Thursday, 25 September 2014

आलेख: डी.के. पुरोहित


(यह आलेख कुछ वर्ष पुराना है। इसे उसी सदंर्भ में देखा जाए)

....ताकि न्याय प्रणाली पर भरोसा कायम रहे

सुप्रीम कोर्ट। देश का सर्वोच्च न्याय मंदिर। लेकिन जहां आम आदमी के लिए आमतौर पर कोई जगह नहीं। आम आदमी यह बात समझता है। जानता है। फिर भी खामोश है। आजादी को साठ साल हो गए। अपना देश  है। अपनी संसद। अपना कानून। लेकिन अपने लोकतंत्र में लोक कहीं नहीं है। पिछड़ गया है समय की दौड़ में। राजनीति रंग बदलती रेत हो गई है। यहां न्याय की उम्मीद बेमानी हो गई है। जब यह पंक्तियां लिखी जा रही है, तब दो बातें सामने हैं-एक, देश भर के वकील दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों में किए जा रहे संशोधन निरस्त करने की मांग पर अड़े हुए हैं। दूसरा, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीएन अग्रवाल, जीएस सिंघवी तथा आफताब आलम की बेंच ने माना कि केवल करोड़पति ही सुप्रीम कोर्ट में आकर न्याय का दरवाजा खटखटा सकते हैं।

दोनों ही मुद्दे जुड़े हैं आम आदमी से। न्याय से। लोगों की जिंदगी से। अपराध की दुनिया में, न्याय की गुहार में दो पड़ाव महत्वपूर्ण है-कोर्ट व पुलिस। सामान्यतः पुलिस मुकदमा दर्ज करती है और कोर्ट निर्णय। कई मामलों में कोर्ट के आदेश पर भी मुकदमा दर्ज किया जाता है। निर्णय की यह प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट तक जारी रहती है। मृत्युदंड के मामले में राष्ट्रपति भी एक कड़ी होता है, जो विवेक के आधार पर सजा माफ या कम कर सकता है।

बहरहाल मुद्दा गंभीर है। सोचो अगर पुलिस को यह अधिकार दे दिया जाए कि वह अपने विवेक के आधार पर सात वर्ष तक की सजा वाले सभी अपराधों में जमानत दे सकती है। तब क्या होगा? तब महिला उत्पीड़न, चोरी, गबन, धोखाधड़ी आदि मामलों में अपराधियों को थाने से ही जमानत मिल जाएगी। फिर तो राजनीतिज्ञ जिसे चाहें, जब चाहें, छुड़ा लेंगे। विधायक, सांसद, मंत्री और गृहमंत्री स्तर तक से पुलिस पर दबाव आएगा। अपराधी छूटते रहेंगे। पुलिस में भ्रष्टाचार भी बढ़ेगा। आपराधिक तत्व पुलिस को रिश्वत देकर कुछ भी करवा लेंगे। समाज में अपराध बढ़ेंगे। अपराधियों में डर खत्म हो जाएगा। पुलिस निरंकुश हो जाएगी। एक ऐसे युग की शुरुआत होगी, जिसमें पुलिसिया डंडा लोकतंत्र की मूल भावना को घायल कर देगा।

अब आते हैं, दूसरी बात पर। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिसों ने स्वीकार किया कि कोर्ट में न्याय के लिए जाना पांच सितारा विलासिता है। इसका खर्च केवल कुछ लोग उठा सकते हैं। शीर्ष कोर्ट ने चार फरवरी को कहा कि जिनके पास पचास करोड़, सौ करोड़ या दो सौ करोड़ रुपए हों, वही केवल सुप्रीम कोर्ट में आ सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने फौजदारी वकील आरके आनंद तथा तत्कालीन विशेष लोक अभियोजक आईयू खान की अपील पर सुनवाई करते समय इस आशय के विचार जताए। 

