(यह आलेख कुछ वर्ष पुराना है। इसे उसी सदंर्भ में देखा जाए)
....ताकि न्याय प्रणाली पर भरोसा कायम रहे
सुप्रीम कोर्ट। देश का सर्वोच्च न्याय मंदिर। लेकिन जहां आम आदमी के लिए आमतौर पर कोई जगह नहीं। आम आदमी यह बात समझता है। जानता है। फिर भी खामोश है। आजादी को साठ साल हो गए। अपना देश है। अपनी संसद। अपना कानून। लेकिन अपने लोकतंत्र में लोक कहीं नहीं है। पिछड़ गया है समय की दौड़ में। राजनीति रंग बदलती रेत हो गई है। यहां न्याय की उम्मीद बेमानी हो गई है। जब यह पंक्तियां लिखी जा रही है, तब दो बातें सामने हैं-एक, देश भर के वकील दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों में किए जा रहे संशोधन निरस्त करने की मांग पर अड़े हुए हैं। दूसरा, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीएन अग्रवाल, जीएस सिंघवी तथा आफताब आलम की बेंच ने माना कि केवल करोड़पति ही सुप्रीम कोर्ट में आकर न्याय का दरवाजा खटखटा सकते हैं।
दोनों ही मुद्दे जुड़े हैं आम आदमी से। न्याय से। लोगों की जिंदगी से। अपराध की दुनिया में, न्याय की गुहार में दो पड़ाव महत्वपूर्ण है-कोर्ट व पुलिस। सामान्यतः पुलिस मुकदमा दर्ज करती है और कोर्ट निर्णय। कई मामलों में कोर्ट के आदेश पर भी मुकदमा दर्ज किया जाता है। निर्णय की यह प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट तक जारी रहती है। मृत्युदंड के मामले में राष्ट्रपति भी एक कड़ी होता है, जो विवेक के आधार पर सजा माफ या कम कर सकता है।
बहरहाल मुद्दा गंभीर है। सोचो अगर पुलिस को यह अधिकार दे दिया जाए कि वह अपने विवेक के आधार पर सात वर्ष तक की सजा वाले सभी अपराधों में जमानत दे सकती है। तब क्या होगा? तब महिला उत्पीड़न, चोरी, गबन, धोखाधड़ी आदि मामलों में अपराधियों को थाने से ही जमानत मिल जाएगी। फिर तो राजनीतिज्ञ जिसे चाहें, जब चाहें, छुड़ा लेंगे। विधायक, सांसद, मंत्री और गृहमंत्री स्तर तक से पुलिस पर दबाव आएगा। अपराधी छूटते रहेंगे। पुलिस में भ्रष्टाचार भी बढ़ेगा। आपराधिक तत्व पुलिस को रिश्वत देकर कुछ भी करवा लेंगे। समाज में अपराध बढ़ेंगे। अपराधियों में डर खत्म हो जाएगा। पुलिस निरंकुश हो जाएगी। एक ऐसे युग की शुरुआत होगी, जिसमें पुलिसिया डंडा लोकतंत्र की मूल भावना को घायल कर देगा।
अब आते हैं, दूसरी बात पर। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिसों ने स्वीकार किया कि कोर्ट में न्याय के लिए जाना पांच सितारा विलासिता है। इसका खर्च केवल कुछ लोग उठा सकते हैं। शीर्ष कोर्ट ने चार फरवरी को कहा कि जिनके पास पचास करोड़, सौ करोड़ या दो सौ करोड़ रुपए हों, वही केवल सुप्रीम कोर्ट में आ सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने फौजदारी वकील आरके आनंद तथा तत्कालीन विशेष लोक अभियोजक आईयू खान की अपील पर सुनवाई करते समय इस आशय के विचार जताए।
बेंच ने कहा, सुप्रीम कोर्ट ही क्यों? आम जनता के लिए मुंशिफ कोर्ट तक में जाना मुश्किल है। सुप्रीम कोर्ट ने चेताया है कि या तो सुधारात्मक उपाय किए जाएं या वरना न्यायिक प्रणाली से जनता का भरोसा उठ जाएगा।
वाकई मामला गंभीर है। हमारी न्याय प्रणाली अंग्रेजी व्यवस्था की कापी है। हमने वह व्यवस्था अपनाई जो ब्रिटेन की व्यवस्था का हिस्सा है। हमारे देश की परंपरा, संस्कृति, रहन-सहन और जरुरतों को देखते हुए अब समय आ गया है कि न्याय प्रणाली की समीक्षा की जाए। प्रख्यात पत्रकार विनोद मेहता ने आउटलुक में अपने किसी लेख में लिखा था कि देश में 90 करोड़ लोग 90 रुपए प्रतिदिन से कम कमाते हैं। ऐसे में आम आदमी न्याय की उम्मीद कैसे कर सकता है। हमारी न्याय प्रणाली से इस तथ्य को जोड़ा जाएं तो सुप्रीम कोर्ट के जस्टिसों की बात प्रामाणिक हो जाती है। कैसे हम इतना महंगा न्याय हासिल कर सकते हैं। फिर ऐसा क्या किया जाए कि आम आदमी को न्याय मिले। समय-समय पर और सच्चा। सरकार को एक कमेटी गठित करनी चाहिए और छह महीने के भीतर ही ऐसी रिपोर्ट देनी चाहिए, जिससे देश के आम आदमी को सुप्रीम कोर्ट तक का न्याय मिल सके। भारत जैसे लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी एक ऐसी टिप्पणी है जो न्याय की परिभाषा बदल कर रखने का सामर्थ्य रखती है। आजादी के साठ वर्ष बाद ही सही। किसी ने तो साहस किया। निष्कर्ष रूप में कहें तो न्याय का मंच कोर्ट ही हो सकता है। थाना नहीं। पुलिस को जमानत के अधिकार दिए गए तो इसके परिणाम गंभीर होंगे। इससे अंततः देश का ही नुकसान होगा। अब समय आ गया है कि आम आदमी को सुप्रीम कोर्ट तक से न्याय मिले, इसके लिए ठोस योजना लागू की जाए।
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