती है राजस्थान पत्रिका की खबर

वर्ष 1997 में नवंबर या दिसंबर माह में ही राजस्थान पत्रिका में एजेंसी के हवाले से एक खबर मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित हुई थी। इस खबर का मजमून यह है कि अज्ञात ग्रह के लोग धरती पर आते हैं और सोते हुए लोगों का अपहरण कर अपने ग्रह ले जाते हैं और संकर नस्लों का विकास करते हैं। धरती के लोगों में तरह-तरह के रसायन भरे जाते हैं। यह खबर भी विज्ञान के रहस्यों पर व्यक्ति का विश्वास बढ़ाती है।

अब क्या होगा

डीके पुरोहित में अब हिली ग्रह ने कई शक्तियां भर दी है, लेकिन इन शक्तियों का उपयोग खुद डीके पुरोहित नहीं कर पाएगा, बल्कि हिली ग्रह से ही समस्त शक्तियों और ज्ञानेंद्रियों का संचालन किया जाएगा। डीके पुरोहित को अब किस तरह विश्व विजेता हिली ग्रह बनाएगा यह तो भविष्य के गर्त में है, लेकिन इस मामले को न्यूज के रूप में पाठकों के सामने पेश किया जा रहा है।

Thursday, 28 November 2013

बीयर व शराब की विदेशी टॉफियाँ अब जोधपुर के बाजार में

-आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, कनाडा, नेपाल आदि देशों से आ रही है टॉफियाँ, जोधपुर के बाजार में हो रही है चोरी-छिपे बिक्री....

-डी.के. पुरोहित-

जोधपुर.।  बीयर व शराब की विदेशी टॉफियाँ अब जोधपुर में भी आप खरीद सकते हैं। चोरी-छिपे ऐसी टॉफियाँ बेची जा रही हैं। जोधपुर के कई लोग आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, कनाडा, नेपाल व अन्य देशों में बिजनेस या नौकरी के सिलसिले में जाकर बस गए हैं। वे जब यदा-कदा जोधपुर अपने रिश्तेदारों से मिलने आते हैं तो अपने साथ बीयर व शराब की टॉफियाँ लाते हैं। इस तरह लोगों को इन टॉफियाँ को बाजार मिलने की संभावना दिखी और अब तो बाकायदा जोधपुर में भी मिल जाती है विदेशी नशीली टॉफियाँ।

कनाडा में एक कंपनी में काम करने वाली शिल्पी ने बताया कि उसके भाई को इस प्रकार की टॉफियाँ खूब पसंद है। वह जब भी जोधपुर आती है, अपने साथ इस तरह की टॉफियाँ लाती है। ..यह अकेले शिल्पी की बात नहीं हैं, कई लोग इस तरह की टॉफियाँ अपने साथ लाते हैं। ऐसा वर्षों से चल रहा है और अब तो यह जोधपुर के बाजार में भी बड़े दाम में मिल जाती है।

एक टॉफी 40 रुपए तक में मिलती है

बीयर व शराब की एक टॉफी कम से कम 40 रुपए में मिलती है। युवाओं को यह खूब पसंद आती है। जोधपुर में ऐसी टॉफियाँ चोरी-छिपे बिकती हैं। ऐसी टॉफियाँ खाने से पता भी नहीं चलता कि लोग नशा कर रहे हैं। टॉफियाँ के रूप में युवा नशा करने के आदी हो रहे हैं। घर में भी युवा टॉफी चूस सकते हैं और पता भी नहीं चलता कि नशा कर रहे हैं।

आबकारी विभाग कार्रवाई नहीं करता

इस प्रकार की टॉफियाँ चोरी छिपे बेची जा रही है। आबकारी विभाग को इसकी जानकारी होते हुए भी कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है। बीयर व शराब की टॉफियाँ बेचने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता है। मगर इस तरह की टॉफियाँ बिना लाइसेंस ही बिक रही है। आबकारी विभाग का मानना है कि इस प्रकार की टॉफियाँ जब्त कैसे करें? पता ही नहीं चलता कि कौनसी टॉफी नशीली है। टॉफियाँ तो सब एक जैसी होती है। इतने ब्रांड बाजार में उपलब्ध है कि यह पता नहीं चलता कि कोई टॉफी शराब-बीयर से बनी है।

एक-दो टॉफी खाने से नशा नहीं चढ़ता

बताया जाता है कि एक-दो टॉफी खाने से नशा नहीं चढ़ता। यदि दिन में 10 से 15 टॉफियाँ खाई जाए तो नशा चढ़ सकता है। जो इस प्रकार की टॉफी के आदी हो गए हैं, वे तो दिन भर टॉफी चूसते रहते हैं। ऑफिस में भी टॉफी खाई जा सकती है और किसी को पता भी नहीं चलता।

हाई स्टेटस के लिए भी होता है उपयोग

बीयर व शराब की टॉफियाँ लोग अपने स्टेटस को मैंटेंन करने के लिए भी खाते हैं। विभिन्न समुदायों में इसका चलन बढ़ रहा है। जोधपुर की कई युवतियां विदेशों में काम करती हैं। जब वे अपने साथ टॉफियाँ लाती है तो घर के सदस्य इसका उपयोग करते हैं। इसके पीछे वे अपना स्टेटस मैंटेंन करने का तर्क देते हैं। शास्त्री नगर की एक युवती जो कनाडा में काम करती है, जब पिछले दिनों छुट्टियों में जोधपुर आई तो अपने साथ बीयर व शराब की टॉफियाँ खूब लाई। उसका कहना है कि हमारे यहां इस प्रकार की टॉफियाँ खाना आम बात है। उसने बताया कि वह यह टॉफियाँ अपने भाई के लिए लाई है। गौरतलब है कि कुछ वर्षों से इस प्रकार की टॉफियाँ जोधपुर में भी बेची जा रही है।

विदेशी सैलानी लाते हैं अपने साथ

विदेशी सैलानी भी इस प्रकार की टॉफियाँ अपने साथ लाते हैं। एक गाइड ने बताया विदेशी सैलानी इस प्रकार की टॉफियाँ के आदी हो गए हैं। उन्हें अब इस प्रकार की टॉफियाँ जोधपुर में भी सुलभ हो जाती है। गाइड इस प्रकार की टॉफियाँ उपलब्ध करवा देते हैं।

युवतियां भी टॉफियाँ की शौकिन 

विदेशी युवतियां तो इस प्रकार की टॉफियाँ की शौकिन होती ही है, साथ में जोधपुर की युवतियों को भी बीयर व शराब की टॉफियाँ खूब भाती है। पॉश कॉलोनियों में रहने वाली युवतियों में इसका चलन आम बात है।

लाइसेंस जरूरी

विषेषज्ञों का कहना है कि बीयर व शराब की टॉफियाँ बेचना गैरकानूनी नहीं हैं, हां, इसके लिए लाइसेंस जरूरी है। साथ ही टॉफियाँ पर लिखना होगा-केवल वयस्कों के लिए। जोधपुर में इस तरह की टॉफियाँ बेचने का लाइसेंस अभी किसी के पास नहीं है। ऐसी टॉफियाँ चोरी-छिपे ही बेचा जा सकता है।

Wednesday, 27 November 2013

बिना लाइसेंस कर रहे गाइडिंग, सैलानियों को दे रहे हैं भ्रामक जानकारी

-गोल्डन सिटी जैसलमेर और सूर्यनगरी जोधपुर में बिना वैध लाइसेंस के कई लोग गाइडिंग कर रहे हैं। इन गाइडों में कई लपकागिरि कर रहे हैं तो कई सैलानियों को भ्रामक जानकारी दे रहे हैं....

-डी.के. पुरोहित-

जोधपुर। गोल्डन सिटी जैसलमेर और सूर्यनगरी जोधपुर में कई लोग बिना वैध लाइसेंस के गाइडिंग कर रहे हैं। इन गाइडों में कई लोग तो लपकागिरि कर रहे हैं तो कई गाइड भ्रामक जानकारी दे रहे हैं। गाइड को एनसाइक्लोपीडिया माना गया है। वह सैलानियों का सच्चा दोस्त माना जाता है और उनका सही मार्गदर्शन करता है, मगर जैसलमेर व जोधपुर में स्थिति जुदा है। यहां गैर पंजीकृत गाइड सैलानियों को गलत तथ्य बताकर उनके साथ धोखा कर रहे हैं।

जोधपुर में लपकागिरि करने वाले गाइड सैलानियों को बताते हैं कि घंटाघर अकबर ने बनाया था। इसी तरह मेहरानगढ़, उम्मेद भवन पैलेस, कायलाना, चिड़ियाघर सहित विभिन्न स्थानों के बारे में तथ्यों से परे जानकारी दी जा रही है। यही हाल जैसलमेर का है। इतिहासकार और संस्कृतिकर्मी नंदकिशोर शर्मा ने बताया कि गैर पंजीकृत गाइड सैलानियों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं। ये गाइड जो लपके भी होते हैं, सैलानियों को ऐतिहासिक स्थलों के बारे में भ्रामक जानकारी देते हैं।

सरकारी नौकर फिर भी गाइड

कई लोग सरकारी नौकरी भी करते हैं और नौकरी के समय में गाइडिंग भी करते हैं। नियमानुसार पार्ट टाइम गाइडिंग नहीं की जा सकती, इन पर कंडक्ट रूल्स लागू होते है, लेकिन सरकारी कर्मचारियों ने टूरिज्म विभाग से जोड़तोड़ कर लाइसेंस बना लिए हैं और अब गाइडिंग भी कर रहे हैं।

गाइड का धर्म भूल, करते हैं लपकागिरि

गाइड सैलानियों के साथ अपने धर्म को भूल कर लपका गिरि कर रहे हैं। वे सैलानियों को निर्धारित प्रतिष्ठानों से खरीदारी करने को मजबूर करते हैं और दुकानदारों से अपना कमीशन भी लेते हैं। गाइड की एसोसिएशन भी बन चुकी है। पंजीकृत गाइड कई बार टूरिज्म विभाग से कह चुके हैं कि गैर पंजीकृत गाइड सैलानियों को प्राॅपर जानकारी देने की बजाय गलत तथ्य पेश कर रहे हैं, मगर टूरिज्म विभाग ने अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है।

मौजूदा दौर में गाइड की भूमिका महत्वपूर्ण

सैलानियों को कहां ठहरना है। क्या खाना है। क्या ध्यान रखना है। ऐसी कई बातों का ध्यान रखना होता है। एक सच्चा गाइड ही सैलानी का सच्चा साथी होता है। ऐसे में जबकि गाइड की भूमिका दिनो दिन महत्वपूर्ण होती जा रही है, कुछ गाइडों द्वारा अपना धर्म नहीं निभाने से पूरी गाइड बिरादरी बदनाम होती है। चाहे जोधपुर हो, जैसलमेर हो, उदयपुर हो, बीकानेर हो या माउंट आबू...हर जगह गाइड की भूमिका बढ़ती जा रही है। इस बात को ध्यान में रखते हुए टूरिज्म विभाग को सख्ती बरतनी चाहिए और सैलानियों को भ्रामक जानकारी देने वाले गैर पंजीकृत गाइड के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए।

शराब के नशे में करते हैं गाइडिंग

कई गाइड ऐसे भी हैं जो शराब पीकर गाइडिंग करते हैं। ऐसा करने से सैलानी अपने को असहज महसूस करते हैं। गाइड को बगैर नशा किए गाइडिंग करनी चाहिए, क्योंकि इससे सैलानी भयभीत रहते हैं।

सैलानियों को होती है निराशा

जिस उत्साह और उमंग के साथ सैलानी जोधपुर व जैसलमेर घूमने आते हैं, उसके बाद जब उन्हें गाइड की भूमिका वाले युवा पसंद नहीं आते तो उन्हें निराशा होती है। सैलानियों का भरोसा गाइड पर ही रहता है। गाइड उनका सच्चा मार्गदर्शक होता है, मगर गाइड ही जब ट्रैक से उतर जाए तो सैलानी कहां जाए?

कमीशन के फेर में रहते हैं गाइड

जोधपुर व जैसलमेर में आने वाले देशी-विदेशी सैलानियों को निर्धारित दुकानों से शाॅपिंग करवा कर गाइड अपना कमीशन वसूलते हैं। व्यापारी एल.एन. खत्री ने बताया कि गाइड चुनिंदा दुकानों पर ही सैलानियों को ले जाते हैं। इन दुकानदारों से गाइड का मोटा कमीशन बंधा होता है। जो दुकानदार कमीशन नहीं देते हैं उन दुकानदारों के साथ गाइड लड़ने को उतारू हो जाते हैं।

शहर में कदम रखते ही हमला बोल देते हैं

हालत यह है कि जैसलमेर हो या जोधपुर, जैसे ही सैलानी शहर में कदम रखते हैं, रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर गाइड सैलानियों पर टूट पड़ते हैं। अपनी पसंदीदा होटल में सैलानियों को ठहराने के चक्कर में वे सैलानियों से अभद्र व्यवहार करने से भी नहीं चूकते। रेलवे स्टेशन पर विभिन्न होटलों से जुड़े गाइड खड़े रहते हैं। जैसे ही सैलानी स्टेशन से बाहर निकलते हैं, गाइड टूट पड़ते हैं और हाथ पकड़ कर उन्हें अपने वाहन में बिठाकर होटल ले आते हैं। कई बार सैलानियों के बजट में मोटी राशि नहीं होती, इस वजह से वे गाइड की मनमाफिक होटल में नहीं ठहर पाते। ऐसे में उन्हें शर्मिंदा भी होना पड़ता है और परेशानी भी होती है।

आचार संहिता की पालना नहीं करते गाइड

टूरिज्म विभाग ने बाकायदा गाइड के लिए आचार संहिता बनाई है। मसलन उन्हें खरीदारी के लिए मजबूर न करना, गलत व भ्रामक जानकारी नहीं देना, उनका मार्गदर्शन करना, परेशानी से बचाना...ऐसे कई मुद्दे हैं, जिनको लेकर गाइड के साथ आचार संहिता बनाई गई है, मगर गाइड इसे फोलो नहीं करते। गाइड की मनमानी से टूरिज्म विभाग को भी शर्मिंदा होना पड़ता है।

पर्यटन पुलिस नहीं करती कार्रवाई

पर्यटकों की सुरक्षा व मार्गदर्शन के लिए पर्यटन पुलिस लगाई जाती है। इनमें रिटायर्ड फौजी को प्राथमिकता दी जाती है। मगर ये पुलिस भी पर्यटकों की मदद करने की बजाय, चंदा उगाही में लग जाती है। लपकागिरि करने वाले गाइड इन्हें भी कमीशन देते हैं। इस वजह से कार्रवाई नहीं हो पाती है। इस संवाददाता ने पर्यटन पुलिस से जब पूछा कि अब तक कितने मामले दर्ज किए गए तो उनका जवाब होता है कि हम समझाइश कर छोड़ देते हैं। लपकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं होने की वजह से उनके हौंसेल बढ़ रहे हैं। सांस्कृतिक कार्यकर्ता बृजरतन ओझा बाबा महाराज ने बताया कि गाइड को अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। गाइड समाज का आइना होता है। गाइड जैसा व्यवहार करेगा, उस जिले व राज्य की वैसी ही पहचान बनेगी। ऐसे में अगर सैलानी बुरा अनुभव लेकर जाएंगे तो न तो वे खुद फिर आएंगे और अन्य लोगों को भी आने से रोकेंगे। इसलिए गाइड को संयम से काम लेना चाहिए।

Tuesday, 26 November 2013

चंद्रमा से आ सकता है पृथ्वी पर जानलेवा वायरस: रिपोर्ट

-साइंस की छात्रा नीमा चंडेला ने शोध पत्र के माध्यम से वैज्ञानिकों के लिए नई बहस खड़ी है। 1967 में किसी अखबार की फटी प्रति में इस बात का जिक्र है कि रूस के किसी वैज्ञानिक की चंद्रमा पर जानलेवा वायरस से मौत गई थी। अब भी यह वायरस सक्रिय हो सकता है और दुनिया भर के वैज्ञानिकों को चंद्रमा अभियान को लेकर चुनौती हो सकता है...