बेंच ने कहा, सुप्रीम कोर्ट ही क्यों? आम जनता के लिए मुंशिफ कोर्ट तक में जाना मुश्किल है। सुप्रीम कोर्ट ने चेताया है कि या तो सुधारात्मक उपाय किए जाएं या वरना न्यायिक प्रणाली से जनता का भरोसा उठ जाएगा। 
वाकई मामला गंभीर है। हमारी न्याय प्रणाली अंग्रेजी व्यवस्था की कापी है। हमने वह व्यवस्था अपनाई जो ब्रिटेन की व्यवस्था का हिस्सा है। हमारे देश की परंपरा, संस्कृति, रहन-सहन और जरुरतों को देखते हुए अब समय आ गया है कि न्याय प्रणाली की समीक्षा की जाए। प्रख्यात पत्रकार विनोद मेहता ने आउटलुक में अपने किसी लेख में लिखा था कि देश में 90 करोड़ लोग 90 रुपए प्रतिदिन से कम कमाते हैं। ऐसे में आम आदमी न्याय की उम्मीद कैसे कर सकता है। हमारी न्याय प्रणाली से इस तथ्य को जोड़ा जाएं तो सुप्रीम कोर्ट के जस्टिसों की बात प्रामाणिक हो जाती है। कैसे हम इतना महंगा न्याय हासिल कर सकते हैं। फिर ऐसा क्या किया जाए कि आम आदमी को न्याय मिले। समय-समय पर और सच्चा। सरकार को एक कमेटी गठित करनी चाहिए और छह महीने के भीतर ही ऐसी रिपोर्ट देनी चाहिए, जिससे देश  के आम आदमी को सुप्रीम कोर्ट तक का न्याय मिल सके। भारत जैसे लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी एक ऐसी टिप्पणी है जो न्याय की परिभाषा बदल कर रखने का सामर्थ्य  रखती है। आजादी के साठ वर्ष बाद ही सही। किसी ने तो साहस किया। निष्कर्ष रूप में कहें तो न्याय का मंच कोर्ट ही हो सकता है। थाना नहीं। पुलिस को जमानत के अधिकार दिए गए तो इसके परिणाम गंभीर होंगे। इससे अंततः देश का ही नुकसान होगा। अब समय आ गया है कि आम आदमी को सुप्रीम कोर्ट तक से न्याय मिले, इसके लिए ठोस योजना लागू की जाए।  

कविता: डी.के. पुरोहित


मुझे मुक्त होना है

प्यासी रात ने
भूखे दिन से कहा
आओ हम समय को खाएं और पीएं
ताकि जीवन बना रहे
समय ने अपना दामन समेटा
और हवा बन गया
हवा अब वहसी हो गई और
रात व दिन को निगल गई
इतने में एक गर्जना हुई
जिसने चांद को अपने आगोश में ले लिया
मैं अभी भी वह भयानक स्वप्न
भूल नहीं पाता
जब मां ने मुझे जन्म दिया
मेरा जन्मना इस धरती पर भार है
ठीक वैसे ही 
जैसे दिन और रात का होना
न रात और दिन का अंत होता है
न ही मेरे जन्मने का
मैं कितनी ही बार
पैदा हुआ और मरा हूं
लेकिन न मां हारी है और न मैं
अब मुझे कुछ विश्राम करना है
मैं आसमां के अनंत आंचल का 
दूध पीने को व्याकुल हूं
ब्रह्मांड में सूरज की
लोरी सुनने को अधीर हूं
कोई आए और मुझे
मुक्त करे पृथ्वी के कर्ज से। 

कविता: डी.के. पुरोहित


भूख

आग से अधिक तेज
भूचाल से बड़ा जलजला
इससे बड़ा कोई सुनामी नहीं
सच्चाई यही है कि
सच की हत्या करके भी
अपना अस्तित्व बचाती है-
भूख।
जन्म के साथ
पैदा होती है
मांगती है खुराक
पेट को पापी यही बनाती है
इसकी लपटें
सदी की आत्मा को घायल कर देती है
जब यह करवट बदलती है
दफन हो जाते हैं
मानव, धर्म, साधना, शिवत्व
भूखा ऋषि 
चबा डालता है कुत्ते की जांघ
एक भूख 
भक्षण कर सकती है
दूसरे की भूख।
भूख जब पैदा हुई थी
उसने अपना अहं, अपना मान,
अपने संस्कार, अपनी चेतना,
अपनी अपणायत
सब कुछ पेट के हवाले कर दिया था
यही भूख
जब तब उभरती है
तो नारी अपना
जिस्म बेचने को होती है मजबूर
युवक पकड़ते हैं अपराध की राह
भूख अंतरआत्मा की नहीं सुनती आवाज
भूख की परिभाषा
लिख नहीं पाया ब्रह्मा
विधाता की चाक पर
भूख की मटकियां तोड़ देती हैं दम
भूख की भयानकता
भूख की हैवानियत
बयां नहीं की जा सकती शब्दों में
भूख का क्रंदन
नहीं सुनता कोई सुदामा और
चल पड़ता है कृष्ण के द्वार
भूख का सच यही है कि
भूख से लड़ नहीं सकता खुद सच
भूख के आगे सारे सच
हो जाते हैं स्वाहा
भूख की परिभाषा
दे सकता है कोई भूखा ही। 

