Saturday, 8 February 2014

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बनते बिगड़ते बुलबुलों सी...

गीत : डी.के. पुरोहित



आंसुओं की जुबां में
दर्द कहता है अपनी कहानी
बनते बिगड़ते बुलबुलों सी
है छोटी सी जिंदगानी

कबीर ने कष्ट सहे
मीरा पी गई जहर
तुलसी ने बदली प्रीत
बुद्ध भटके दर-दर
अहिंसा के पुजारी को
गोली पड़ी थी खानी
बनते बिगड़ते बुलबुलों सी
है छोटी सी जिंदगानी

साथी है दिखावे के
वहां जाना है अकेला
सब बिखर जाना है
छूट जाएगा यह मेला
जिस पर करते हैं नाज
सदा न रहेगी वह जवानी
बनते बिगड़ते बुलबुलों सी
है छोटी सी जिंदगानी

माटी का पुतला मनवा
बुनता सपनों का जाल
कपट की जोड़ धनमाया
रखा उसे खूब संभाल
छूटे तन से प्राण तो
बादल थे बिन पानी
बनते बिगड़ते बुलबुलों सी
है छोटी सी जिंदगानी। 

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