हैदराबाद. (एजेंसी)। साइंस की छात्रा नीमा चंडेला ने अपने एक शोध-पत्र के माध्यम से चेतावनी दी है कि पृथ्वी पर चंद्रमा से जानलेवा वायरस आ सकता है। पिछले पांच साल के शोध में चंडेला की स्टडी से ऐसा कहा जा रहा है। चंडेला के हाथ सन 1967 में किसी अखबार की फटी प्रति लगी है। इस प्रति में तत्कालीन वैज्ञानिक डी. मसीह ने दावा किया है कि चांद पर जानलेवा घातक वायरस सक्रिय है। वर्षों पहले रूस के किसी वैज्ञानिक की चंद्रमा पर संदिग्ध मौत हो गई थी। बताया जा रहा है कि इस वैज्ञानिक की वायरस से मौत हुई थी। इस वायरस के बारे में कोई पुख्ता जानकारी सामने नहीं आई है, लेकिन चंडेला ने आशंका जताई है कि चांद पर अगर ऐसा वायरस सक्रिय है तो वैज्ञानिकों को अपने चंद्रमां संबंधित अभियान रोक देने चाहिए।

आगे क्या किया जाए

नीमा चंडेला ने बताया कि उसने अपना शोध-पत्र अभी किसी वैज्ञानिक के साथ साझा नहीं किया है। इस शोध की रिपोर्ट पर अगर भरोसा किया जाए तो अमेरिका, रुस, भारत, जापान, चीन और अन्य देशों को अपने सभी अभियान रोक देने चाहिए। अगर असावधानी से यह वायरस धरती पर आ गया तो पृथ्वी पर विनाश लीला शुरू हो सकती है।

वायरस कितना घातक पुख्ता जानकारी नहीं

चंडेला ने बताया कि यह वायरस घातक हो सकता है, मगर कितना? स्वाइन फ्लू की तरह यह हवा में फैल सकता है और दुनिया भर को अपनी चपेट में ले सकता है। इसके लक्षण अभी वैज्ञानिकों को मालूम नहीं है। चंद्रमा अभियान तो वर्षों से चल रहा है कि मगर अभी तक किसी वैज्ञानिकों को इस प्रकार के वायरस की जानकारी नहीं मिली है।

सावधानी व शोध की जरुरत

चंडेला का कहना है कि वह साइंस की स्टूडेंट है। इस दिशा में निरंतर शोध से इस नतीजे पर पहुंची है कि वायरस का पृथ्वी पर आना संभव है। धरती पर यह कितना घातक व जानलेवा होगा, यह भविष्य के गर्त में है। उन्होंने बताया कि यह वायरस प्लैग से भी कई गुना खतरनाक हो सकता है। दुनिया भर के वैज्ञानिकों को अलर्ट रहना होगा। उन्होंने बताया कि इस तरह का वायरस हो भी सकता है और नहीं भी, मगर अंतरिक्ष के रहस्यों को अभी तक वैज्ञानिक पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं। ऐसे में वैज्ञानिकों को अलर्ट रहना जरूरी है।

Sunday, 24 November 2013

पैसों की खातिर प्रदेश में बिक रही हैं बेटियां

-राजस्थान में बेटियां पैसों की खातिर बेची जा रही हैं। ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिनमें बेटियों को तीन गुना अधिक उम्र के लोगों के साथ रुपए लेकर ब्याह दी गई, कुछ मामलों में बेटियों ने विरोध किया और अंततः शादी तोड़कर रोशनी की किरण तलाशने में जुट गईं....

-डी.के. पुरोहित-

केस: एक: बीकानेर जिला। 17 साल की अमिया की शादी 54 साल के वृद्ध नारायण के साथ कर दी। महज 50 हजार रुपए की खातिर। अमिया ने कोर्ट की शरण ली और शादी के बंधन से मुक्त हुई।

केस: दो: पोकरण तहसील का नेडाणा गांव। 17 साल की आसू कंवर की शादी 35 साल के सवाईसिंह के साथ तय कर दी गई। शराबी पिता ने 49 हजार रुपए नकद व एक सोने के हार के बदले बेटी का सौदा कर लिया। एक एनजीओ ने बीच-बचाव कर रिश्ता तुड़वाया।

केस: तीन: अजमेर जिला। 15 साल की भवंती। दादा ने दो लाख रुपए लेकर नाबालिग की शादी तिगुनी उम्र के व्यक्ति के साथ कर दी। ‘सारथी’ संस्था के बीच बचाव से मामला सामने आया और शादी निरस्त करवाने के लिए भवंती कोर्ट पहुंची।

जोधपुर। नारी सशक्तिकरण के कितने ही ढोल पीटे जाएं और महिलाओं को आरक्षण मिल भी जाए तो पुरुष प्रधान समाज में उसकी स्थिति में खास फर्क नहीं आया है। राजस्थान में बेटियां न घर में सुरक्षित है और न ही बाहर। हालत यह है कि बेटियों को उनके माता-पिता और घर के बुजुर्ग पैसों की खातिर तीन गुना बड़े लोगों से ब्याह रहे हैं। कई मामलों में बेटी सब कुछ सहन कर लेती है, लेकिन अब विरोध भी मुखर होने लगा है। स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से ऐसे मामले सामने आने लगे हैं और बेटियों को न्याय भी मिलने लगा है।

राजस्थान के अजमेर जिले का ताजा मामला सामने है। 15 साल की भवंती सेन के दादा ने दो लाख रुपए लेकर उसका विवाह लगभग तिगुनी उम्र के व्यक्ति से कर दिया था। विरोध जताने पर उसने न सिर्फ भवंती के माता-पिता को बंधक बना लिया बल्कि जाति पंचों से धमकी भी दिलाई। शुक्रवार को भगत की कोठी स्थित सारथी कार्यालय में पत्रकार वार्ता में संस्था की कार्यकर्ता कृति भारती ने यह मुद्दा उजागर किया। यह पहला मामला नहीं है। जोधपुर, बाड़मेर, बीकानेर, जैसलमेर, नागौर, अजमेर और अन्य कई जिलों में जो स्थिति सामने आ रही है, वह चौकाने वाली है। राजस्थान में पैसे लेकर बेटियों की शादी बड़ी उम्र के लोगों के साथ करने के मामले लगातार सामने आ रहे हैं। मगर सरकार कोई सख्त कदम नहीं उठाती। न ही ऐसे लोगों को सजा मिल पाती। मामलों में जातीय पंचों की भूमिका हमेशा खलनायकी वाली रही है। बेटी को न्याय दिलाने की बजाय अन्याय का साथ दिया जाता है। दूसरी ओर बेटियां भी मुखर होकर विरोध नहीं कर पाती। इक्का-दुक्का मामले ही सामने आते हैं, वे भी एनजीओ के माध्यम से।

अजमेर की भवंती के मामले में भी सारथी संस्था की कृति भारती ने पहल की। अब उम्मीद की जा सकती है कि कोर्ट से भवंती को न्याय मिलेगा। लेकिन ऐसी कितनी ही भंवती है, जिन्हें भी सहारे की जरुरत है।

गरीबी की वजह से बढ़ रहे हैं मामले

राजस्थान में बेटियों को इस तरह बेचने के पीछे पारिवारिक गरीबी भी बड़ा कारण माना जाता है। माता-पिता के सामने घर खर्च चलाने और बेटी का ब्याह आसानी से करने के लिए यही रास्ता अपनाया जाता है। लेकिन इससे अपनी ही बेटी के साथ वे अन्याय कर रहे हैं। इस अन्याय को रोकने की दिशा में किसी सरकार ने कार्य नहीं किया। चाहे वसुंधरा राजे की सरकार रही हो और चाहे अशोक गहलोत की। दोनों ही मुख्यमंत्रियों ने बेटी को इस अन्याय से बचाने के लिए पहल नहीं की। योजनाएं तो खूब बनी मगर बेटी को न्याय नहीं मिला।

पिछड़ी जातियों में मामले अधिक

इस तरह शादी करवाने के मामले पिछड़ी जातियों में अधिक सामने आ रहे हैं। माता-पिता बेटियों को ज्यादा उम्र के साथ शादी करने को मजबूर कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसा हाल ही में हो रहा हो, बल्कि ये परंपरा वर्षों से चली आ रही है। खासकर पश्चिमी राजस्थान में आए साल अकाल पड़ने और रोजगार के अवसर कम होने की वजह से गरीबी व मजबूरी में बेटियां बेची जा रही हैं।

शिक्षा की वजह से कुछ जागृति आई है

नाबालिग बेटियों को अधिक उम्र के व्यक्ति के साथ पैसे लेकर ब्याहने के मामले अब सामने आने लगे हैं। बेटियां खुद आगे आकर यह रिश्ता ठुकराने लगी हैं, लेकिन ऐसे मामलों में पुलिस की भूमिका सकारात्मक नहीं रही है। पुलिस बेटी के साथ न्याय करने की बजाय समझौता करवाने में जुट जाती है। भला हो एनजीओ का जो इस तरह के मामलों में धैर्य, संयम और स्वाभिमान बेटी का साथ देते हैं। महिला एवं बाल विकास केंद्र की परियोजना निदेशक इंदू चोपड़ा ने पूर्व में ऐसे मामलों को उजागर किया है और बेटियों को न्याय दिलाया है। दिल्ली की विजया सानी ने भी ऐसे मामलों के खिलाफ अभियान चलाया है।

कोर्ट पर ही भरोसा कायम

बेटियों के साथ हो रहे अन्याय के मामलों में कोर्ट पर ही भरोसा कायम रहा है। पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता और ले-देकर मामला रफा-दफा करने की परिपाटी से राजस्थान में बेटियों के साथ अन्याय हो रहा है। पिछले कुछ वर्षों में कोर्ट की सजगता से ऐसे मामलों को उठाया गया और प्रसंज्ञान लेते हुए बेटियों को न्याय भी दिलाया है। लोकतंत्र में अब न्यायपालिका पर ही भरोसा कायम है, नेता, नौकरशाह और दबाव समूहों ने गठबंधन कर आम आदमी का जीना मुश्किल कर दिया है। ऐसे में बेटियों को न्याय दिलाने के लिए कोर्ट पर भी भरोसा बचा है।

बेटी को भार समझना भूल

बेटियों को बेचने के मामले के पीछे बेटियों को भार समझना है। आमतौर पर राजस्थान में बेटी के जन्म पर खुशियां नहीं मनाई जाती। बेटी होना मतलब परिवार पर भार। बेटियों को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता। हालांकि परिस्थितियां बदल रही हैं, मगर अभी भी परंपरावादी लोग बेटियों की कम उम्र में ही शादी करवाना चाहते हैं, फिर चाहे बड़ी उम्र के दूल्हों के हाथों बेचा ही क्यों न जाए। एडवोकेट एल.एन. मेहता का कहना है कि ऐसे मामलों में कोर्ट के माध्यम से बेटियों को न्याय दिलाया जा रहा है। उन्होंने बताया कि राजस्थान में अब जागरूकता आ रही है, मगर कई मामलों में आज भी परंपराएं हावी हैं, जिनका जवाब केवल जागरूकता व शिक्षा ही है। जागरूक और शिक्षित होकर ही बेटी को न्याय दिलाया जा सकता है।

सरकारी वाहनों में निजी काम, अफसर कर रहे फैमिली सहित सैर-सपाटा

-इतिहास में बताया गया है कि चाणक्य जब राजकीय कार्य करता था तो सरकारी दीपक जलाता था और घर का कार्य करता था तो उसे बंद कर देता था। पर यह इतिहास की बात है। आज के सरकारी कर्मचारी और अधिकारी नया इतिहास बना रहे हैं। सरकारी वाहनों का निजी कार्यों में उपयोग कर रहे हैं। फैमिली सहित सैर-सपाटा करते हैं। फर्जी बिल बनाते हैं। फर्जी यात्रा बताकर कमाई का जरिया बना लिया है। इन दिनों चुनाव चल रहे हैं। चुनाव के नाम पर सरकारी अधिकारी वाहनों का जमकर दुरुयोग कर रहे हैं और कमाई भी कर रहे हैं...

-डी.के. पुरोहित-

जोधपुर। सुबह का समय। शास्त्रीनगर स्थित सेंटपाॅल्स स्कूल। कई सरकारी वाहन यहां खड़े रहते हैं। किसलिए? साब के बच्चों को स्कूल छोड़ना होता है। ऐसे ही नजारे डीपीएस, जीएस जांगिड़, लक्की बाल निकेतन सहित शहर की कई स्कूलों के साथ काॅलेजों में भी देखे जा सकते हैं। यहां तक की कोचिंग सेंटर और कंप्यूटर इंस्टीट्यूट के बाहर भी सरकारी वाहनों में साब लोगों के बच्चे आते-जाते हैं।

ये बात छोटी है। पर इसके मायने बड़े हैं। ऐसा क्यों? साब लोगों की आदत पड़ चुकी है। अब सरकारी अधिकारियों के बच्चे सरकारी वाहनों में पढ़ने के लिए जाते हैं। यही नहीं हर छोटे-बड़े काम भी सरकारी वाहनों में होते हैं। वाहन शाम होते ही कलेक्ट्रेट में खड़े होने चाहिए, मगर ये वाहन साब लोगों के घर के आगे खड़े रहते हैं।

मेम साब की शाॅपिंग भी सरकारी वाहन में

सरकारी अधिकारियों का रवैया भी कुछ ऐसा ही है। अगर मंडी से सब्जी लानी है तो सरकारी वाहन का यूज होगा। अगर मैम साब की शाॅपिंग करवानी है तो भी सरकारी वाहन जाएगा। शहर के जालोरी गेट, नई सड़क, घंटाघर, रातानाडा और कई स्थानों पर ऐसे नजारे देखे जा सकते हैं। इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। कलेक्टर गौरव गोयल भी कोई कार्रवाई नहीं करते। ऐसा नहीं है कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है, मगर अब ऐसा होना फैशन हो गया है। सरकारी वाहनों का साब लोग घरों में उपयोग नहीं करेंगे तो कौन करेगा? यहां तक की धोबी को कपड़े इस्त्री के लिए देने हैं तो भी सरकारी वाहन जाएगा।

फैमिली सहित सैर सपाटा

कहीं घूमने जाना है। फैमिली के साथ। तो भी सरकारी वाहन ही काम में आता है। बस टूर बनाने की जरूरत है। आम का आम, गुटली के दाम। काम भी हो जाता है और घूमना भी। ऐसा वर्षों से चल रहा है। अब अधिकारियों की आदत बन चुकी है। इस आदत को किसी कलेक्टर ने बदलने की कोशिश नहीं की। किसी जिले में ऐसी कार्रवाई करते किसी कलेक्टर को नहीं देखा गया।

कथा सुनने जाते हैं तो भी सरकारी वाहन

शहर में कई जगह भागवत कथाएं और अन्य धार्मिक आयोजन होते हैं। यहां भी सरकारी वाहन खड़े देखे जा सकते हैं। एक तरफ साब के माता-पिता और बीवी कथा सुनने जाती हैं और ज्ञान की बातें सीखती हैं और दूसरी ओर सरकारी कोष को चूना लगाकर और नैतिकता का हनन करने के मामले सामने आना आम बात है।
मरु मेले के दौरान सैकड़ों अधिकारी आएंगे

जैसलमेर में प्रति वर्ष मरु मेला आयोजित होता है। इस मेले में देश के कोने-कोने से सरकारी अधिकारी अपने परिवार सहित सरकारी वाहनों में आते हैं। इस दौरान कई कार्यशालाएँ, संगोष्ठियां, बैठकें और टूर बनते हैं। ये सभी बाकायदा मरु मेले के पीरियड़ में होते हैं और इसका निर्धारण मरु मेले का आनंद लेने के लिए किया जाता है। सरकारी अधिकारी अपनी फैमिली सहित जैसलमेर आते हैं। ऐसा वर्षों से चल रहा है और जारी है।

चुनाव में पानी की तरह बह रहा है सरकारी धन

इन दिनों विधानसभा चुनाव है। यह केवल जोधपुर की बात ही नहीं है। समूचे राजस्थान में सरकारी वाहनों का जमकर दुरुपयोग हो रहा है। चुनाव के नाम पर सरकारी वाहनों का जमकर दुरुपयोग हो रहा है। फर्जी बिल बन रहे हैं। सरकारी अधिकारियों के साथ ही ड्राइवर भी कमाई कर रहे हैं। ऐसा खुल्लेआम हो रहा है और इसकी जांच भी नहीं होती। इन दिनों माॅनिटरिंग और जांच-पड़ताल के नाम पर सरकारी वाहन घूमते रहते हैं। एक तरफ उम्मीदवारों से आचार संहिता के नाम पर उगाही चल रही है वहीं दूसरी ओर सरकारी वाहनों का फर्जी बिल भी बनता है। चुनाव अधिकारियों के लिए कमाई का जरिया बने हुए हैं। सरकारी धन पानी की तरह बह रहा है। कौन रोके? सभी कमाई में लगे हुए हैं।

कलेक्ट्रेट पर वाहन खड़े नहीं होते

नियमानुसार शाम होते ही सरकारी वाहन कलेक्ट्रेट पर खड़े होने चाहिए। यही नहीं अगर सरकारी वाहन कलेक्ट्रेट पर खड़े नहीं हो तो सरकारी कार्यालयों के आगे खड़े होने चाहिए, लेकिन सरकारी अधिकारी वाहनों को अपने घर के आगे खड़े रखते हैं। यही नहीं सरकारी वाहन सरकारी बंगलों के पोर्च में खड़े रहते हैं। नियम बनाने वाले ही नियमों को तोड़ रहे हैं। कलेक्टर गौरव गोयल ने भी इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया। ऐसा आए रोज हो रहा है। नियमित। बेरोकटौक। मगर प्रशासन भी सख्त कदम नहीं उठा रहा। प्रशासन की निष्क्रियता के चलते अधिकारियों के मौज हैं।

Saturday, 23 November 2013

आधी किराया राशि में रेलवे पुलिस वाले करवाते हैं सफर!


