गीत: डी.के. पुरोहित
हम आए हैं दुनिया में
जाएंगे कब कैसे कहां
इस बात को सोच-सोच के
परेशां हो घूमे न कहां-कहां
मिला न उत्तर मौन रहा आसमां
मिट्टी में मिला जीवनहार
बंद मुट्ठी आए थे, चले गए हाथ पसार
जीवन भर लादे रहे
पापों की गठरी कांधे पर
बदलते रहे चेहरे
ढूंढ़ते रहे घर किराए के
मोल भाव में उम्र गुजारी
रास न आया व्यापार
बंद मुट्ठी आए थे चले गए हाथ पसार
सपने हमने खूब बुने
बगिया से फूल खूब चुने
सुगंध का सार न समझ सके
भटकते रहे अंधेरी गलियों में
मचलते रहे रंग-रलियों में
समझ न सके अपना आधार
बंद मुट्ठी आए थे चले गए हाथ पसार
इससे रूठे, उससे रूठे
बदले जाने कितने खूंटे
कुछ थे सच्चे, कुछ थे झूठे
ये रिश्ते नाते भी है अनूठे
जितने आए इनके करीब
दूरियां बढ़ती गई हर बार
बंद मुट्ठी आए थे चले गए हाथ पसार।
0 comments:
Post a Comment