राखी पुरोहित की पांच कविताएं




-राखी पुरोहित युवा पीढ़ी की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपने चंद शब्दों में भावों को इस तरह पिरोया है कि कविता की माला बन गई। मंचीय कविताओं को आपने नई दिशा दी है।

एक

दोस्त

दोस्तों करो दोस्ती
अच्छी बात है
यह उनके लिए अच्छा 
जो समझे दिल-ए-जज्बात है
पर उनको क्या कहें
जो नाम के यार हैं
बुरे वक्त में कहे
तेरा साथ बेकार है
इसलिए कहते हैं
कभी दोस्ती न करना
हमने तो ठोकर खाई
मगर आप न फिसलना।

दो

हमदम

जो चीज अपनी नहीं
उसका कैसा गम
क्यों पराई आस में
होती हैं आंखें नम
अपना है अगर कोई
ऐ-दिल मिल जाता है
हो भी जाए गर सहर
जोडि़यां बनती है
ऊपर ही कहीं
लाखों की भीड़ में 
मिल जाता है हमदम। 

तीन

तेरी जिंदगी में

तेरी जिंदगी में कभी गम न आए
मेरे हिस्से की खुशी भी
तुझे मिल जाए
बदनाम भी हो जाएं तेरी चाहत में डर नहीं
इन होंठों पर तेरा बस तेरा नाम आए
हम आंसू पीकर भी जी लेंगे ऐ दोस्त
तेरे होंठ सदा मुस्कराएं
हम चले जाएं वक्त से पहले ही सही
अपनी उम्र तेरे नाम कर जाएं
हमें तो गम सहने की आदत सी पड़ गई
पर जिंदगी के सफर में तू सदा मुस्कराए
तेरी जिंदगी में कभी गम न आए
मेरे हिस्से की खुशी भी तुझे मिल जाए। 

चार

गहराई कम है

सागर की गहराई कम है
आसमां की ऊंचाई कम है
इतनी मोहब्बत है तुमसे
कहने को अल्फाज भी कम है
दिल की बात जुबां तक न आए
ये एहसास कहां तुझे सनम है
चाहे  तुझको हासिल न करें
तेरी यादों के हकदार तो हम हैं
दीद की हसरत चाहे पूरी नहीं हो
दिल में तेरी तस्वीर सनम है। 

पांच

स्वार्थ

इस भरी दुनिया में स्वार्थ सिवा
कोई बात नहीं
दिल को समझकर खिलौना
तोड़ गिराते हैं यहां
समझता कोई जज्बात नहीं
मजबूरी को समझते हैं बहाना
ये दिखावा ही है तो प्यार नहीं।  

अनीता जांगिड़ की कविताएं



-अनीता जांगिड़ युवा कवयित्री है। आपकी कविताओं में जीवन का अनुभव, प्रेम की अभिव्यक्ति और भावों की गरिमा है। आपकी रचनाएं नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही है।

एक

कोशिश 

भुलाने की उनको
हर मुमकिन कोशिश की
मगर भुला न पाए
दर्द को छुपाने की
हर मुमकिन कोशिश की
पर छुपा नहीं पाए
चाहा कि किसी के आगे
यह आंसू निकल न पाए
पर अपनों के आगे
कोई कैसे इन्हें रोक पाए।

