-इन्फोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने देश में नई बहस छेड़ी है,
उनका कहना है कि नेहरू के बाद साठ साल में देश में ऐसा नेता नहीं हुआ है
जिसकी वजह से देश में कोई नया आविष्कार या खोज हुई हो, होगी भी कैसे आजादी
के बाद नेहरू की पीढ़ियां ही शासन करती रही, कांग्रेस ने ही अधिक समय राज
किया, बाकी दलों ने देश को बढ़ाने की बजाय तोड़ने वाली ही राजनीति की,
प्रस्तुत है विश्लेषण:-
-डीके पुरोहित-
इन्फोसिस के संस्थापक
एनआर नारायणमूर्ति चर्चा में है। खास कर उनका यह बयान की बीते 60 साल में
एक भी ऐसी खोज नहीं हुई जो दुनिया भर में लोगों की जुबान पर हो। उन्होंने
कहा कि यह राजनीतिक नेतृत्व की कमजोरी है। उन्होंने नेतृत्व पर सवाल उठाते
हुए कहा कि जवाहरलाल नेहरू के बाद किसी भी प्रधानमंत्री ने प्रभावशाली
रिसर्च पर ध्यान नहीं दिया। वे बुधवार को इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के
दीक्षांत समारोह में बोल रहे थे। हालांकि यह उनकी व्यक्तिगत राय है, मगर जब
बात राष्ट्र के विकास और स्वाभिमान की आती है तो कोई बात व्यक्तिगत कैसे
हो सकती है। नेहरू ने आजादी को प्राप्त होते देखा है। वे खुद आजादी के
आंदोलन के सिपाही रहे हैं। लेकिन उनके बाद देश में कोई ऐसा नेता नहीं हुआ,
जिसने देश का हित देखा हो। यह बात भी अपनी जगह सही है कि कांग्रेस ने ही
लंबे समय तक देश पर राज किया। ऐसे में कांग्रेस की ही जिम्मेदारी रही कि वह
रिसर्च और आविष्कार के प्रति वैज्ञानिकों को माहौल उत्पन्न कराए।जब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने तब देश के हालात विकट थे। विभाजन की आग लगी हुई थी। चारों तरफ हिंसा से घिरा माहौल था। वे हालांकि वैज्ञानिक और विकासपरक सोच के प्रधानमंत्री रहे और अपने कार्यकाल में उन्होंने देश की बेहतरी के लिए बहुत कुछ किया। विदेशों में देश की साख बढ़ाई। लेकिन आजादी के बाद की समस्याओं से वे इतना घिरे हुए थे कि अधिक ध्यान नहीं दे पाए। बाद के नेताओं ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाने की बजाय कुर्सी से चिपके रहना ही पसंद किया। सच तो यह है कि कांग्रेस की बिरादरी ने अपनी परंपरागत और वंशानुगत राजनीति को ही बढ़ावा दिया। पहले जवाहरलाल नेहरू, फिर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और इस बीच कुछ अन्य नेता भी सत्ता में आए, मगर उन पर भी नेहरू परिवार की छाप रही। ऐसे में देश के बारे में सोचने की किसी ने जरूरत महसूस नहीं की।
आजादी के बाद अगर कोई महान नेता सामने आया तो वह नेहरू के बाद अटलबिहारी वाजपेयी ही थे। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में देश को मजबूती प्रदान की। उन्होंने विदेश नीति के आधार पर देश को दुनिया में नई पहचान दिलाई। अटलबिहारी को भारत रत्न दिया गया, मगर इससे पहले राजीव गांधी जैसे नेता को भी भारत रत्न दिया गया, जिन्होंने 21वीं सदी का सपना जरूर दिखाया, मगर वे भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रहे। ऐसे में कांग्रेस संस्कृति ने अपने ही अपने बारे में सोचा। देश के प्रति उनकी सोच कभी नहीं उभरी। इंदिरा गांधी जैसी नेत्री ने तो आपातकाल लगा कर लोकतंत्र की ही हत्या कर दी। अब यह बात साफ है कि एनआर नारायणमूर्ति किसको दोष दे रहे हैं। अधिकतर राज तो नेहरू के वंशजों ने ही किया। फिर अन्य पार्टियों को किस हद तक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। वे मिस्टर क्लीन थे, मगर बोफोर्स दलाली में कलंक लगा तो ऐसा लगा कि वे संभल नहीं पाए। बाद में उनकी हत्या के बाद कांग्रेस की वंशानुगत राजनीति कुछ समय के लिए ठहर गई, मगर सोनिया गांधी और राहुल गांधी प्रत्यक्ष रूप से सत्ता से बाहर ही रहे। कहा तो यही जाता रहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी ही संचालित करते थे। ये अपनी जगह अलग बात है। देखा जाए तो कांग्रेस ने इतने वर्षों तक राज करने के बाद भी देश के वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित नहीं किया।