-रेलवे स्टेशन पर रेलवे पुलिस की नजर यात्रियों पर रहती है। कुछ लोग उनके चक्कर में फंस भी जाते हैं। जीआरपी सिपाही यात्रियों को आधी किराया राशि में सफर करवाने का वादा करते हैं। वे वादा निभाते भी हैं। यह संवाददाता भी रेलवे पुलिस के एक सिपाही के साथ सफर कर चुका है, ऐसा कई वर्षो से चल रहा है, बेरोकटौक....

-डी.के. पुरोहित-

जोधपुर-जैसलमेर। अगर आप ट्रेन से सफर करने जा रहे हैं तो आपके लिए अच्छा मौका है किराया बचाने का। जीआरपी और अन्य पुलिस फोर्स के सिपाही आपको आधे दाम में भी सफर करवा सकते हैं। अगर आप सहमत है तो फिर आपको आसानी से सोते हुए सफर करवाया जा सकता है। है न मजेदार बात। हां, यह सत्य है। पिछले कई वर्षों से ऐसा चल रहा है। बिना रोकटौक और आसानी से।

चाहे राजस्थान में कहीं जाना हो। ऐसा संभव है। कई बार पुलिस के सिपाही मुजरिमों को पेशी पर ले जाते हैं और वे अपने साथ दो-तीन यात्री भी ले लेते हैं और उनसे आधा किराया लेकर अपने साथ बिठा दिया जाता है। यही नहीं जीआरपी और अन्य पुलिस फोर्स के सिपाही तो आए दिन अपने साथ यात्रियों को ले लेते हैं और बाकायदा उन्हें सुरक्षित निर्धारित स्टेशन पर उतार दिया जाता है।

पिछले दिनों जैसलमेर रेलवे स्टेशन पर पुलिस का एक सिपाही यात्रियों की तलाश कर रहा था कि कोई मुर्गा फंस जाए। एक व्यक्ति को उसने तैयार किया आधी टिकट में। यात्री के साथ उसका बेटा भी था। लेकिन बेटा समझदार था, बोला-पापा पुलिस अंकल के साथ नहीं चलेंगे। यह संवाददाता वहीं खड़ा था। जोधपुर आना था सो उस पुलिस के सिपाही के साथ ‘सौदा’ तय हो गया। बैठ गया। यकीन मानों सोते हुए आसानी से जोधपुर पहुंच गया और सुरक्षित ‘बाहर’ भी निकल गया।

गार्ड वाला डिब्बा सुरक्षित स्थान

इस तरह का सफर करवाने में सबसे सुरक्षित स्थान गार्ड वाला डिब्बा है। प्रतिदिन दर्जनों लोगों को सफर करवाया जाता है। कुछ जीआरपी व अन्य पुलिस के सिपाही करवाते हैं और कुछ रेलवे कर्मचारियों की ओर से यात्रियों को शामिल कर लिया जाता है। इस तरह रेलवे पुलिस और कर्मचारी ‘समाजसेवा’ भी कर रहे हैं।

राजस्थान में कहीं भी सफर करना आसान

ऐसा सफर आमतौर पर राजस्थान क्षेत्र में ही करवाया जाता है। राजस्थान से बाहर नहीं। राजस्थान में बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, जयपुर, कोटा, अजमेर और अन्य कई स्थानों पर सफर आसानी से किया जा सकता है। रेलवे से संबंधित पुलिस व अन्य पुलिस के सिपाही भी ऐसा सफर करवाते हैं।

फौजी डिब्बों में भी पुलिस का दखल

ट्रेन से सफर करने में फौजी डिब्बों में भी पुलिस का दखल हो जाता है। कई बार पुलिस के सिपाही अपने ‘सान्निध्य’ में सफर करवाते हैं और यात्री भी आसानी से सफर कर लेता है। कई बार फौजी डिब्बों में भी पुलिस वाले यात्रियों को सफर करवाते हैं। ऐसा होना आम बात है।

न ट्रेन में चैकिंग होती न ही निर्धारित स्टेशन पर

यात्री को कहीं भी जाना होता है तो न तो ट्रेन में चैकिंग होती है और न ही निर्धारित रेलवे स्टेशन पर ही कोई दिक्कत होती। पुलिस वाले यह कहकर कि ‘स्टाफ है’ आसानी से यात्रियों को सुरक्षित रेलवे स्टेशन से बाहर निकाल ले जाते हैं।

रेलवे प्रशासन कोई कार्रवाई नहीं करता

ऐसा नहीं है कि रेलवे प्रशासन को इसकी जानकारी नहीं है। रेलवे प्रशासन को जानकारी होते ही भी कोई कार्रवाई नहीं की जाती। ऐसा होना आम बात है। यात्रियों को आधी किराया राशि में सुरक्षित सफर करवाने वाले कर्मचारियों और पुलिस के खिलाफ कार्रवाई कौन करे। रेलवे के लंबे चौडे कारोबार में इतनी छूट तो मिल ही जाती है।

रिजर्वेशन में भी कमीशन का फेर

रेलवे पुलिस व अन्य पुलिस फोर्स के सिपाही पर आरोप यह भी है कि वे आम आदमी के रिजर्वेशन में भी कमीशन का खेल खेलते हैं। रिजर्वेशन में भी उनका दखल रहता है और बाकायदा उसके लिए शुल्क लेते हैं। चाहे कहीं रिजर्वेशन करवाना हो तो ऐसे सिपाही आसानी से रिजर्वेशन करवा लेते हैं और यात्रियों को अंटी ढीली करने की गुंजाइश हो तो परेशानी से भी बचा जा सकता है।

बिना टिकट यात्रियों को भी बचा लेते हैं

बताया जाता है कि पुलिस स्टेशन पर नफरी करने वाले सिपाही कई बार बिना टिकट यात्रियों से चाय-पानी के पैसे लेकर उन्हें सुरक्षित स्टेशन से बाहर निकाल लेते हैं। जोधपुर रेलवे स्टेशन पर ऐसा आए दिन होता है और कोई रोकने वाला नहीं है।

कहीं भी जाना हो टूर बना लेते हैं

रेलवे पुलिस के सिपाही एक ओर यात्रियों को कम किराया राशि में सफर तो करवाते ही हैं, वहीं कई बार वे अपने घर जाते हैं तो टूर बना लेते हैं। बाकायदा टूर की राशि भी बन जाती है और अपने घर भी हो आते हैं। ऐसा करना आम बात है। खुद रेलवे भी स्वीकार करता है कि कई मामलों में ऐसा होता है। मगर अब इस ओर ध्यान दिया जा रहा है और सख्ती बरती जा रही है। अक्सर रेलवे पुलिस में विभिन्न स्थानों के लोग कार्य करते हैं। ऐसे में जब कभी घर या कहीं जाना होता है तो सुविधा के साथ टूर तय कर दिया जाता है। ऐसा सिपाही लेवल पर ही नहीं अधिकारी लेवल पर भी होना आम बात है। रेलवे के अन्य कर्मचारी भी ऐसा कर लेते हैं। इसके लिए स्टाफ के साथ सैटिंग बिठाई जाती है। कई बार लोग बारी-बारी से टूर करते हैं।

Thursday, 21 November 2013

अतिक्रमण हटाए, कुछ दिनों बाद फिर हो गए

-नगर निगम व जेडीए की ओर से अभियान चलाकर कई जगह से अतिक्रमण हटाए थे, लेकिन कुछ रोज की शांति के बाद फिर से अतिक्रमण हो गए....

-डी.के. पुरोहित-

जोधपुर। सूर्यनगरी में अतिक्रमण नहीं रुक रहे हैं। नगर निगम व जेडीए ने कुछ दिनों पहले अभियान चलाकर जगह-जगह से अतिक्रमण हटाए थे, लेकिन कुछ रोज की शांति के बाद फिर से लोगों ने अतिक्रमण कर लिए। नगर निगम के अतिक्रमण निरोधक दस्ते ने जालोरी गेट, सोजती गेट, नई सड़क, घंटाघर, शास्त्री नगर और शहर की विभिन्न कॉलोनियों से अतिक्रमण हटाए थे, लेकिन कुछ रोज के बाद लोगों ने फिर जगह घेर ली।

शहर के सबसे व्यस्त बाजार नई सड़क व घंटाघर में बेतरतीब ठेले वाले खड़े होते थे। सड़क के दोनों और खिलौने, कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक आइटम, जूते, बैग और अन्य वस्तुएं बेचने वाले काबिज हो गए थे। वे आवाज लगाकर लोगों को वस्तुएं बेचते थे। इनसे सड़क संकरी हो गई थी और यातायात भी बाधित होने लगा था। रही-सही कसर ऑटो व टैक्सी वालों ने अस्त-व्यस्त जगह रोक कर पूरी कर ली। ऐसे में घंटाघर की सूरत बिगड़ने लगी थी। आमजन परेशान था। ट्रैफिक व्यवस्था गडबड़ा गई और दुर्घटनाएं होने लगी थी। इससे नगर निगम ने अभियान चलाकर अतिक्रमण हटाए। निगम के अतिक्रमण निरोधक दस्ते ने घंटाघर को अतिक्रमण मुक्त करवा दिया। घंटाघर परिसर साफ-सुथरा हो गया और घंटाघर ने राहत की सांस ली। लेकिन अब फिर से अतिक्रमण हो गए हैं।

शास्त्री नगर में कोई रोकने वाला नहीं 

शास्त्री नगर में नगर निगम का दस्ता छोटे-मोटे ठेले वालों को तो हटा देता है लेकिन बड़े दुकानदारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करता। यहां पर स्टील भवन, कृष्णा सॉफ्टी द्वारा रोकी गई जगह के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। इसी तरह यहां पर सड़क के दोनों और पार्किंग की जगह से अतिक्रमण हटाकर वाहनों के खड़े होने की जगह बनाई गई थी, लेकिन यहां फिर अतिक्रमण हो गए। सेंटपोल स्कूल के पीछे तो चौधरी भोजनालय पूरा अवैध रूप खुल गया। यहां पर छपरा बनाकर और केबिन रख कर बाकायदा भोजनालय चलाया जा रहा है, लेकिन उन्हें कोई परेशान नहीं करता, जबकि सर्किल पर पेड़ के नीचे खड़े होने वाले ठेलों को आए दिन बेदखल किया जाता है। स्टील भवन बड़े-बड़े व्यापारियों का है। यहां पर पार्किंग की जगह पर सीमेंट करवाकर जगह घेरी गई है, उसे नहीं तोड़ा जा रहा है। साथ ही मां भवानी दाल बाटी-चूरमा ने तो सड़क की सीमा में अतिक्रमण कर रखा है। ऐसे ही इस क्षेत्र में कई जगह अतिक्रमण है, मगर कोई हटाने वाला नहीं है।

पावटा क्षेत्र फिर अतिक्रमण की जद में

इसी तरह पावटा क्षेत्र में फिर से अतिक्रमण होने लगे हैं। यहां पर जगह-जगह सड़क सीमा पर व्यापारियों ने सामान लगाने शुरू कर दिए हैं। इसी तरह ठेले वाले बेतरतीब खड़े हो रहे हैं, इन्हें हटाया नहीं जा रहा है। पूरे क्षेत्र में कद्दावर लोगों के अतिक्रमण नहीं हटाए जा रहे हैं और कार्रवाई के रूप में महज खानापूर्ति की जा रही है।

जालोरी गेट के भीतरी क्षे़त्र में हालात बिगड़े

जालोरी गेट चैराहे पर तो कुछ अतिक्रमण हटाए गए हैं, लेकिन भीतरी क्षेत्र में नगर निगम ध्यान नहीं दे रहा है। इससे हालात बिगड़ गए हैं। भीतर के क्षेत्र में गलियां संकरी है और दुकानदारों ने सामान रख कर उसे और संकरा कर दिया है। अस्त-व्यस्त ठेलेवालों ने रही सही कसर पूरी कर दी। ऐसे में यातायात व्यवस्था बिगड़ गई है। मगर कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है।

त्रिपोलिया बाजार की फिर वही कहानी

कुछ दिनों बाद त्रिपोलिया बाजार फिर वही कहानी दोहरा रहा है। यहां जगह-जगह अतिक्रमण हो गए हैं। सड़कें वैसे ही क्षतिग्रस्त है और जगह-जगह अतिक्रमण से हालात खराब हो गए हैं। इस क्षेत्र में यातायात का दबाव अधिक है और आए दिन दुर्घटनाएं हो रही है। नगर निगम का अतिक्रमण निरोधक दस्ता इस क्षेत्र में कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है।

ट्रांसपोर्ट नगर अस्त-व्यस्त

बासनी क्षेत्र में स्थित ट्रांसपोर्ट नगर के बदतर हालात हो रहे हैं, निगम इस ओर बिलकुल ही ध्यान नहीं दे रहा। यहां पर ट्रक और भारी वाहन अस्त-व्यस्त खड़े रहते हैं। कई बार तो ट्रक वाले आपस में झगड़ पड़ते हैं। यहां पर दुकानदारों व व्यवसायियों ने अपने सामान बाहर रख दिए हैं। यहां सड़क नहीं बनी हुई है और कच्ची रोड है और पानी भी बहता रहता है। पूरा क्षेत्र ही बिगड़ा हुआ है। ढाबों और अन्य दुकानदारों ने छपरे खड़े कर कच्ची रोड पर ही टेबल-कुर्सियां लगा रखी हैं। यहां वाहनों को निकलने के लिए परेशानी होती है। हालात यह है कि आपस में कई बार वाहन भिड़ जाते हैं। मगर इस ओर निगम का ध्यान नहीं जा रहा है। हालांकि नए ट्रांसपोर्ट नगर की कवायद चल रही है, मगर फिलहाल यहां व्यापारियों व ट्रक संचालकों को राहत नहीं है।

बासनी क्षेत्र ही अतिक्रमण का शिकार

इधर बासनी क्षेत्र ही अतिक्रमण का शिकार है, मगर विभाग केवल खानापूर्ति कर इतिश्री कर रहा है। निगम का अतिक्रमण निरोधक दस्ता कोई सख्त कार्रवाई नहीं कर रहा। यहां पर कई कई फैक्ट्रियों का सामान बाहर पड़ा रहता है, लेकिन निगम का इस ओर ध्यान नहीं जाता।

बड़े लोग बच जाते, छोटों पर होती कार्रवाई

नगर निगम भी बड़े व्यापारियों व ताकतवर लोगों के खिलाफ कुछ नहीं करता, जबकि जब-जब निगम ने अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई की छोटे व्यापारी और आम आदमी ही इसका शिकार हुए। इससे लोगों में निगम के प्रति रोष भी है। निगम पुलिस का सहारा लेकर जबरन अतिक्रमण हटा देता है, जिससे आम आदमी मन मसोस कर रह जाता है और जहर का घूंट पीकर चुप रह जाता है। जबकि बड़े व्यापारी और ताकतवर लोग अपनी पहुंच से निगम को कार्रवाई नहीं करने देते या फिर कोर्ट से स्टे ले आ जाते हैं। दोनों ही स्थिति में उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हो पाती।

मकानों का मलबा रोड पर बिखरा मिल जाता है

कई स्थानों पर भवन निर्माण कार्य का मलबा बिखरा रहता है, मगर निगम कार्रवाई नहीं करता। यही नहीं कचरा भी लोग पार्किंग स्थल पर फेंक देते हैं, जिससे भी रोड संकरी हो जाती है। शास्त्री सर्किल पर डिस्काॅम के विश्रामगृह से कुछ दूर आस-पास की होटलों व रेस्तरां वाले कचरा डाल देते हैं जिससे रास्ता संकरा हो गया है। यही नहीं क्षेत्र में गंदगी पसरी हुई है। यहां पशु मुंह मारते रहते हैं और कई बार लोगों को पशु चोटिल भर कर देते हैं।

व्यापक कार्रवाई की जरूरत

हाईकोर्ट की फटकार के बाद भी नगर निगम और जेडीए चेता नहीं है। कार्रवाई के नाम पर खानापूर्ति ही होती है। एक बार अतिक्रमण हटाने के बाद फिर से काबिज न हो जाए, इसके लिए ठोस कार्रवाई नहीं की जा रही है। इसका फायदा उठाकर लोग फिर से अतिक्रमण कर देते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि एक बार अतिक्रमण हटाने के बाद फिर उन क्षेत्रों में माॅनिटरिंग की जरूरत है। जैसे ही व्यापारी या अन्य लोग कब्जा करे, तुरंत कार्रवाई हो। तभी शहर साफ-सुथरा रह सकता है। सूर्यनगरी में भ्रमण करने आने वाले सैलानियों को भी बड़ी कोफ्त होती है, मगर वे मन मसोस कर रह जाते हैं।


Wednesday, 20 November 2013

शादियों में बिना लाइसेंस परोसी जा रही है शराब, आबकारी विभाग मौन


-नियमानुसार शादी-ब्याह जैसे अवसर पर आबकारी विभाग में निर्धारित शुल्क जमा करवा कर शराब का उपयोग करने का लाइसेंस लेना पड़ता है, लेकिन शहर में इन दिनों शादी समारोह में बिना लाइसेंस धड़ल्ले से शराब परोसी जा रही है...