दो

रिश्ते 

कहने को सब रिश्ते-नाते हैं
पर बात जब मुझे समझने की हो
तब दोस्त ही काम आते हैं
अपनो के सामने 
अगर कह दूं
हाले-दिल तो
सब हंसकर आगे निकल जाते हैं
हां, पर दोस्त हमेशा 
साथ निभाते हैं। 

तीन

ख्वाब

अक्सर वो हमारे ख्वाब में आते हैं
जिन्हें हम भूलना चाहते हैं
जब हम उनके पास जाते हैं
तब वो और दूर हो जाते हैं
जब रहना ही है दूर
तो क्यों ख्वाब में आते हैं।

चार

शक नहीं था

चाहत की राह आसान कब थी
हमें चाहने वाले कितने हैं
इसकी पहचान कब थी
यूं मिल जाएंगे
राह में कभी
इसका उन्हें अंदाज नहीं था
और पा लेंगे वो मंजिल
उसके इरादे पर कभी हमें शक नहीं था। 

पांच

कीमत

दे सको तो मेरे आंसुओं की
कीमत दे देना
क्योंकि तुम अपने आपको
बहुत अमीर समझते हो न।

Thursday, 18 September 2014

अनीता जांगिड़ की कविताएं



-अनीता जांगिड़ युवा कवयित्री हैं। आपने कविताओं में प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति की है। छोटी सी रचना में सरल शब्दों में अपनी बात कहना आपकी विशेषता है। यहां प्रस्तुत है आपकी चुनिंदा रचनाएं।

एक

बेजान

क्या बताऊं
क्या छिपाऊं
कितनी है मोहब्बत
कैसे समझाऊं
तुझको सबकुछ मानती हूं
तेरे बिन बेजान सी हूं।

दो

रोशन

लम्हा-लम्हा पिघलती हूं
मोहब्बत में शमां की तरह
जलती हूं
रोशन कर दूं 
तेरे इस जहां को
इसी उम्मीद से जलती हूं।

तीन

खरीददार

आपसे रूठकर जिया
तो क्या खाक जिया
कभी खुद से कभी आप से
शिकवा किया
आपके प्यार का
बीमार हमारा दिल है
आपके गम का 
खरीददार हमारा दिल है। 

चार

खो जाएं

यूं मिलो महफिल में तुम कि
एक-दूसरे में ही खो जाएं
देखता रह जाए जमाना सारा हमें
और हमें कुछ न नजर आए।

पांच

ख्वाहिश 

सिवाय तुझे देखने के
और कोई हसरत नहीं है
हो जाए ये ख्वाहिश पूरी
बस इतनी ही इल्तिजा है। 

छह

मोहब्बत का नशा 

नशा सिर्फ शराब में हो
यह जरूरी नहीं
मोहब्बत का नशा भी कुछ कम नहीं
शराब को देखकर नशा होता नहीं
दिलरुबा की निगाहों से
जो नशा होता है
जिंदगी भर उतरता नहीं। 

सात

रुखसत

रुखसत हो जाऊं
तेरा चेहरा देखकर
तो दुनिया से जाने का गम नहीं
गर जिंदा रहकर
तुमसे ना मिल पाऊं
तो मेरे लिए
मरने से कम नहीं। 

आठ

मुस्कुराहट

मुस्कुराहट पर तेरी
सबकुछ लुटाने को
दिल करता है
गर हो दुखी तुम
तो दुनिया जलाने को
दिल करता है।

नौ

दगा

मुझसे ना पूछो
झांक लो मेरी आंखों में
सोचा था छुपा लेंगे अपने प्यार को
कमबख्त आंखों ने ही दगा कर दिया। 

दस

करीब

किसी ने दिल में बसया था
उसी को सीने से लगाया था
सुन सके वो धड़कनें हमारी
इसी वजह से
उसके इतना करीब आया था।

राखी पुरोहित की प्रतिनिधि क्षणिकाएं


-राखी पुरोहित युवा पीढ़ी की सशक्त हस्ताक्षर है। आपने क्षणिकाओं के माध्यम से अपनी भावनाओं की गंभीरता को व्यक्त किया है। चाहे कोई विषय हो, शब्दों ने सुंदर अभिव्यक्ति के माध्यम से रचना को कालजयी बना दिया है। आप युवा पत्रकार भी हैं।

