Friday, 6 December 2013

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शर्मा के शोध ने दिया कला को सम्मान

-डी.के.पुरोहित-

मारवाड़ हो या थार। चाहे बीकानेर नगर। हर तरफ गाने-बजाने वाली मांगणियार जाति मिल जाती है। आला दर्जे के गायक और कलाकार अपना इतिहास नहीं जानते। पूछने पर इतना ही कहते हैं कि हम मांग कर खाते हैं इसीलिए हम ‘मांगणियार’ हैं। लेकिन धुन के धनी एक साधक का मन न माना। उसने पचास साल तक शोध किया और आखिर निष्कर्ष यह निकला कि मांगणियार मांग कर खाने वाले नहीं गंधर्व है।

पचास साल के शोध के बाद यह ताजा तस्वीर इतिहासकार नंदकिशोर शर्मा ने भविष्य के पन्नों को दी है। शर्मा खुद प्रसिद्ध गायक, कवि, इतिहासकार होने के साथ अच्छे इंसान हैं। अच्छा इंसान हर किसी में अच्छाई देखता है। यही अच्छाई उनके शोध में सामने आई।

हुआ यूं कि एक दिन शर्मा सेवग लक्ष्मीचंद कृत तवारिख देख रहे थे। पृष्ठ संख्या 172 पर जो बातें लिखी थी उससे पता चला कि प्राचीन काल में गंधर्व, किन्नर और यक्ष सहित अनेक जातियां थी जो गा-बजाकर मांग कर खाती थी। लेकिन उनका मांगना याचना नहीं था, कला को बेचना था। उस समय उन गायकों को गंधर्व नाम से जाना जाता था। तवारिख में एक शब्द उल्लेखित हुआ है-महागुन्धर्ण। इस जाति के लोग सावु गांव में रहते थे। ये टोलियां अलग-अलग रूप से गाने-बजाने का काम करती थी और अपना गुजारा चलाती थी। कालांतर में महागुन्धर्ण का अपभ्रंश होते होते महागण और अंत में मांगण हो गया। और अब ये लोग अपने को मांगणियार समझते हैं।

नंदकिशोर शर्मा बताते हैं कि उनके पचास साल के शोध के बाद यह ताजा तस्वीर सामने आई है। उन्होंने कहा कि अब ये कलाकार स्वाभिमान और सम्मान से अपना इतिहास बता सकते हैं। स्वर सरिता के एक अंक में भी शर्मा का एक आलेख मिलता है, जिसमें इस जाति के उत्पत्ति से लेकर अभिव्यक्ति के इतिहास का रोचक वर्णन किया गया है।

शर्मा ने बताया कि उनका कई जातियों के नामकरण और गांवों के नामकरण पर शोध चल रहा है। 70 वर्षीय नंदकिशोर शर्मा जैसलमेर में संग्रहालय संचालित कर रहे हैं। धुन के धनी इस व्यक्ति ने अपनी जिंदगी का निचोड़ संग्रहाल में संग्रहित किया है। वे बताते हैं कि उन्हें न धन चाहिए न मान। बस स्वाभिमान के साथ समाज की सेवा करना उनका धर्म है। यही भाव लेकर वह जैसलमेर को नई दिशा दे रहे हैं।

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