-डी.के. पुरोहित-

जोधपुर। इन दिनों शादियों का सीजन है। शहर में खूब सावे हैं। अनुमान के अनुसार 200 से अधिक शादिया हैं। इन शादियों में शराब को धड़ल्ले से मेहमानों को परोसा जा रहा है। नियमानुसार शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर आबकारी विभाग में निर्धारित शुल्क जमा करवाकर शराब के उपयोग का लाइसेंस लेना पड़ता है, लेकिन बिना लाइसेंस लिए शराब का उपयोग जमकर हो रहा है और आबकारी विभाग मौन है। 

जोधपुर में शादियों का सीजन चल रहा है। कार्तिक पूर्णिमा से शादियां शुरू हो गई हैं। इस बार सावे भी खूब है। इन विवाह समारोह के अवसर पर शराब का उपयोग जमकर हो रहा है। युवाओं में शराब और बीयर के प्रति खासा उत्साह रहता है। शराब और बीयर परोसना संपन्नता की निशानी भी मानी जाती है। लेकिन ये शराब बिना लाइसेंस परोसी जा रही है। 

नियम हैं नियमों का क्या

नियम तो होती ही तोड़ने के लिए हैं। शादियों में जमकर शराब का उपयोग हो रहा है और आबकारी विभाग उदासीन बना हुआ हैं । आबकारी विभाग का कहना है कि उन्हें शिकायत मिलने पर ही कार्रवाई की जा सकती है, जबकि कहीं से शराब के उपयोग की शिकायत नहीं मिली है। लेकिन शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर आमतौर पर कौन शिकायत करता है? विभाग को ही पहल करनी चाहिए। इस बीच नियमों की अवहेलना हो रही है। आबकारी विभाग का कहना है कि इस सीजन के सावों में कहीं से आयोजकों ने शराब के उपयोग के लिए लाइसेंस नहीं लिया है। ना ही शराब के अवैध उपयोग की शिकायत ही मिली है, ऐसे में कार्रवाई कैसे की जा सकती है। 

बाहर पीने पर रोक नहीं है?

आबकारी विभाग का कहना है कि शादी समारोह में मेहमान अगर बाहर से शराब या बीयर पीकर आते हैं तो उस पर यह नियम लागू नहीं होता। हां, यदि समारोह में मेहमानों को शराब या बीयर परोसी जाती है तो यह नियम लागू होता है। लेकिन अभी तक किसी ने लाइसेंस के लिए एप्लाई नहीं किया है। 

रइसों की शादियो में शराब परोसना फैशन

अमीरों और संपन्न लोगों के यहां होने वाली शादियों में शराब परोसना फैशन बन चुका है। शहर में ऐसे लोगों के यहां भी खूब शादियां हैं, लेकिन ये संपन्न लोग भी मेहमानों का बिना लाइसेंस शराब परोस रहे हैं। यहां शराब का उपयोग मेहमानों के बीच जरूरी हो जाता है, लेकिन परमिशन या लाइसेंस नहीं लिया जाता। 

शाम 8 बजे के बाद पिछला दरवाजा खुलता है

शादियों के सीजन को देखते हुए शहर में शराब की दुकानें कहने को तो शाम आठ बजते ही बंद हो जाती है, मगर पिछला दरवाजा खुला रहता है। वहां से लोगों को शराब और बीयर सप्लाई की जाती है। इस बात की आबकारी विभाग व पुलिस को भी जानकारी है, मगर बताया जाता है कि उनकी भी मौन स्वीकृति होती है। बताया जा रहा है कि आबकारी विभाग व पुलिस का कमिशन बंधा होता है, जिसकी वजह से वे इन दुकानों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करते। शादियों के सीजन में देर रात तक शराब की बिक्री होती है। 

बारातियों के स्वागत में शराब बन रही जरूरत

शहर में कई परिवार ऐसे भी हैं जिनके यहां अगर शादियां होती है तो मेहमानों खासकर बारातियों के स्वागत में शराब परौसी जाती है। यह उनके स्टेटस और परंपरा के अनुसार जरूरी होता है, लेकिन इसके लिए अस्थाई बार की परमिशन नहीं ली जा रही है। ऐसे में नियम एक तरफ पड़े रहते हैं और शराब का जमकर उपयोग होता है। 

सिलिब्रिटीज के स्वागत में भी बिना लाइसेंस शराब का उपयोग

शहर में सिलिब्रिटीज के स्वागत में यहां होने वाले आयोजनों में भी शराब के उपयोग की परमिशन नहीं ली जाती है। अगर किसी होटल में सिलिब्रिटीज की शादी, जन्म दिन या ऐसे ही आयोजन होते हैं तो मेहमानों को शराब परौसी जाती है, लेकिन अलग से परमिशन नहीं ली जाती है। कुछ होटलों को तो बार की पहले से ही परमिशन होती है, लेकिन कई होटल ऐसे भी होते हैं जिनके पास बार का लाइसेंस नहीं होता, फिर भी शराब सप्लाई की जाती है। 

बिना लाइसेंस कई होटलों में देर रात तक शराब का उपयोग

इधर, बताया जाता है कि कई होटलों के पास बार का लाइसेंस नहीं हैं, लेकिन फिर भी देर रात तक यहां शराब का उपयोग होता है। आबकारी विभाग को भी इसके बारे में जानकारी है, मगर कार्रवाई नहीं हो पाती। रातानाडा क्षेत्र में बताया जाता है कि कुछ होटलों व रेस्तरां में बिना वैध लाइसेंस के शराब परोसी जाती है। 

Tuesday, 19 November 2013

ऊंटनी के दूध की आइसक्रीम, दही, लस्सी व मिठाइयां जल्दी ही आएंगी बाजार में




-बीकानेर, बाड़मेर, जैसलमेर व जोधपुर में स्वयंसेवी संस्थाओं का नया प्रयोग, जल्द ही ऊंटनी के दूध के प्रॉडक्ट बाजार में उपलब्ध होंगे, सेहत के लिए मुफीद ये प्रॉडक्ट लोगों को लुभाएंगे...
                                                               -डी.के. पुरोहित-
बीकानेर। मारवाड़ ऊंट पालन के लिए जाना जाता है। अब ऊंटनी के दूध के प्रॉडक्ट बाजार में जल्दी ही दिखने लगेंगे। खासकर स्वादिष्ट आइसक्रीम लोगों को लुभाएगी। बीकानेर, बाड़मेर, जैसलमेर व जोधपुर में कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं आगे आई हैं। ये ऊंटनी के दूध के प्रॉडक्ट को बाजार में उतारने जा रही हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभप्रद होने की वजह से लोगों को भी ये प्रॉडक्ट पसंद आएंगे। ऊंट मित्र, कैमल होम, कैमल माय एसेट्स जैसी कई संस्थाएं ऊंटनी के दूध को व्यावसायिक रूप देने जा रही है।

कैमल होम संस्था से इंग्लैंड की ईली मारिया जुड़ गई है। गत दिनों वह बीकानेर प्रवास पर आई तो इस प्रोजेक्ट पर खुलकर बोली। उन्होंने बताया कि ऊंटनी का दूध हैल्थ के लिहाज से अच्छा है। अब तक ऊंट को केवल बोझा ढोने, सफारी, करतब दिखाने और नफरी के लिए उपयोगी माना जाता रहा है, लेकिन अब ऊंटनी के दूध के प्रॉडक्ट बाजार में उतारकर हम नया प्रयोग करना चाहते हैं।

पहले आइसक्रीम, फिर अन्य प्रॉडक्ट

इसी कड़ी में सबसे पहले ध्यान ऊंटनी के दूध की आइसक्रीम पर दिया जा रहा है। इसे प्रायोगिक तौर पर जल्द ही बाजार में उतारा जाएगा। इसके बाद इसके दूध, दही, लस्सी, मावा व मिठाइयां तथा अन्य प्रॉडक्ट लॉन्च किए जाएंगे। मारिया से जब पूछा गया कि क्या ऊंटनी के इन प्रॉडक्ट को मार्केट मिलेगा। वह बोली-‘क्यों नहीं ? फिलहाल ये प्रायोगिक तौर पर है। जल्द ही इसे कॉमर्शियल रूप दिया जाएगा। इसकी सप्लाई विदेशों में भी की जाएगी। विदेशों में ऊंटनी के दूध पर कई प्रयोग भी हुए हैं, जिनसे इनकी गुणवत्ता सामने आई है।

ऊंटनी का दूध होता है ताकतवर

ऊंटनी के दूध पर कई प्रयोग भी हुए हैं। ‘इंपोर्टेन्स ऑफ कैमल’ नाम की संस्था ने अपने शोध में पाया कि अन्य जानवरों की अपेक्षा ऊंटनी के दूध में ताकत कई गुना अधिक होती है। मारवाड़ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों से रोज जूझने वाली ऊंटनी का दूध व्यक्ति को अंदर से स्ट्रांग बनाता है। इसके प्रॉडक्ट कुछ विशिष्ट अंदाज में मार्केट में लाए जाएंगे। इसके दूध में कुछ गंध आती है, मगर इसे दूर करने के लिए अन्य आइटम व सुगंधित पदार्थ मिलाकर इसे मानव उपयोगी बनाया जा रहा है। यह अपने आप में अनूठा प्रयोग है, इसे जल्दी ही मार्केट मिल जाएगा।

दिल्ली में किया था प्रदर्शन

कैमल होम संस्था की ओर से कुछ माह पहले दिल्ली में ऊंटनी के दूध के प्रॉडक्ट प्रदर्शित किए गए थे, जिन्हें लोगों ने खूब सराहा। मारिया का कहना है कि ऊंटनी के दूध के बारे में भारतीय ग्रंथों में भी काफी कुछ पढ़ने को मिला है। जब इस पर शोध के नतीजे सामने आए तो उनके मन में आया कि इसे कॉमर्शियल रूप दिया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने कैमल होम संस्था से संपर्क किया और बात बन गई। विदेशी नवयुवक ऊंटनी के दूध की आइसक्रीम व अन्य प्राॅडक्ट खूब पसंद कर रहे हैं। ब्रिटेन के रोजर रीवर ने बताया कि उसे विश्वास ही नहीं हो रहा है कि ऊंटनी के दूध की इतनी अच्छी आइसक्रीम मिल सकती है। उसने जब इसे टेस्ट किया तो वाकई लाजवाब लगी। उन्होंने कहा-‘मुझे नहीं लगता कि अन्य आइसक्रीम से कम बेहतर है।’ जयपुर की नीलिमा अख्तर ने बताया कि बाड़मेर प्रवास के दौरान यह आइसक्रीम टेस्ट करने का मौका मिला। वाकई यह स्वादिष्ट है और इसमें किसी प्रकार की गंध नहीं आ रही थी। यह प्रयोग नया है और जल्द ही हमारे बीच लोकप्रिय होगा।

ऊंटों का नया उपयोग

बीकानेर, बाड़मेर, जैसलमेर में ऊंटों की संख्या बहुतायत में है। अब तक इनका उपयोग बोझा ढोने के लिए अधिक किया जाता रहा है। समय के साथ कैमल सफारी के रूप में उपयोग होने लगा। कैमल माउंटेन बैंड में ऊंटों के करतब लोगों को खूब रिझाते हैं। दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड़ में ऊंटों के करतब लोगों को खूब रिझाते हैं। जैसलमेर के मरु मेले में भी ये अपना जलवा दिखाते हैं। बीएसएफ तो पेट्रोलियम में आज भी ऊंट को दमदार मानता है। खासकर मरुस्थलीय पश्चिमी राजस्थान व कच्छ के रण में ऊंट उपयोगी साथी माना गया है। ऐसे में ऊंटनी के दूध के उपयोग से ऊंटों को प्रश्रय मिलेगा। एक नई शुरुआत ऊंटों के संरक्षण में मददगार साबित होगी।

ऊंटनी बनाम शेरनी

कुछ माह पहले सऊदी अरब में हुए एक सम्मेलन में डॉ0 थिरजान रूबी ने अपने पत्रवाचन बताया कि ऊंटनी का दूध शेरनी के दूध के बराबर ताकतवर होता है। इसे पीने से बच्चे को ताउम्र बीमारियों से दूर रखा जा सकता है। बुजुर्गों के नित्य मालिश करने से वे फिट रह सकते हैं। गर्भवती महिलाएं अगर ऊंटनी का दूध पीती है तो बच्चा स्वस्थ होता है। श्याम आलोक ने बताया कि यह नया कंसेप्ट है, मगर जल्द ही पॉपुलर होगा।

काजरी ने भी किया है प्रयोग

ऊंटनी के दूध पर जोधपुर में काजरी भी प्रयोग कर चुका है। काजरी ने कई शोध भी किए हैं। काजरी की ओर से भी ऊंटनी के दूध से आइसक्रीम सहित कई प्रॉडक्ट तैयार किए गए हैं। उधर, बाड़मेर में ऊंटों के बाल उतारने के लिए बाकायदा सैलून खुलने लगे हैं। इस कार्य में विदेशी भी सहयोग देने के लिए आगे आ रहे हैं।

Monday, 18 November 2013

पत्थर से भी जमता है दही!









-जैसलमेर से 40 किलोमीटर दूर स्थित हाबूर गांव का पत्थर कलात्मक कृतियां बनाने के लिए ही नहीं, दही जमाने के भी काम आता है। वैज्ञानिक शोधों ने प्रमाणित कर दिया है कि इस पत्थर में साढ़े बारह करोड़ साल पुराने बैक्टीरिया के अंडज मौजूद हैं जो दही जमाने में सहायक है....

-डी.के. पुरोहित-


जैसलमेर। पत्थर से भी दही जमता है! सुनने में यह बात भले ही अटपटी लगे, लेकिन यह सत्य है। जैसलमेर के हाबूर गांव के पत्थर से भी दही जमाया जा सकता है।

कई शोधकर्ताओं द्वारा यह प्रमाणित किया जा चुका है कि इस पत्थर में ऐसे रासायनिक गुण विद्यमान है, जिसकी वजह से यह दूध में डालने के करीब 14 घंटे बाद यह दूध को दही में परिवर्तित कर देता है। हाबूर गांव के लोग तो ‘जमावन’ नहीं होने की स्थिति में आज भी इस ‘चमत्कारी’ पत्थर के टुकड़े से ही दही जमाते हैं। यह पत्थर जैसलमेर से 40 किलोमीटर दूर स्थित हाबूर क्षेत्र में ही पाया जाता है।

कत्थई-गेरूएं रंग के धारीदार इस पत्थर के कई उपयोग है। इन दिनों जैसलमेर में बृजरतन ओझा बाबा महाराज तो इस पत्थर की कलाकृतियां बनवा कर देश-विदेश के सैलानियों को बेच रहे हैं। बतौर बाबा महाराज ‘यह पत्थर बड़ा कीमती है। इसकी तादाद सीमित हैं।’ बाबा महाराज के लघु उद्योग केंद्र में देश-विदेश की कई हस्तियां आ चुकी है। सभी इस पत्थर के बारे में उत्सुकता से जानना चाहते हैं। फर्श की सुंदरता बढ़ाने के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है।

बाबा महाराज ने बताया कि इस पत्थर के कई नाम है। कई लोग इसे हाबूर का छींटदार पत्थर, सुपारी, हरफी, दिलपाक, अजूबा, अभरी, महामरियम, दूध जमावणिया, भूत भगावणिया आदि नाम से पुकारते हैं। उन्होंने बताया कि इस पत्थर से मालाएं, फूलदान, प्याले, गिलास, बरछी, कुल्हाड़ी, प्लेट्स, ट्रे, ऐस्ट्रे, नगीने, पेंडेन्ट्स, एक्यूप्रेशर पेंसिल, पेपरवेट, अगरबत्ती स्टैंड, कैंडल स्टैंड, छतरी, गणेश, कप प्लेट्स व गणेश आदि कलाकृतियां बनाई जाती है।

भू वैज्ञानिक नारायणलाल इणखिया मरु अमृता सरस्वती सेमिनार के दौरान इस पत्थर की कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगा चुके हैं। इस प्रदर्शनी में उन्होंने हाबूर के इस पत्थर के आइटमों का प्रदर्शन किया था। उनका कहना है कि इस पत्थर से दही जमना आम बात है। इस पत्थर के बारे में जानकारी मिली है कि साढ़े बारह करोड़ साल पुराने इस लाम स्टोन में ऐसे बैक्टीरिया के अंडज मौजूद हैं जो दही जमाने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