एक

शमां

कभी बन जाते हैं पागल
कभी बन जाते हैं सयाने
कभी बन जाते हैं शमां
देखे क्या जलते हैं परवाने।

दो

मंजिल

अकेले चल रहे हैं राहों में
हमें इसका गम नहीं
गम तो इस बात का है कि
हमारी कोई मंजिल नहीं।

तीन

क्या चाहते हो

कभी तुम मुस्कराते हो
कभी खयालों में आते हो
कभी तुम भूल जाते हो
कभी क्यों याद आते हो
कभी दिल तोड़ जाते हो
कभी हमें मनाते हो
कभी हंसाते हो हमको
कभी गम देकर जाते हो
पराया कर देते हो पल में
कभी अपना बनाते हो
फिर दूर करते हो हमको
कभी गले से लगाते हो
क्या चाहते हो हमसे
कभी ना ये बताते हो
सच तो यही है दोस्त
तुम हमें बहुत याद आते हो
तुम भी चाहते हो हमें बहुत
मगर ना ये बताते हो
कभी तुम मुस्कराते हो....

चार

रुसवा

कभी राहें हमें छोड़ देती है
कभी खुद राहों को छोड़ना पड़ता है
जब तकदीर ही हो जाए रुसवा
दिल को तोड़ना पड़ता है

पांच

खफा

खफा न हो ऐ जाने जिगर
खता क्या हुई कुछ तो बता मगर
कभी न तुझको तड़पाएंगे हम
रुठा न करो, हमसे इस कदर


छह

यादों का महल

तुम शाहजहां तो नहीं
जो मुमताज का वादा निभा सको
बाद मरने के 
हम ही अपनी यादों का
महल छोड़ जाएंगे।

सात

बहाना

जी रहे हैं हम
बस तेरी याद के सहारे
ये बहाना ही न हो तो
जमाने में रहकर भी क्या करें?

आठ

मोहब्बत तो नहीं

तुझसे मिलना ही तो चाहते थे
बिछड़ने के बाद
और कोई हसरत न थी
तेरा दीदार ही तो करना चाहते थे
मोहब्बत तो नहीं।

नौ

तमन्ना

तमन्नाओं के फूलों से
इस दिल को सजाया है
सूना दिल था यह मेरा
इसमें कोई बहारे लाया है। 

दस

खुद से ज्यादा

खुद से भी ज्यादा
तुम्हें प्यार करते हैं
खुदा से भी ज्यादा
तुम्हें याद करते हैं
आ जाओ कभी भूले से
हमारे घर
पलके बिछाए बस
यूं ही इंतजार करते हैं। 

Thursday, 11 September 2014

राखी पुरोहित की दस कविताएं


-राखी पुरोहित महादेवी वर्मा पुरस्कार से सम्मानित युवा कवयित्री है। आपने अपने आस-पास बिखरे संसार को खूबसूरत शब्दों में ढाला है। ये शब्द भावनाओं से परिपूर्ण है। आप युवा पत्रकार भी हैं। 

एक

एहसास

एहसास तो बहुत होगा
जब छोड़कर जाएंगे
रोयेंगे बहुत मगर
आंसू न आएंगे
जब साथ न दे कोई
आवाज हमें देना
सितारों में होंगे
तब भी लौटकर आएंगे।

दो

साहिल

दिल से दिल 
बड़ी मुश्किल से मिलते हैं
तूफानों में साहिल
बड़ी मुश्किल से मिलते हैं
यूं तो मिल जाते हैं हजारों
मगर आप जैसे दोस्त
नसीब वालों को मिलते हैं। 

तीन

गम

जिंदगी की वीरानियां
होती नहीं हैं कम
आंसू पी-पीके जीते हैं
गम होता नहीं है कम। 

चार

समझ

हम कहना कुछ और चाहते हैं
वो समझ कुछ और जाते हैं
वो चाहते हैं क्या हमसे
कभी ना यह बताते हैं। 

पांच

हाले-दिल

कभी-कभी आ जाया करो
मरीज-ए-दिल का
हाल पूछने
मर न जाये
कहीं तेरे इंतजार में हम। 

छह

मौका 

बड़ी मुद्दत से
इंतजार था
तुझे हाल-ए-दिल सुनाने को
आज मिला मौका
तो जालिम लब खामोश है। 