देश में गैर कांग्रेसी सरकार बनने का दौर शुरू हुआ। खास कर अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के बाद भाजपा की ताकत बढ़ी। हालांकि उनके बाद फिर कांग्रेस सत्ता में आई, लेकिन राजनीतिक कुर्सी की लड़ाई की ओर क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा रहा। ऐसे में देश में मजबूत सरकारें नहीं बनी। दिल्ली में कांग्रेस तो अन्य राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां हावी रही। इस वजह से देश का प्रधानमंत्री अपने बलबूते पर निर्णय लेने में सफल नहीं रहे। बात अटलबिहारी वाजपेयी के शासनकाल की करें तो उन्होंने परमाणु परीक्षण कर देश को नई पहचान दिलाई। हालांकि इंदिरा गांधी के काल भी पहला परमाणु परीक्षण हो चुका था। मगर नेतृत्व ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया, जिससे देश में कोई नई रिसर्च या खोज हुई हो। आविष्कार के लिए वैज्ञानिक पैसों को तरसते रहे। इन वर्षों में नेता घोटाले करते रहे। देश काे आर्थिक नुकसान पहुंचाते रहे। भाई, भतीजों, रिश्तेदारों और परिजनों का कारोबार बढ़ता रहा। देश में राजनीतिक छवि दूषित होती गई। रक्षा और रिसर्च पर खर्चा बढ़ाने की बजाय नेता तिजोरियां भरते रहे। आज भी राजनीतिक छवि विदेशों में साफ नहीं है।
मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात करें तो उनकी छवि सांप्रदायिक प्रधानमंत्री की है। क्योंकि उन्होंने गुजरात में जो कारनामे दिखाए उससे अल्पसंख्यकों के मन में भय व्याप्त हो गया। आज भी मोदी की छवि में कहीं न कहीं वह दाग है। गोधरा कांड के बाद गुजरात में जो नरसंहार हुआ उससे मोदी बेशक साफ निकल आए हों, मगर वो दाग अभी भी धुला नहीं है। न मोदी मुसलमानों को पसंद करते हैं और न ही मुसलमान मोदी को। ऐसे में अल्पसंख्यक वैज्ञानिक भी डरे हुए हैं। मोदी की छवि आतंक फैलाने वाले नेता के रूप में रही है। हालांकि भारतीय राजनीति में मोदी दो-तीन साल में राष्ट्रीय छवि बनाने में सफल रहे, इसके पीछे उनकी योग्यता नहीं भाजपा नेतृत्व का अभाव रहा। आडवानी की वजह से भाजपा आगे बढ़ी, मगर इस दौर में उन्हें ही किनारा कर दिया गया। आरएसएस और हिंदू संगठन देश का बंटाढार करने में लगे हैं। उन्हें राम मंदिर के आगे कुछ दिखता ही नहीं है। ऐसे में देश में शांतिपूर्ण माहौल नहीं है। फिर कैसे आविष्कार हो, कैसे रिसर्च हो। आरक्षण का भूत इस देश की प्रतिभाओं का भक्षण कर रहा है। भला विदेशों में जातिगत आरक्षण है? आरक्षण के नाम पर देश की प्रतिभाओं ने आत्मदाह किया। इस आग पर राजनेता रोटियां सेंकते रहे। आरक्षण जब तक देश में जिंदा रहेगा, प्रतिभाएं आगे कैसे बढ़ेंगी। भला जो युवक 40 प्रतिशत अंक प्राप्त कर आरक्षण का फायदा उठा कर टीचर बन जाए या डॉक्टर बन जाए वो भला अपने शिष्यों को कैसे 100 प्रतिशत दिलाएगा। ऐसा कोटे से आने वाला डॉक्टर कैसे अच्छी चिकित्सा कर पाएगा। बहुत सी बाते हैं। बहुत से कारण है। कुल मिला कर कुर्सी से चिपके रहने वाली राजनीतिक परिस्थितियों के चलते देश में कैसे आविष्कार होंगे, कैसे रिसर्च को बढ़ावा मिलेगा। अब विनम्र निवेदन नरेंद्र मोदी से हैं। जो सपना उन्होंने सवा सौ करोड़ देश की जनता को दिखाया है, वो सपना मरने नहीं दे। काश ऐसा हो पाएं...हम तो यही दुआ करेंगे।
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