जयनारायण व्यास विवि विज्ञान संकाय के सेवानिवृत्त डीन डाॅ. बीएस पालीवाल ने इस पत्थर पर खूब शोध किया है। इस पत्थर पर जैव रासायनिक परीक्षण करने के बाद उनका मानना है कि इस पत्थर में सूक्ष्म जैविक पदार्थ पाए गए हैं। अनुमान है कि लाइम स्टोन में समुद्री सीप के जीवाश्म विद्यमान है। यह क्षेत्र पूर्व में पानी वाला रहा है। कालांतर में मरुस्थल में बदल गया, लेकिन इस पत्थर में कुछ जीवाणु ऐसे रह गए जो दही जमाने में काम आते हैं। उनका मानना है कि इन जीवाश्मों में दही जमाने के तीनों बायो-केमिकल ऐमीनो एसिड, फिनायल एलीनिया और रिफ्टोफेन टायरोसीन विद्यमान है। इसके साथ ही इसमें लगभग साढ़े बारह करोड़ साल पुराने बैक्टीरिया के अंडज हो सकते हैं। इतने पुराने बैक्टीरिया के अंडजों का जिंदा होना वाकई आश्चर्यजनक है। स्टोन की बायो-कैमिस्ट्री काफी महत्वपूर्ण है, इसलिए इस पर गहन जांच करना जरूरी है।

उपचार में भी सहायक

पूना के डाॅ. अली असगर के गिल्टवाला ने हाबूर के पत्थर से कई रोगों का सफल उपचार भी किया है। उनका मानना है कि इस पत्थर में ऐसे कई रासायनिक गुण विद्यमान हैं, जिससे कमजोरी, ब्लडप्रेशर, हार्ड ट्रबल, कूकर खांसी, डायबिटिज, मस्क्यूलर पेन व एड्स जैसे रोगों के उपचार में सहायता मिलती है। हाबूर पत्थर के विशेषज्ञ बृजरतन ओझा बाबा महाराज ने बताया कि डाॅ. अली असगर की सलाह के बाद उन्होंने डायबिटिज के उपचार में इस पत्थर का उपयोग किया है, जिससे उन्हें काफी राहत मिली है। डाॅ. अली असगर के अनुसार चर्म स्पर्श, बाॅल से एक्सरसाइज, एक्यूप्रेषर पेंसिल से इलाज और मसाज करने से विभिन्न रोगों में इसका फायदा होता है।

वास्तुशास्त्र में है महत्वपूर्ण

बाबा महाराज ने बताया कि सैलाणागढ़ मध्यप्रदेश के महाराजा विक्रमसिंह इस पत्थर को वास्तुशास्त्र की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते हैं। इस पत्थर से व्यापार में उतार-चढ़ाव दूर करने और संपन्नता के लिए पूजा-अर्चना भी की जाती है।

अब खत्म हो रहे हैं पत्थर


हाबूर के इन छींटदार पत्थरों को अंधाधुंध दोहन होने से ये सिमट रहे हैं। गौरतलब है कि ये पत्थर केवल हाबूर गांव में ही मिलते हैं, इसके अलावा दुनिया में ये कहीं नहीं पाए जाते। इन पत्थरों का असंयमित दोहन होने से इनकी खाने अब कम ही रह गई है। यह पत्थर इतिहास की धरोहर है, लेकिन इस बचाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किए जा रहे। इतिहासकार नंदकिशोर शर्मा का कहना है कि इस पत्थर को बचाने की जरूरत है। लोग व्यापारिक उपयोग कर रहे हैं।

विदेशियों को लुभाते हैं पत्थर के आइटम

हाबूर के इस पत्थर के कई आइटम बनाए जाते हैं, जिसे विदेशी सैलानी खूब पसंद करते हैं। विदेशी सैलानी भ्रमण के बाद जब अपने देश लौटते हैं तो जाते समय यादगार के रूप में हाबूर के इस पत्थर से बने विभिन्न आइटम अपने साथ ले जाते हैं।

Saturday, 16 November 2013

दस साल में छीतर और गोल्डन पत्थरों का हो जाएगा संकट

-जोधपुर के छीतर और जैसलमेर के गोल्डन पत्थरों का अंधाधुंध दोहन होने से इनकी कमी महसूस की जा रही है। आने वाले एक दशक में ये पत्थर कम हो जाएंगे और फिर इन पत्थरों का संकट खड़ा हो जाएगा। विशेषज्ञों का मानना है कि इनका दोहन संतुलित हो और नई खदानों की तलाश की जाए और पत्थरों का विकल्प तलाशा जाए...

-डी.के. पुरोहित-

जोधपुर.जैसलमेर। दुनिया भर में प्रसिद्ध जोधपुर का छीतर का पत्थर और जैसलमेर का गोल्डन पत्थर वर्षों से दोहन होने की वजह से अब सिमट रहा है। इसी तरह खनन होता गया तो आने वाले दस साल में इन पत्थरों का संकट खड़ा हो जाएगा।

प्रकृति में हर चीज संतुलित है। उसकी अपनी मात्रा है। ऐसे में अंधाधुंध दोहन से छीतर और गोल्डन पत्थरों का संकट खड़ा हो गया है। पिछले तीन दशक में इन पत्थरों की खदानें खत्म ही हो गई है। प्रकृति की अद्भुत दैन ये पत्थर अब सीमित मात्रा में रह गए हैं। पत्थरों का निर्माण होने में शताब्दियां लग जाती है और उसके खनन में चंद घंटे लगते हैं। ऐसे में रीप्रोडक्शन तो हो नहीं पाता और अब हालत यह है कि जोधपर व जैसलमेर जैसे शहरों में आस-पास के क्षेत्र की खदाने तो खत्म हो गई है। अब भी हम चेते नहीं हैं और पत्थरों का बड़ी मात्रा में दोहन किया जा रहा है। भविष्य की ओर हमारा ध्यान नहीं जा रहा है। यही हालात रहे तो फिर इन पत्थरों की कमी पूरी कैसे होगी, इसके जवाब अभी से तलाशने होंगे।

आठ सौ साल से हो रहा है दोहन

जोधपुर और जैसलमेर में करीब आठ सौ साल से इन पत्थरों का दोहन हो रहा है। निरंतर दोहन से खाने प्रायः खत्म ही हो गई है। जोधपुर के मेहरानगढ़ में और जैसलमेर के सोनार किले में पत्थरों का खूब इस्तेमाल हुआ है। साथ ही दोनों शहरों में कई दर्शनीय इमारतें बनी हुई है, जिनमें इन पत्थरों का जमकर उपयोग किया गया है। तब से लेकर अब तक निरंतर दोहन से खानें सिमट गई है। अब अगले दस साल तक ही इन पत्थरों का दोहन हो सकेगा। खींचतान के बीस साल। इसके बाद तो छीतर और गोल्डन पत्थर मिलने दूभर हो जाएंगे।

विदेशों में भी जाता है छीतर और गोल्डन पत्थर

जोधपुर का छीतर और जैसलमेर का पीला यानी गोल्डन पत्थर देश के विभिन्न कोनों में तो जाता है ही, साथ ही विदेशों में भी जाता है। इंग्लैंड, अमेरिका, सिंगापुर, हांगकांग और इटली जैसे कई देशों में दोनो शहरों के पत्थरों की खूब डिमांड है। इस डिमांड को पूरी की जाने से बड़ी मात्रा में राजस्व की प्राप्ति तो होती है, साथ ही पत्थरों की स्थानीय स्तर पर भी कमी हो सकती है। अब समय आ गया है कि छीतर और गोल्डन पत्थर के विकल्प तलाशें जाएं।

दस प्रतिशत रह गई हैं खाने

जोधपुर और जैसलमेर में अब एक अनुमान के अनुसार दस प्रतिशत ही खदानें रह गई हैं। इन खदानों में भी पत्थरों का उत्पादन कम हो रहा है। सरकार की नित्य-नई बदलती खदान नीति भी हालात को नियंत्रित नहीं कर पा रही है। सरकार को इस दिशा में सोचना होगा। एक रास्ता यह है कि अब ईंटों के उपयोग पर जोर देना होगा। ठेकेदार ओमप्रकाश चौधरी ने बताया कि जैसलमेर व जोधपुर शैली के मकान बनाने में लोगों की होड़ मची हुई है। अब भी जैसलमेर में प्राचीन वास्तु-शिल्प शैली में मकान बन रहे हैं। कलात्मक इमारतों में जैसलमेर का पत्थर बड़ी तादाद में लगता है, जिससे इसके उत्पादन पर भी असर पड़ता है। आवश्यकता इस बात की है कि अब ईंटों का उपयोग बढ़ाना होगा।

अत्यधिक खनन से बन गए भूकंप जोन

डाॅ. जेके पुरोहित ने बताया कि अत्यधिक खनन से जोधपुर व जैसलमेर भूकंप जोन बन गए हैं। अगर इसी तरह खनन होता रहा तो धरती का संतुलन बिगड़ जाएगा और आए साल भूकंप आएंगे, जिससे अत्यधिक नुकसान हो सकता है। अब आवश्यकता इस बात की है कि खनन कम से कम हो। अत्यधिक जरूरत होने पर ही खनन किया जाए।

बजरी की तरह छीतर व गोल्डन पत्थर पर भी रोक लगाएं

विशेषज्ञ डाॅ. जेके पुरोहित ने बताया कि जिस तरह न्यायालय ने बजरी के खनने पर रोक लगाई थी, उसी तरह छीतर व गोल्डन पत्थरों के दोहन पर भी रोक लगाएं। ऐसा करके ही दोनों बेशकीमती पत्थरों को बचाया जा सकता है। छीतर और गोल्डन पत्थर दुनिया की धरोहर है। अगर इसे नहीं बचाया जा सका तो शहरों की मौलिकता खतरे में पड़ जाएगी। इसलिए समय रहते जागने की जरूरत है। अभी भी हमारी आंख नहीं खुली तो कल पछताना पड़ सकता है।

गोल्डन पत्थर पर होती है बारीक नक्काशी

जैसलमेर का विश्व प्रसिद्ध गोल्डन पत्थर शिल्प-स्थापत्य व नक्काशी की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस पत्थर इतनी बारीक नक्काशी की जा सकती है जो कागज पर भी संभव नहीं है। जैसलमेर भ्रमण पर आने वाले देशी‌-विदेशी सैलानी बारीक नक्काशी को देखकर अभिभूत हो जाते हैं। उन्हें आश्चर्य होता है कि इन पत्थरों में प्राण कैसे भर दिए। जैसलमेर के नक्काशी वाले बेलबूटेदार पत्थर बोलते नजर आते हैं । राजस्थानी के कवि श्याम सुंदर श्रीपत ने तो अपनी कविता में कह दिया-पाषाणों में भर दिया प्राण, अनूठा शिल्प है, यही है मेरे शहर की विशेषता...।

... और अब जागरूकता की जरूरत

इन पत्थरों को बचाना है। हमारी धरोहर को बचाना है। हमारे परिदृश्य को बचाना है। ...तो जरूरत है जागरूकता की। जागरूक होकर ही इन पत्थरों का दोहन रोका जा सकता है। यही रवैया रहा तो छीतर और गोल्डन के पत्थर आगे उपलब्ध नहीं हो पाएंगे और हमारी धरोहर को खतरा पहुंच जाएगा। पत्थरों की मात्रा सीमित है। नए पत्थर बनने में युगों लग जाते हैं, मगर इसका इसी तरह दोहन संकट की ओर संकेत कर रहा है। तो अब जाग जाएं...मकान बनाएं, लेकिन जैसलमेर और जोधपुर के पत्थरों का विकल्प तलाशा जाए। ईंटों का उपयोग करके भी हम हमारी धरोहर के संरक्षण में सहयोग कर सकते हैं।

Friday, 15 November 2013

श्मशानों में भी बिखरा है सौंदर्य

-जैसलमेर। दुनिया की आंखों का तारा। यहां लोग घूमने आते हैं। उन्हें घूमते-घूमते पता ही नहीं चलता कि जिन छतरियों के वे फोटो खींच रहे हैं वे श्मशान हैं...

-डी.के. पुरोहित-

जैसलमेर।
विश्व विख्यात सोनार नगरी में पग-पग पर सौंदर्य है। यहां तक कि श्मशानों में भी सौंदर्य बिखरा हुआ है। देश-विदेश के सैलानियों को यहां की छतरियां खूब लुभाती है। हिंदू व मुस्लिम शैली में बनी छतरियों का आकर्षण देखते ही बनता है। राजे-महाराजाओं के समय से यहां छतरियां बन रही हैं। जब भी राजपरिवार में किसी की मृत्यु होती थी तो उसका अंतिम संस्कार कर वहां पर छतरी बना दी जाती थी। यह सिलसिला आज भी चल रहा है। जैसलमेर से सात किलोमीटर दूर बड़ाबाग की छतरियां दुनिया भर में पहचान रखती है। इनके शिल्प-स्थापत्य ने सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित किया है।

ये छतरियां तो श्मशान स्थल पर बनी हुई है ही, आम लोगों के श्मशानों में भी छतरियों के रूप में सौंदर्य बिखरा हुआ है। जैसलमेर में बड़ाबाग रोड पर ही व्यास श्मशान घाट है। यहां ब्राह्मण समाज के लोगों का मरने के बाद दाह संस्कार किया जाता है। इस जगह पर कई छतरियां बनी हुई है। ये छतरियां पर्यटकों को खूब लुभाती है। इन दिनों यहां विदेशी सैलानियों को फोटो खींचते देखा जा सकता है। पर्यटक घूमते-घूमते श्मशानों तक जा पहुंचते हैं। जब गाइड उन्हें बताते हैं कि जहां वे खड़े हैं वे श्मशानभूमि है, जो उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रहती। अकस्मात उनके मुंह से निकलता है-ओह! ऐसा भी होता है, यहां!

बड़ाबाग की छतरियां ध्वस्त हो रही है

इधर, रखरखाव के अभाव में बड़ाबाग में राजे-महाराजे काल की छतरियां ध्वस्त हो रही है। यहां पर राज परिवार की ओर से पिछले कुछ वर्षों से पर्यटकों से शुल्क वसूला जाता है। शुल्क वसूलने के बावजूद इन छतरियों की मरम्मत नहीं की गई है। राज-परिवार की यह निजी संपत्ति है। जब सैलानी यहां भ्रमण के लिए आते हैं और टूटी छतरियां देखने को मिलती है तो उन्हें दुख होता है। इंग्लैंड के पीटर एनक ने बताया कि ये छतरियां बहुत ही सुंदर है। आकर्षक है। इनका शिल्प-स्थापत्य काफी समृद्ध है। लेकिन इसकी मरम्मत नहीं की जा रही है, यह जानकर दुख होता है।

शादी के बाद धोक देने आते हैं कपल

नई-नई शादी होने के बाद विवाहित कपल यहां धोक देने आते हैं। यह परंपरा वर्षों से चल रही है। यहां पर राजे-महाराजाओं की छतरियों पर धोक देने के साथ ही क्षेत्रपाल मंदिर में जात देते हैं। इसका सांस्कृतिक दृष्टि से भी बड़ा महत्व है।

व्यास छतरियों पर रखरखाव हुआ है

जैसलमेर में व्यास छतरियों में पिछले कुछ वर्षों में रखरखाव हुआ है। इसका सैलानी बखान करते नहीं थकते। सैलानियों को जब यहां छतरियों के संरक्षण व विकास कार्य की जानकारी गाइड देते हैं तो वे खुश होते हैं, साथ ही बड़ाबाग की छतरियों की तरफ ध्यान नहीं देने पर उन्हें कोफ्त भी होती है।

जैन दादावाड़ियों भी शिल्प-स्थापत्य की विरासत है

जैसलमेर में एक ओर श्मशानों में सौंदर्य बिखरा हुआ है, वहीं जैन दादावाड़ियों में भी शिल्प-वैभव सराहनीय है। देदानसर रोड, गड़सीसर, गजरूप सागर मार्ग और शहर के चारों ओर जैन दादावाड़ियां बनी हुई हैं। ये भी परंपरागत रूप से बनाई गई है। ये दादावाड़ियां कलात्मक हैं और सैलानियों को खूब भाती है। घंटों तक इन दादावाड़ियों में सैलानी टहलते रहते हैं और फोटो खींचते हैं। हालत यह है कि इनकी शिल्प-शैली जैन मंदिरों की तरह होने से सैलानी यहां वीडियोग्राफी भी करते हैं।

फिल्मी शूटिंग भी होती है

इन छतरियों व दादावाड़ियों में फिल्मों की शूटिंग भी होती है। कई फिल्मों में ये छतरियां दिखाई गई है। पुरानी फिल्मों के साथ ही आधुनिक फिल्मों के डायरेक्टरों को भी यहां की लोकेशन लुभाती है। बड़ाबाग की छतरियां और व्यास छतरियां तो कई फिल्मों को हिट कर चुकी है।

गांवों में छतरियां टूट-फूट रहीं हैं

जैसलमेर शहर के साथ ही कई गांवों में भी छतरियां बनी हुई है। इतिहासकार नंदकिशोर शर्मा ने बताया कि गांवों में बनी छतरियां अब जर्जर हो रही है। लोग इनके पत्थर निकाल कर ले गए। अब ढांचें बचे हुए हैं। यदि इनका संरक्षण नहीं किया गया तो यह विरासत यूं ही खत्म हो जाएगी। शर्मा ने इन छतरियों पर खूब शोध कार्य किया है और अपनी पुस्तकों में इनका हवाला भी दिया है। शर्मा ने कई बार प्रशासन से इन छतरियों को बचाने का आग्रह भी किया, लेकिन अभी तक इस दिशा में ठोस पहल नहीं हुई। केंद्रीय संस्कृति मंत्री चंद्रेश कुमारी ने पिछले दिनों कहा था कि इन छतरियों को बचाने की जरूरत है। उनका मानना है कि इस वैभव को बचा कर हम अपनी संस्कृति का संरक्षण कर सकते हैं।

Thursday, 14 November 2013

सुर सम्राट को ‘डूम’ कहकर करते हैं अपमानित

-बाहर तो यश ज्योत जल रही, घर में अमावास अंधियारी...मिरासी और मांगणियार कलाकार को विदेशों में तो खूब सम्मान मिला लेकिन अपने ही घर में लोग उन्हें ‘डूम’ कहकर संबोधित करते हैं, डूम का आशय है-पशु समान, ऐसे शब्दों से अपमानित होने वाले कलाकार अपने ही घर में हैं डरे-सहमे....