सात

तकदीर

क्यों देते हो सजा
अपने आप को सनम
तकदीर का लिखा
कभी मिट नहीं सकता।

आठ

बेनाम

तेरे प्यार को अब
क्या नाम दूं
बेनाम हो गए हैं
तेरे प्यार में हम। 

नौ

फूल

वो बाग किस काम का
यदि फूल न खिले
वो मिलना भी किस काम का
यदि दिल न मिले। 

दस

इंतजार

तेरे इंतजार ने 
मरने भी नहीं दिया
जब तक था इंतजार
मिलने नहीं दिया
आज जब 
इंतजार कर
थक गई आंखें
लाकर आपको मेरे सामने 
क्यों खड़ा कर दिया। 


अनीता जांगिड़ की चुनिंदा क्षणिकाएं


-अनीता जांगिड़ युवा पीढ़ी की सशक्त हस्ताक्षर है। आपने क्षणिकाओं के माध्यम से अपने भावों को इस तरह व्यक्त किया है कि पढ़ने वाला उसमें डूब सा जाता है। कविताओं के माध्यम से प्रेम की गहराई को बताना आपकी विशेषता है। यहां प्रस्तुत है कुछ रचनाएं। 

एक

फरिश्ता 

तेरी बातों में इतनी मुहब्बत क्यों है
तेरे दिल में सबके लिए 
इतनी जगह क्यों है
तू कोई फरिश्ता तो नहीं
इस जहां में
पर मेरे लिए
किसी फरिश्ते से कम तो नहीं। 

दो

बगावत

शिकवा क्या करूं तुमसे
क्या करें शिकायत
नसीब में नहीं है तू
तो रब से क्या बगावत
तेरे बिन दिन का न रात का 
पता चलता है
हर पल दीये सा मेरा दिल जलता है।

तीन

किस्मत

यह रब की मेहर है
तेरी खुशबू 
मेरे रोम-रोम में समाई है
और इस खुशबू से
मेरी सांसे महकाई है
काश हम भी कोई फूल होते
और इसी बहाने 
आप हमें छूते
पर ऐसी किस्मत कहां।

चार

लगन

लागी लगन तेरे प्यार की
भक्ति हो जैसे श्याम की 
इतनी प्रीत उससे करती
तो आ जाते वो वृंदावन धाम से।

पांच

तुझे पाना

तुझे पाना किसी ख्वाब से कम तो नहीं
तेरा हो जाना 
मेरे लिए गुमान से कम तो नहीं
तेरी यादों को
अपने दामन में संजोकर रखना
तेरे पास होने के
एहसास से कम तो नहीं। 

छह

बारिश की महक

बारिश की महक
तेरे प्यार की याद दिलाती है
भीगती हूं जब उस बारिश में
वो तेरे छूने का 
एहसास करवाती है
जब भर आती है मेरी आंख
उसी पल तुम भांप जाते हो
इसी लिए तो तुम
मेरे मन को छू जाते हो। 

सात

मुमकिन

हम साथ रहे
यह मुमकिन तो नहीं हो सकता
दिलों की नजदीकियों का
पता किसी को चल नहीं सकता
हमारे बीच
मुहब्बत की जो नाजुक डोर है
उसे दुनिया वाले तो क्या
खुदा भी तोड़ नहीं सकता। 

आठ

गहराई

मेरी मुहब्बत की गहराई
माप ले तूं
मैं तेरे शोहरत की
ऊंचाई माप लूं
अगर मांगने से मिल जाए मुझे
खुदा से तेरे लिए
सारी खुदाई मांग लूं। 

नौ

अफसाना

वक्त की कलम
दर्द की स्याही से
हमने एक फसाना लिखा
मिल जाए उसे यह पैगाम
जिसके लिए 
यह अफसाना लिखा। 

दस

दुखों की चादर

दिल के राज 
सभी खोल दूं
तेरे लिए जो मांगी है दुआ
खुदा से उसके साथ
अपने जज्बात जोड़ दूं
मिले तुझे खुशियां ही
जीवन में 
तेरे दुखों की चादर
मैं खुद ओढ़ लूं।