-डी.के. पुरोहित

बाड़मेर। आजादी के 65 साल बाद भी पश्चिमी राजस्थान के मरुस्थलीय सीमावर्ती बाड़मेर व जैसलमेर जिले में मिरासी जाति के कलाकार उपेक्षित हैं। उन्हें देश-विदेश में लोक संगीत के क्षेत्र में बेशक सम्मान मिला लेकिन अपने ही घर में लोग उन्हें ‘डूम’ जैसे शब्दों से अपमानित करते हैं। ‘डूम’ से आशय है पशु समान।

विदेशों में लोक संगीत की धूम मचाने वाले मिरासी कलाकारों को खूब सम्मान मिला, लेकिन घर से बाहर। अपने ही घर में उन्हें डूम और डूमड़ा जैसे शब्दों से अपमानित किया जा रहा है। दीवान सालिमसिंह उपन्यास से चर्चित हुए साहित्यकार ओमप्रकाश भाटिया ने इस मुद्दे को अपने नाटक ‘डूम’ में उठाया था। इस नाटक के माध्यम से इस समस्या को भाटिया ने बेहतर ढंग से उठाया।

रियासतकाल से चली आ रही है परंपरा

इन कलाकारों को ‘डूम’ जैसे शब्दों से अपमानित करना रियासत काल से चला आ रहा है। सामंतशाही के दौरान इन कलाकारों को अपमान का घूंट पीना पड़ता था, मगर आजादी के बाद भी उनकी स्थिति में बदलाव नहीं आया। हालत यह है कि उन्हें लोग सम्मान नहीं देते। एक समय था जब राज परिवार में या जागीरदारों के घरों में कोई कार्यक्रम होता था, मांगणियार कलाकारों को बुलाया जाता था। बदले में उन्हें कुछ मुद्राएं या वस्तु दी जाती थी, उसी से इन कलाकारों का गुजारा चलता था। आजादी मिली तो लगा कि अब इनका जीवन स्तर उठेगा और बदलाव आएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आज भी इन्हें अपमान का घूंट पीना पड़ रहा है।

अपने बच्चों को लोक संगीत नहीं सिखाते

हालत यह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही लोक संगीत की परंपरा अब ये लोक कलाकार अपने बच्चों को नहीं सिखाना चाहते। मिरासी कलाकार चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़े लिखे और बड़े पदों पर पहुंचे। लेकिन उनकी इच्छा भी पूरी होना आसान नहीं हैं, क्यों कि उन्हें अपने घर में खास तवज्जो नहीं मिलती। जैसे तैसे गुजारा करते हैं। विदेशों में इक्का-दुक्का कार्यक्रम मिलते हैं, इसमें भी बिचैलिए पैसे खा जाते हैं, जिससे कलाकारों के हाथ मोटी रकम नहीं आ पाती। ऐसे में बच्चों को पढ़ाना आसान नहीं हैं।

मजबूरी में बच्चे भी गौरों को रिझाते हैं

इन कलाकारों के पास इतने पैसे नहीं है कि अपने बच्चों को अच्छी तालीम दे सके। मजबूरन बच्चे भी हाथ में वाद्ययंत्र लिए गोरों और अन्य सैलानियों को रिझाने के लिए सोनार किले, पटुओं की हवेली, गड़सीसर लेक और अन्य पर्यटन स्थलों पर संगीत प्रस्तुत करते रहते हैं, इससे जो मिल जाता है, उससे ही घरखर्च में सहारा मिलता है।

होटलों में यदा-कदा मौका मिलता है

इन कलाकारों को होटलों में यदा-कदा कार्यक्रम प्रस्तुत करने का मौका मिलता है। लेकिन नाचने वाली महिलाओं को अब होटल वाले बुलाते हैं, जिससे कला का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। एक कलाकार ने बताया कि नाचने वाली और गणिकाएं जब से होटलों में कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगी है, कला की उपेक्षा हो रही है। जब महिलाएं होटलों में नाच-गान कर रही हैं तो संभ्रांत कलाकार इस पैसे से किनारा करने लगे हैं।

पर्व व मेलों में भी हो रही अनदेखी

मिरासी कलाकारों की पंद्रह अगस्त व छब्बीस जनवरी पर या मरु मेले पर ही पूछ होती है। लेकिन अब इन मेलों में भी बाहर से कलाकार बुलाए जा रहे हैं, जिससे इनको रहा-सहा सहारा भी खत्म होता नजर आ रहा है। पहले मरु मेले पर जैसलमेर में मिरासी कलाकारों को अच्छा पैसा मिलता था, लेकिन टूरिज्म विभाग ने भी अब बाहर से पेशेवर कलाकारों को बुलाना शुरू कर दिया है, जिससे अपने घर में भी इनकी पूछ कम होती जा रही है।

टूरिज्म विभाग ने भी नहीं ली सुध

इन कलाकारों का जीवन स्तर बढ़ाने के लिए टूरिज्म विभाग ने भी खास प्रयास नहीं किए। पूर्व कलेक्टर ललित के पंवार ने मिरासी कलाकारों को नि:शुल्क प्लाॅट देकर आसरा उपलब्ध करवाया था, लेकिन उनके बाद किसी कलेक्टर ने इन कलाकारों की जिंदगी में झांकने का प्रयास नहीं किया। ऐसे में इन कलाकारों ने जरूर पड़ने पर अपने प्लाॅट ओने-पोने दामों में बेच दिया।

Wednesday, 13 November 2013

सुनहरे शहर की मौलिक पहचान खतरे में

-सोने जैसे चमकने वाले पीले पत्थर देशी-विदेशी सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, यही शहर की मौलिक पहचान है, मगर लोग दीवारों और घरों पर तरह-तरह के रंग-रोगन कर इसकी पहचान खत्म कर रहे हैं, दीवारों पर तरह-तरह के रंग-रोगन किए जा रहे हैं और नारे लिखे जा रहे हैं, इस तरह पीले पत्थर की आभा खत्म हो रही है

-डी.के. पुरोहित-

दुनिया के नक्शे में गोल्डन सिटी, स्वर्णनगरी व सुनहरे शहर के रूप में प्रसिद्ध जैसलमेर की मौलिक पहचान खतरे में है। सात समंदर पार से और देश के कोने-कोने से जिस सुनहरे शहर को देखने पर्यटक यहां आते हैं उनके लिए यह निराशा भरी स्थिति है। यहां के लोग अब शहर की मौलिक पहचान मिटाने पर आमादा है।

हालत यह है कि स्थानीय लोग अब शहर के पीले और सुनहरे रंग को हटा कर यहां पत्थरों पर कृत्रिम रंगों का उपयोग कर इसकी आरिजनलिटी को नुकसान पहुंचा रहे हैं। वर्षों पहले जब विख्यात साहित्यकार अज्ञेय यहां आए थे तो उन्होंने तत्कालीन कलेक्टर को चेताया था कि इस शहर की मौलिक पहचान को खतरा न हो, इसके प्रबंध किए जाए। यही बात लता मंगेषकर, चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन और श्रीलंका की राष्ट्रपति भी कह चुकी है, मगर अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई।

विदेशी सामाजिक कार्यकर्ता सू कारपेंटर भी इस सुनहरे शहर की मौलिक पहचान को लेकर चिंतित रही है। अपने जैसलमेर प्रवास के दौरान उन्होंने किले के लोगों से मार्मिक अपील भी की थी और कहा था कि प्लीज इस शहर की मौलिकता को खतरा न पहुंचाएं। मगर ये सब बातें बातों-बातों में हवा हो गई। स्थिति यह है कि चाहे सोनार किले की दीवारें हों, चाहे पटुवा हवेली की पोल हो, सालिमसिंह, नथमल और आस-पास के पर्यटन स्थलों पर नारे, चित्र और अभद्रता भरे शब्द अंकित किए जा रहे हैं। पोस्टरों से दीवारें अटने लगी है। आज से कुछ वर्ष पहले जैसलमेर के कलेक्टर निरंजन आर्य ने अपने कार्यकाल में इस दिशा में कार्रवाई की थी, मगर उनके यहां से स्थानांतरण होने के बाद स्थिति फिर जस की तस रह गई।

वर्तमान जिला कलेक्टर एन.एल. मीणा इस दिशा में बिलकुल ही चिंतित नहीं हैं। उन्हें न तो जैसलेर के पर्यटन से मतलब है और न ही शहर की मौलिकता को बचाने के लिए कदम उठाए। अपने अब तक के कार्यकाल में उन्होंने पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए कोई खास प्रयास नहीं किए। कलेक्टर के सामने लोंग टाइम टूरिज्म को बढ़ावा देने की चुनौती है, मगर वे कोई जलवा नहीं दिखा पाए। लोग उनसे अपेक्षाएं रख रहे हैं, मगर उनकी तंद्रा नहीं जाग रही। शहर में जगह-जगह लोग घरों की दीवारों को भांति-भांति के रंगों और आयल पेंट से पौत रहे हैं, मगर उन्हें रोकने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। जन जागृति बगैर पर्यटन को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। यहां के लोग भी मौलिकता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।

राजस्थानी के विख्यात कवि स्व. श्यामसुंदर श्रीपत का एक दोहा है-"सूरज पूछे सारथी, भू पर किसड़ो भांण। जूंझारो जदुवंष रो, चमके गढ़ जैसांण।।"...यानि सूरज अपने सारथी से पूछता है कि यह धरती पर दूसरा सूरज कहां से आया? तब सारथी कहता है कि यह यदुवंषियों द्वारा निर्मित जैसलमेर का किला है, जो चमक रहा है।...जब सूरज की किरणें इस किले पर पड़ती है तो किला सोने जैसा चमकने लगता है और ऐसा लगता है जैसे धरती पर कोई दूसरा सूरज दस्तक दे चुका है। श्यामसुंदर श्रीपत ने सोनार किले और जैसलमेर के गोल्डन पत्थरों पर काफी लिखा है। श्रीपत के दोहों का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

ऐसे में तो कौन आएगा जैसलमेर देखने

अगर जैसलमेर के पीले यानी गोल्डन स्वरूप को नहीं बचाया जा सका तो फिर इसे कौन गोल्डन सिटी कहेगा? सात समंदर पार से आने वाले सैलानी गोल्डन पत्थरों को देखकर अभिभूत हो जाते हैं। काबिले गौर बात यह है कि इस प्रकार के पत्थर जैसलमेर के अलावा दुनिया में कहीं नहीं हैं, मगर इस ओर अभी तक चिंतन नहीं किया गया। कलेक्टर और अधिकारियों से ही बात नहीं बनेगी, यहां के चिंतकों और समाजसेवियों को भी इस दिशा में कदम उठाने होंगे।

वादे हैं वादों का क्या

जैसलमेर को बचाने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत, अशोक गहलोत व वसुंधरा राजे ने कई वादे किए, मगर वादे तो वादे होते हैं। अशोक गहलोत दो बार मुख्यमंत्री बने मगर उन्होंने भी जैसलमेर के लोंगटर्म टूरिज्म को देखते हुए जैसलमेर की मौलिकता को बचाने के दिशा में प्रयास नहीं किए। वे कई बार जैसलमेर आए हैं, मगर मजाल है जो उनका ध्यान इस ओर गया हो। कई बार पत्रकारों ने उनका ध्यान भी आकर्षित किया, मगर उन्होंने अपने पद का अहं दिखाते हुए उन्हें चुप करा दिया। जनसत्ता के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने भी जैसलमेर की मूल पहचान बनाए रखने की आवश्यकता जताई थी। उन्होंने भी लोगों की अनदेखी पर चिंता जताई थी। लेकिन न तो नौकरशाही, न ही नेता और न ही जनता, सभी अपनी-अपनी ढपली-अपना राग अलाप रहे हैं, ऐसे में गोल्डन सिटी के मौलिक स्वरूप को कौन बचाएगा, यह चिंता और सवाल है और अभी तक अनुत्तरित है। स्थिति यह है कि जैसलमेर के बाहर के लोग जैसलमेर के लिए चिंतित हैं, मगर खुद जैसलमेर के लोग इस दिशा में जागरूकता नहीं दिखा रहे हैं। उनकी अनदेखी की वजह से ही जैसलमेर के पर्यटन के लिए खतरा बढ़ रहा है।

सैलानियों की भी यही चिंता है

ब्रिटेन निवासी इली ले बताया कि जैसलमेर को लोग गोल्डन सिटी कहते हैं। इसका कारण इसके सोने जैसे चमकने वाले पीले पत्थर हैं, लेकिन यहां के लोग मूर्खता कर रहे हैं, वे अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार रहे हैं। जब कुदरत ने इतना अच्छा रंग दिया है फिर वे दूसरे रंगों से इसे बदरंग क्यों कर रहे हैं, यह समझ से परे है। चित्रकार गगन बिहारी दाधीच अक्सर कहा करते थे कि पिंक सिटी की पहचान जिस तरह मिटाई जा रही है, उसी तरह गोल्डन सिटी की पहचान भी खतरे में है। प्रकृति का अनुपम उपहार गोल्डन कलर निराला है, अब दूसरे रंगों की क्या जरूरत है। विख्यात पत्रकार आलोक मेहता कुछ वर्ष पहले जैसलमेर आए थे तो उन्होंने भी इस दिशा में अपनी चिंता व्यक्त की थी। इंग्लैंड की मार्या का कहना है कि गोल्डन सिटी को अपनी पहचान नहीं खोनी चाहिए।

अब तो जागो

इंतिहासकार और सांस्कृतिक कार्यकर्ता नंदकिशोर शर्मा का कहना है कि अब तो जैसलमेर के लोगों को जागना ही होगा। बहुत सो लिए। बहुत कुछ खो दिया। यही रवैया रहा तो जैसलमेर से सैलानी रूठ जाएंगे। जिस पर्यटन की वजह से जैसलमेर का विकास हुआ है, अगर इसकी मूल आभा नहीं बचाई जा सकी तो सैलानी यहां क्यों आएंगे? उन्होंने प्रशासनिक बैठकों में कई बार इस मुद्दे को भी उठाया, लेकिन मुद्दे तो उठाए जाने के लिए होते हैं, कार्य करने के लिए नहीं। शायद यही वजह है कि प्रशासन मौन है।




Tuesday, 12 November 2013

सिमटते धोरों से जैसलमेर में लोंगटर्म टूरिज्म खतरे में

-विश्व विख्यात जैसलमेर यानि गोल्डन सिटी में सोने से चमकने वाले मखमली धोरे सिमटते जा रहे हैं, सम और खुहड़ी में रेतीले-सर्पिले इसी तरह घटते रहे तो लोंगटर्म टूरिज्म खतरे में हो सकता है

-डी.के. पुरोहित-

जैसलमेर । जैसलमेर अब पहले जैसा नहीं रहा । पसरती आधुनिकता और विकास के पंख लगे तो रेतीले धोरे ही खत्म हो रहे हैं । एक समय था जब जैसलमेर के आस-पास ही धोरे थे, विदेषी सैलानी कैमल सफारी का लुत्फ उठाते थे । समय के साथ आस-पास के धोरों पर सड़कें और मकान बन गए । धोरे सिमटे तो देशी- विदेशी सैलानियों ने सम और खुहड़ी की ओर रुख किया । लेकिन अब तो सम ओर खुहड़ी में भी धोरे सिमटते जा रहे हैं, यही स्थिति रही तो जैसलमेर से पर्यटक पलायन भी कर सकते हैं ।

जैसलमेर से 40 किलोमीटर दूर सम स्थित है । यहां पर रेतीले धोरे परंपरागत रूप से पर्यटकों को लुभाते रहे हैं । यहां सितंबर से फरवरी माह तक जब मौसम ठंडा रहता है तो पर्यटकों की धूम रहती है। खासकर विदेषी सैलानियों को धोरों में कैमल सफारी करना खूब भाता है। लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं रही। यहां धोरे कम और होटलें और रिसोर्ट अधिक हो गए हैं। कैमल सफारी का आनंद भी पहले जैसा नहीं रहा । इसका विकल्प खुहड़ी बना । लेकिन यहां भी अब सम जैसे हालात हो रहे हैं । यानी कि धोरे सिमट रहे हैं ।

विकास और पर्यटन परस्पर विरोधाभाषी बने

जैसलमेर में टूरिज्म का रिश्ता करीब तीस साल से रहा है । तब जैसलमेर में धोरे खूब होते थे । सैलानी भी खूब आते थे । समय बदला । अब धोरे नहीं सड़कों का जाल बिछ गया है । बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें बन गई हैं । ऐसे में जबकि धोरे सिमट रहे हैं तो सैलानियों को भी यहां शांत वातावरण नहीं मिल पाता । इंग्लैंड के पीटर रोमान ने बताया कि वे जैसलमेर घूमने इसलिए नहीं आते कि यहां गोल्डन फोर्ट है । मैं यहां की पीस यानी शांति की वजह से यहां आता हूं । यहां मुझे सुकून मिलता है । लेकिन यही सुकून विकास ने छीन लिया है । अब यहां की आबोहवा में भी प्रदूषण का घुन लग गया है ।

सम व खुहड़ी के धोरे गंदे हो रहे हैं

एक तरफ धोरे खत्म होते जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर खतरा और भी है । यहां के धोरे अब गंदे होते जा रहे हैं । यहां पर सैलानी खाने-पीने की वस्तुएं, पॉलीथिन, पानी की बोतलें आदि फेंक देते हैं । ऐसे में ये धोरे गंदे होते जा रहे हैं । यही हाल रहे तो धोरे गंदे होकर पर्यटकों का मोह भंग कर देंगे । सोने जैसे चमकने वाले धोरे काले-मटमेले रंग के हो रहे हैं । ऐसे में सैलानियों को सुकून देने वाला नजारा देखने को नहीं मिलेगा ।

आईएएस डॉ.के.के. पाठक ने चिंता जताई थी

जैसलमेर में कलेक्टर रह चुके डॉ. के.के. पाठक ने यह मुद्दा उठाया था । उन्होंने इस दिशा में प्रयास भी किए । सम और खुहड़ी में समिति बनाकर सैलानियों से शुल्क वसूलना शुरू हुआ, लेकिन एक दशक में कितनी राशि एकत्रित हुई और कितना धोरों पर खर्च हुआ, इसका पुख्ता जवाब प्रशासन के पास नहीं है । पाठक के स्थानांतरण के बाद यह विषय चिंता का नहीं रहा ।

हाइट घटती रही, धोरे सिमटते रहे

तीन द्शक में सम में धोरे न केवल सिमटते रहे बल्कि इनकी हाइट भी घटती रही । ऐसे में कैमल सफारी का आनंद घटता रहा । जैसलमेर में गर्मियों में अक्सर आंधियां चलती हैं, ऐसे में धोरे भी बिखरते रहे और उनका आकर्षण भी खत्म होता रहा है ।

धोरे बचाकर ही पर्यटन बचाया जा सकता है

सम और खुहड़ी के धोरों में कैमल सफारी और सूर्यास्त का नजारा देखना सैलानियों को सुखद लगता रहा है । अब हमारी जिम्मेदारी है कि इन्हें बचाएं । धोरे बचाकर ही लोंगटर्म टूरिज्म को बचाया जा सकता है । सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रप्रकाश व्यास का कहना है कि जैसलमेर विकास समिति के माध्यम से इस दिशा में प्रयास किया जाएगा।


Monday, 11 November 2013

अनदेखी से खत्म हो रहा है लोक साहित्य: बिज्जी

-विजयदान देथा-बिज्जी अब नहीं रहे। उनके निधन से लोक साहित्य के चितेरे का एक युग खत्म हो गया। लोककथाओं का जादूगर नहीं रहा, मगर उनका लोक साहित्य हमें प्रेरणा देता रहेगा । आज से करीब सात-आठ साल पहले जैसलमेर की होटल नारायण निवास में लोक साहित्य से संबंधित एक साहित्यिक आयोजन में इस संवाददाता ने बिज्जी से करीब एक घंटे तक बातचीत की । उनसे लिया साक्षात्कार पाठकों के लिए प्रस्तुत है ।

-डी.के. पुरोहित-

वर्ल्ड स्ट्रीट: साहित्यकार कमलेश्वर का आज निधन हो गया, मगर आपके कार्यक्रम में उन्हें श्रद्धांजलि तक नहीं दी गई ? आखिर यह चूक कैसे हो गई ?

बिज्जी: यह चूक बहुत बड़ी है । कमलेश्वर हम सभी के लिए आदरणीय और सम्मानित हैं । उनका जाना वाकई साहित्य को क्षति है । कल के सत्र में उन्हें हम सब श्रद्धांजलि देंगे ।

वर्ल्ड स्ट्रीट: लोक साहित्य खत्म हो रहा है, क्या कारण है ?

बिज्जी: लोक साहित्य तो खूब बिखरा हुआ है, मगर उसकी लोक जीवन में अनदेखी की वजह से वह खत्म होता जा रहा है । युवा पीढ़ी को लोक साहित्य में रुचि नहीं है, लोक साहित्य को समृद्ध करने से ही साहित्य का सागर भरा रह सकता है । युवा पीढ़ी को लोक साहित्य की तरफ लौटना होगा । हमारी पीढ़ी के साहित्यकार भी लोक साहित्य को कमतर आंकते रहे हैं, जिसकी वजह से वह लगातार परिदृश्य से गायब ही हो रहा है ।

वर्ल्ड स्ट्रीट: राजस्थान में तो लोक साहित्य समृद्ध रहा है, फिर भी गिने चुने साहित्यकार ही आगे आ पाए ?

बिज्जी: देखिए, लोक साहित्य हमारे जीवन का अहम हिस्सा रहा है । राजस्थान ही नहीं हर प्रदेश में लोक साहित्य की अहमियत रही है। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी लोक साहित्य की अंगुली पकड़कर ही बच्चों को सिखाते रहे हैं । लोक साहित्य हमारे मानसिक विकास की आधारशिला रही है, लेकिन कई साहित्यकार इसे बोरिंग सबजेक्ट मानते हैं । वे सोचते हैं लोक साहित्य से पहचान नहीं मिल सकती । लेकिन मैंने कभी लोक साहित्य से अपने को अलग नहीं माना । यही कारण है कि लोगों का खूब प्यार मिला ।

वर्ल्ड स्ट्रीट: आपकी कहानियों पर फिल्में बनी, क्या फिल्मों में साहित्य के साथ न्याय हो पाता है ?

बिज्जी: फिल्में दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई जाती है । साहित्यिक कहानियों पर बनी फिल्में अच्छा प्रयास है, मगर इसमें कई बार कुछ प्रसंग अनावश्यक जोड़ देने से मूल कृति विस्मृत कर दी जाती है । जो मूल कहानी नहीं पढ़ पाता, वह फिल्म को देखकर उस कृति के बारे में वैसी ही धारणा बना लेता है । इससे कहानीकार की छवि प्रभावित होती है ।

वर्ल्ड स्ट्रीट: आपकी कहानियों में गडरिये, मूर्ख राजा, भूत व राजकुमारियों के पात्र जीवंत हुए हैं । मौजूदा दौर में जबकि ये सभी किरदार हमारे जीवन से लुप्त हो रहे हैं, तो इनकी सार्थकता कितनी है ?

बिज्जी: कोई भी विषय प्रासंगिक है या नहीं उसका समय से लेना देना नहीं है । गांधी आज भी प्रासंगिक है और आगे भी रहेंगे । लोक कहानियों के ये पात्र हर युग में सार्थक रहेंगे । जब हमारे जीवन में इनका जिक्र नहीं हो रहा होगा, तब भी कोई बच्चा इस प्रकार की कहानी पढ़कर और अधिक रोमांचित होगा । सार्थकता साहित्य की बनी रहती है । लोक साहित्य तो वैसे भी हमारी जिंदगी का हिस्सा रहा है ।

वर्ल्ड स्ट्रीट: आज कहानी के नाम पर सेक्स का भोंडा प्रदर्शन किया जा रहा है, इस पर आप क्या कहना चाहेंगे ?

बिज्जी: सेक्स हालांकि निजी मामला है । आज भी हमारी संस्कृति में यह नितांत निजी मामला है । लेकिन फिल्मों ने माहौल को बिगाड़ दिया है । अब बच्चे भी समय से पहले वयस्क हो रहे हैं, ऐसे में कहानीकार भी जल्दी लोकप्रियता पाने के लिए सेक्स को अपनी कहानी का हिस्सा बना रहे हैं । यह प्रवृर्ति एक दिन कहानी का ट्रेंड ही बदल देगी और साफ-सुथरी कहानियां हमारी जिंदगी से दूर होती जाएंगी ।

वल्र्ड स्ट्रीट: आप बोरुंदा जैसे साधारण गांव में रहते हैं, आपको मुंबई में नहीं होना चाहिए था ?

बिज्जी: (हंसकर) मुझे तो बोरुंदा ही अच्छा लगता है। मुंबई मेरा मुकाम कभी नहीं रहा । क्योंकि मुझे तो गांव की चौपाल, खेत-खलिहान और प्रकृति से प्रेम रहा है । गांव अब भी प्रदूषण मुक्त है । मुझे साहित्य के माध्यम से लोगों की सेवा करने का मौका मिला, और कुछ कहानियों पर फिल्में बनी, फिर मुंबई जाने की क्या जरूरत है ।

Sunday, 10 November 2013

सेक्स वर्कर जोधपुर पहुंची: रिपोर्ट

-नेपाल की युवतियां और मुंबई की बार गर्ल सूर्यनगरी में, देह व्यापार के उद्देश्य से लाई गई हैं युवतियां, पिछले दिनों तेलगु फिल्मों की आइटम गर्ल भी पीटा एक्ट में धरी गई थी

-डी.के. पुरोहित-

जोधपुर. रिपोर्ट है कि देह व्यापार के लिए नेपाल की युवतियां और मुंबई की बार गर्ल जोधपुर आ रही हैं । इन युवतियों को शहर की होटलों और रिसोर्ट में देह व्यापार के लिए लाया जा रहा है। अभी हाल ही में तेलगु फिल्मों की आइटम गर्ल को देह व्यापार करते पीटा एक्ट में पकड़ा गया था । इससे पहले शहर की कुड़ी भगतासनी हाउसिंग बोर्ड क्षेत्र में भी कुछ युवतियों को देह व्यापार करते पकड़ा गया था । ये युवतियां भी शहर के बाहर की थी ।

अब खबर है कि टूरिज्म के बहाने जोधपुर में सेक्स वर्कर पहुंच रही हैं। पिछले दस सालों में शहर में देह व्यापार फिर से सिर उठा रहा है । यहां घासमंडी क्षेत्र में भी चोरी-छिपे फिर से खोटा काम होने लगा है। अखबारों में भी क्षेत्र फिर से सुर्खियों में रहा ।

हरा पेन यानी हरी झंडी, लाल पेन यानी नो

होटलों में ग्राहकों को सेक्स के लिए राजी करने के लिए यहां पेन के माध्यम से संदेश भेजा जाता है । युवतियां यदि हरा पेन दिखाती है तो समझो सेक्स के लिए युवती राजी है और इसे हरी झंडी समझा जाता है । फिर मोबाइल पर समय, रकम और स्थान तय हो जाता है । यदि लाल पेन दिखाया जाए तो समझो अभी युवती सेक्स के लिए तैयार नहीं हैं ।

बार पर रोक लगने के बाद युवतियां जोधपुर आ रही

मुंबई में बार पर रोक लगने पर बार गर्ल जोधपुर की ओर रुख कर रही हैं । पिछले पांच साल में बड़ी संख्या में बार गर्ल जोधपुर पहुंची हैं । दो-चार महीने रहने के बाद ये बार गर्ल फिर से मुंबई चली जाती हैं । इन बार गर्ल को विदेशी सैलानियों, रईसों और राजनीतिज्ञों के लिए उपलब्ध करवाया जाता है ।

एक दिन की कीमत एक लाख से अधिक

रिपोर्ट है कि एक दिन की कीमत एक लाख रुपए से भी अधिक दी जाती है । ये बार गर्ल रईसों और राजनीतिज्ञों के लिए अपने को समर्पित करने को तैयार रहती है। तेलगु फिल्मों की आइटम गर्ल के बारे में कहा जाता है कि उसने पांच लाख रुपए में सौदा तय किया था ।

पुलिस अलर्ट, धरपकड़ जारी

शहर में पुलिस अलर्ट है, धरपकड़ भी की जा रही है । चुनावी दौर में देह व्यापार पर विशेष नजर रखी जा रही है । पुलिस होटलों में ठहरने वाली युवतियों व युवकों पर विशेष नजर रख रही है । साथ ही पुलिस होटलों के विजिटर रजिस्टर भी खंगाल रही हैं ।





























Friday, 8 November 2013

कंडोम बना सकता है नामर्द

कंडोम में चिकना पदार्थ डाला जाता है, इसे एनएनएन यानि नवर्स निगेटिव नीनी कहा जाता है, यह रसायन अपने संपर्क में लेकर व्यक्ति के नाजुक अंग को सिथिल कर देता है

-डी.के. पुरोहित-

जोधपुर. रिपोर्ट पर भरोसा किया जाए तो कंडोम का उपयोग व्यक्ति को नामर्द बना सकता है। हालांकि यह उत्साहजनक खबर नहीं हैं, क्योंकि इससे परिवार नियोजन अभियान को धक्का लग सकता है। मगर हकीकत कुछ इस प्रकार है कि बाजार में उपलब्ध तरह-तरह के फ्लेवर के कंडोम से व्यक्ति के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ सकता है। इस प्रकार के कंडोम जहां लोगों को भ्रमित कर रहे हैं, वहीं व्यक्ति के शरीर के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं। पुरुषार्थ को जगाने वाले ये कंडोम पुरुषार्थ को ही खत्म कर सकते हैं ।

विषेषज्ञों का कहना है कि इसमें एनएनएन नामक चिकना पदार्थ डाला जाता है। इस पदार्थ से होने वाले नुकसान की पुष्टि अमेरिका में भारतीय वैज्ञानिक ट्रबल झा ने की है। झा के मुताबिक एनएनएन का आशय नर्वस निगेटिव नीनी से होता है। नीनी वह तत्व है जो अपने संपर्क में लेकर व्यक्ति को नामर्द बना सकता है ।

नीनी रसायन की खोज 1963 में अफ्रीकी वैज्ञानिक जे.आनन्दू ने की थी। मगर तब उसे इतनी तवज्जो नहीं मिली थी। रिपोर्ट है कि एनएनएन यानि नर्वस निगेटिव नीनी कंडोम के माध्यम से पुरुष के प्रजनन अंग पर एलर्जी उत्पन्न करता है। प्रजनन अंग पर फफोले होने लगते हैं। लंबे समय तक लगातार कंडोम का उपयोग करने पर व्यक्ति नामर्द बन सकता है। भारतीय चिकित्सक हालांकि इस बात से सहमत नहीं हैं, ना ही आधुनिक चिकित्सक इसे सही मान रहे हैं, मगर कुछ विषेषज्ञों की मानें तो कंडोम का लगातार उपयोग पुरुषार्थ के लिए घातक है ।

हमारे देश में एक अनुमान के अनुसार 42 प्रतिशत लोग कंडोम का उपयोग करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक एनएनएन की सक्रियता से पुरुष की प्रजनन क्षमता पर असर पड़ता है। भारत में जहां गर्म क्षेत्र हैं वहां इसका असर अधिक देखा गया है। विदेशों में जहां ठंड अधिक पड़ती है वहां इसका इतना असर नहीं देखा गया। रिपोर्ट के मुताबिक 0.025 प्रतिशत मामलों में रिपोर्ट पॉजिटिव
पाई जाती है ।

आयुर्वेद में भी कंडोम वर्जित माना गया है। आयुर्वेद में संयमित संभोग पर जोर दिया गया है। ‘जनन तंत्र और आनन्द’ नामक पुस्तक में इस दिशा में संकेत किया गया है। जिसमें कृत्रिम साधनों को वर्जित माना गया है। कृत्रिम साधनों से आषय कंडोम से भी लगाया जा सकता है। डाॅ.आरएन शर्मा ने बताया कि आयुर्वेद में सहज संभोग पर जोर दिया गया है। प्राचीन काल से सहज संभोग अपनाया जाता रहा है। मगर विदेषी संस्कृति के संपर्क में आने के साथ ही यह प्रणाली खत्म होती जा रही है। कंडोम का इस्तेमाल बढ़ रहा है। मनु स्मृति में भी बीज तत्व को खुला रखने पर जोर दिया गया है। छायावादी ब्रितानी कवि अल्बर्टो ने भी इसकी व्याख्या एक कविता में की है। सेक्स विषेषज्ञ डाॅ. आरएन शर्मा का भी है कि इस संबंध में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी, मगर इस दिषा में शोध करने की जरुरत है।

Monday, 4 November 2013

इस बार देरी से, मगर खूब आ रहे हैं ‘पावणे’

-दीपोत्सव पर सैलानियों की आवक से कारोबार में बूम रहा, पर्यटन व्यवसाय में चार महीने बाद आया उफान

डी. के. पुरोहित

जैसलमेर। आम तौर पर जैसलमेर में जुलाई माह से ‘पावणों’ यानी सैलानियों का आना शुरू हो जाता है, मगर इस बार शरुआती चार महीने पर्यटन की लिहाज से फीके रहे। लेकिन अक्टूबर के अंत तक पावणों ने परवाज भरी-गोल्डन सिटी के लिए। और अब टूरिज्म का बूम हो गया है ।

औसतन हर साल यहां सात लाख देसी-विदेशी पर्यटक आते हैं। इस बार गर्मी अधिक रही और नवंबर शुरू होने के बाद भी पंखे बंद नहीं हुए हैं। ऐसे में सैलानियों की भी मंदी रही। अब जबकि सैलानी आने शुरू हुए हैं तो पर्यटन व्यवसायियों के चेहरे भी खिले हुए हैं ।

दीपावली पर 40 करोड़ के करीब कारोबार

एक अनुमान के अनुसार स्थानीय लोगों की दीपावली की खरीद और देसी-विदेशी सैलानियों की खरीद मिलाकर 40 करोड़ के करीब व्यवसाय हुआ। वो भी दीपोत्सव के पांच दिन में । कपड़े, किराणा, इलेक्ट्राॅनिक, मोबाइल, परिवहन, होटल, रेस्टोरेंट, इंटरनेट, गोल्डन स्टोन, बाइक, वाहन, ज्वैलरी और सिक्कों सहित विभिन्न मद को मिलकार आंकड़ा 40 करोड़ के करीब पहुंच गया ।

सैलानियों के स्वागत में सजे सुर

सैलानियों के स्वागत में यहां की होटलों में लोक संगीत का मजमा जमा रहा। लंगा-मांगणियार कलाकारों के भी दीपोत्सव की मौज रही। होटलों में जमकर संगीत और नृत्य की धमाल रही ।

सम और खुहड़ी पर हुआ जश्न

परंपरागत रूप से सम में तो सैलानियों ने जश्न मनाया ही, इस बार खुहड़ी में टूरिज्म की दृष्टि से मौजां रहीं। पर्यटकों ने केमल सफारी का जमकर आनंद लिया वहीं अस्त होता सूरज भी उन्हें रोमांचित कर गया। रात्रि में लोक संगीत की धुनों पर नाच और फायर कैंप आकर्षक रहे। इस बार दीपावली पर इंजाय करने के लिए सैलानियों ने भरपूर आनंद उठाया ।

पर्यटन स्थलों पर पैर रखने की जगह नहीं

दीपोत्सव के आस-पास बंगाली पर्यटक भी जमकर आ रहे हैं। एम अनुसूइया ने बताया कि जैसलमेर आने की वर्षों से इच्छा थी, मगर इस बार पूरी हुई। इंग्लैंड की मार्या ने बताया कि गोल्डन सिटी का जवाब नहीं, यहां बार-बार आने की इच्छा होती है। शहर के पर्यटन स्थलों पटवों की हवेली, गड़सीसर लेक, नथमल की हवेली, सोनार किला, सालमसिंह की हवेली, जैन मंदिर, मरू सांस्कृतिक संग्रहालय, सम, खुहड़ी, लौद्रवा, अमरसागर, बड़ाबाग में इतनी भीड़ रही, कि पैर रखने की जगह नहीं मिल रही थी।
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Sunday, 3 November 2013

50 से 1000 रुपए में बिक रहे नशीले पान

-अफीम व हेरोइन मिले पान से युवा कर रहे नशा, होटलों में पर्यटकों को होते हैं सप्लाई, लपकों के माध्यम से होती है चोरी-छुपे बिक्री

-डी.के. पुरोहित-

सूर्यनगरी में नशीले पान की बिक्री हो रही है। इस तरह के पान युवा खरीद कर नशा कर रहे हैं। पान में अफीम और हेराइन मिलाकर बेचे जा रहे हैं। विदेशी पर्यटक भी इस तरह के पान पसंद करते हैं ।

शहर में कई पान की केबिन चलाने वाले दुकानदार इस तरह के पान बेच रहे हैं। इस तरह पान बेचने से दुकानदार पकड़ में नहीं आते। पान में अफीम कत्थे के साथ मिला कर पान के पत्ते पर रगड़ी जाती है। इस प्रकार का कत्था अलग से रखा जाता है। ग्राहक इसके लिए कोडवर्ड से बात करता है। अगर ग्राहक कहता है कि काला पान दो, तो दुकानदार समझ जाता है कि उसे अफीम मिला पान चाहिए। इस तरह के पान फिक्स ग्राहकों को ही बेचे जाते हैं ।

हेरोइन मिला पान एक हजार में

दुकानदार हेरोइन मिला पान करीबन एक हजार रुपए में बेचते हैं। इसके लिए गोरा पान या व्हाइट पान कोडवर्ड बताया जाता है। शहर में कई लपके सक्रिय हैं जो सैलानियों के लिए इस तरह के पान खरीदते हैं। दुकानदार भी ऐसे लपकों को जानते हैं और उन्हें ही इस तरह के पान बेचते हैं । इस तऱ्ह के पान को सुखाकर जलाकर नाक से सुगंध लेकर नशा किया जाता है

इस तरह बनाया जाता है स्पेशल पान

इस तरह के पान में कत्था, सुपारी, किमाम, जर्दा, चेरी, मरहठी, हेरोइन मिला चूना, किसमिस, काजू के टुकड़े, चांदी का वर्क और कई अन्य आइटम डालकर स्पेशल रूप दिया जाता है। यदि अफीम का पान लेना हो तो अन्य वस्तुएं तो वही रहती है, हां, कत्था अफीम मिला लगाया जाता है ।


नई-नई शादी में दूल्हों की पसंद

जिनकी नई-नई शादी हुई है, वे दूल्हे इस तरह का पान पसंद करते हैं। बताया जाता है कि नशीले पान से उत्तेजना बढ़ जाती है। इस वजह से युवा अफीम मिला पान खरीदते हैं। इस तरह अफीम का नशा करने से शक भी नहीं होता ।

बुजुर्गों के लिए रहती है सहूलियत

पान के साथ अफीम मिला होने से बजुर्गों को नशा करने में सुविधा रहती है। वे आसानी से परिवार के साथ रहते हुए भी बिना किसी शक के नशा कर लेते हैं। शहर की पाॅश काॅलोनियों में कई बुजुर्ग इस तरह का पान खाकर नशा करते हैं ।

समाज में प्रतिष्ठा का द्योतक

बताया जाता है कि कुछ लोग इस प्रकार का पान खाना प्रतिष्ठा का सूचक मानते हैं। समाज में अलग दिखने की होड में भी नशीले पान सेवन किए जाते हैं। युवाओं के बीच परस्पर प्रतिस्पद्र्धा रहती है। इसी के चलते युवा नशीले पान का सेवन अधिक कर रहे हैं ।

लपके खरीद कर आगे महंगे दाम में बेचते हैं

बताया जाता है कि लपके बाजार से नशीले पान खरीदते हैं। फिर उसे आगे अधिक दाम में बेच देते हैं। खासकर युवा सैलानी इस तरह के पान पसंद करते हैं। शहर की जानी-मानी और प्रसिद्ध होटलों में भी इस तरह के पान लपकों के माध्यम से सप्लाई किए जाते हैं ।

अब रियाण में भी होती है नशीले पान की मनुहार

मारवाड़ में अफीम का नशा करना आम बात है। खुशी का अवसर हो या गमी का, मारवाड़ में अफीम की मनुहार की जाती है, इसे रियाण कहते हैं। अब रियाण में भी अफीम मिले नशीले पान की मनुहार होती है। ऐसा करने से कानूनी डर भी नहीं रहता क्योंकि पान की मनुहार करने से कोई शक भी नहीं कर पाता।




Saturday, 2 November 2013

चलो फिर कोई नई बात करें

गजल: डी.के. पुरोहित

चलो फिर कोई नई बात करें

गैर नही ंतो अपनों पर घात करें

अपराध का कोई समय नहीं होता

इसे हर दिन, हर इक रात करें

सजा कौन दे सकता है हमें

कचहरी में फाइलों से मुलाकात करें

गलती से गर हो गया दुष्कर्म

फिर रुपयों से मामला शांत करें

थाना हमारा, सरकार हमारी

फिर अफसरों से किस बात डरें

अंग्रेज चले गए आजादी देकर

कहां गई आजादी मालूमात करें ।

वे नारों से देश बदल रहे हैं

गजल: डी.के. पुरोहित वे नारों से देश बदल रहे हैं मुंह में राम बगल में छुरियां ले चल रहे हैं पानी मिले न मिले गांव-शहर में दारु के दरिया हर गली निकल रहे हैं विकास के नाम पर पेड़ कट रहे धुंआ घड़ी भर का चैन निगल रहे हैं जिधर देखो उधर हालात विकट है परछाइयों के भी अब पर निकल रहे हैं हत्या, लूट, डकैती और दुष्कर्म अपराध की होड़ में आगे निकल रहे हैं देश अपना है रहम करो यारों घर में ये कैसे जंगल पल रहे हैं ____________________________________ D.K.Purohit Sub Editor, Dainik Bhaskar, Jodhpur

Friday, 1 November 2013

कभी भी भरभराकर गिर सकता है सोनार

-डी.के. पुरोहित -
देसी-विदेशी सैलानियों के आकर्षण का केंद्र जैसलमेर का सोनार किला कभी भी भरभराकर गिर सकता है। इस पर चैतर्फा संकट मंडरा रहा है। इस किले में करीब पांच हजार की आबादी निवास करती है। आवासीय किला होने की वजह यहां कई तरह से खतरा है। हाल ही में यूनेस्को की सूची में इस किले को विश्व धरोहर माना गया है। उसके बाद विश्व स्तर पर इस किले का मुद्दा फिर से गरमा गया है। दुनिया भर में गोल्डन फोर्ट के रूप में विख्यात इस किले का महत्व और भी बढ़ गया है। यूनेस्को की धरोहर में छह किलों को शामिल किया गया है। इसमें चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, रणथंभौर, जैसलमेर, आमेर और गागरोन के किले हैं। ये सभी किले पहाड़ी पर बसे हुए हैं। इन सभी किलों में जैसलमेर को किला अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रतिवर्ष पांच-छह लाख देशी-विदेशी पर्यटक जैसलमेर भ्रमण को आते हैं। विश्व मानचित्र पर गोल्डन फोर्ट की विशेष पहचान है। यह किला साढ़े सात सौ साल से भी पुराना है। इसका निर्माण त्रिकूट नाम की एक पहाड़ी पर किया गया है। यह पहाड़ी मुल्तानी मिट्टी से बनी हुई है। सैकड़ों साल से बारिश का पानी इसकी बुर्जियों और पठे को कमजोर कर चुका है। छह साल पहले एक एजेंसी ने यहां सर्वे किया था और उसकी रिपोर्ट में खुलासा हो गया है कि किला कभी भी भरभराकर गिर सकता है। बारिश का पानी तो किले की नींव को खोखला कर ही चुका है, साथ ही किले में सीवरेज सिस्टम भी गड़बड़ा गया है। निर्माण के बाद से ही सीवरेज का पानी किले की नींव में जाकर उसे खोखला कर रहा है। विदेशी सामाजिक कार्यकर्ता सू कारपेंटर ने सबसे पहले किले की सुरक्षा का मुद्दा उठाया था। उसके बाद इंटैक के माध्यम से इसका रखरखाव व जीर्णोद्धार का काम शुरू हुआ। इंटैक से जैसलमेर के पूर्व नरेश बृजराजसिंह खुद जुड़े हुए हैं, लेकिन उन्होंने भी विकास के नाम पर खानापूर्ति ही की। कई बार विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से किले का रखरखाव व बुर्जियों का नवनिर्माण किया गया। लेकिन इसकी सुरक्षा का संकट बरकरार है।
यातायात का दबाव बढ़ा
इस किले में छोटे-बड़े वाहन धड़ल्ले से आते-जाते हैं। एक तरफ तो किले में रहने वाले लोगों के वाहन प्रतिदिन किले के एक मात्र गेट अखे पोल से निकलते हैं। दूसरी तरफ सैलानी भी वाहनों में बैठकर आते-जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रतिदिन किले के एक मात्र गेट अखे पोल से पांच हजार वाहन आते-जाते हैं। वैसे तो किले के चार गेट हैं, जिसे पोल कहते हैं। मगर किले में आने जाने का मुख्य रास्ता एक ही है-अखे पोल। तीन अन्य पोल में भी गुजरना पड़ता है। ये सभी पोल एक-दूसरे से कनेक्ट है। ऐसे में यातायात का दबाव किले पर बढ़ गया है। वाहनों की चिलपौं, ध्वनि और गति से दीवारों पर असर पड़ रहा है। कभी भी कोई वाहन दीवार से टकरा गया तो पोल गिर सकती है। आज से करीब 17-18 साल पहले किले की एक दीवार गिर गई थी, जिसके नीचे कुछ लोग दबकर मर गए थे।
बारूद के ढेर पर
डेढ़ दशक पहले किले में एक निर्माणाधीन भवन में बारूद में विस्फोट भी हो चुका है। यह बारूद रियासतकाल का है, जो यत्र-तत्र दबा-छुपा है। कुछ माह पहले फिर बारूद मिल चुका है। ऐसे में कभी भी बारूद के धमाके से किला धराशाई हो सकता है। रियासतकाल में सुरक्षा की दृष्टि से किले में जगह-जगह बारूद छिपा कर रखा जाता था। स्थिति यह है कि अब किसी को नहीं पता कहां बारूद छिपा हुआ है। कई बार निर्माण के दौरान बारूद निकल आता है और विस्फोट का भय बना रहता है। ज्वलंत पदार्थ भीतर तक ले जाते हैं चूंकि किला आवासीय है इसलिए लोग इसके भीतर तक गैस सिलेंडर, केरोसिन, पेट्रोल और अन्य आवश्यक वस्तुएं ले जाते हैं। ऐसे में कभी भी हादसा हो सकता है।
 भूकंप जोन से भी खतरा
जैसलमेर भूकंप जोन में आ गया है। यहां आए साल भूपंक आते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि भूकंप से भी किले को खतरा हो सकता है। इसलिए इस किले में रहने वाले लोगों को किला खाली कराना ही उचित होगा। युद्ध में भी हो सकता है हमला
रक्षा विशेषज्ञों की मानें तो जैसलमेर पाकिस्तान के बाॅर्डर पर बसा हुआ है। ऐसे में कभी भी युद्ध हुआ तो जैसलमेर के विश्व विख्यात किले पर हमला हो सकता है। ऐसे में समय रहते किले को खाली करवाना चाहिए। लेकिन समस्या यह है कि यह किलो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है। किले के भीतर होटलें, पेइंगगेस्ट और कई दुकानें चल रही है। किला लोगों के लिए आय का जरिया है। इस वजह से लोग किला खाली करने का तैयार नहीं हैं। अभी नहीं चेते तो 2050 तक स्थिति विकट इंग्लैंड के एक एनजीओ ‘फोर्ट एंड फोर स्टेप’ के प्रतिनिधि अल्बर्टो ट्राइकाॅन ने विस्तृत शोध के बाद निष्कर्ष निकाला है कि ऐसे ही हालात रहे तो सन 2050 तक स्थिति विकट हो सकती है। उन्होंने फोर स्टेप बताते हुए कहा कि पहला स्टेप किला खाली करा लिया जाए। दूसरा स्टेप किले में होटल व अन्य कारोबार बंद कर दिए जाए। तीसरा स्टेप किले के भीतर आने-जाने के लिए एक अन्य वैकल्पिक रास्ता बनाया जाए। चैथा स्टेप जागरूकता है।