गीत : डी.के. पुरोहित
फरेब की रोशनी से तंग हो
अपने जहां में लो अंधेरा करें
इस जहां को जरूरत नहीं है हमारी
उस जहां में चल बसेरा करें
कल जब हमारा इतिहास लिखेगा वक्त
हम हारे मुसाफिर कहाएंगे
जग के जुआघर में यारों
अपना सब कुछ लुटा जाएंगे
आंगन की आंच में जलते हुए
फिर से कोर्इ पगफेरा करें
इस जहां को जरूरत नहीं है हमारी
उस जहां में चल बसेरा करें
कल भी जलेंगे दीये हजारों
पर वो तारा नजर नहीं आएगा
कुछ रोज अफसोस करेगी दुनिया
फिर हर कोर्इ भूल जाएगा
जीवन के श्यामपट पर लो
अब हम कोर्इ घेरा करें
इस जहां को जरूरत नहीं है हमारी
उस जहां में चल बसेरा करें
न हम बदल सके न दुनिया बदली
यह गम ले हो रहे हैं जुदा
सौ सौ शिकवा लेकर मन में
आ रहे तेरे पास ओ खुदा
भरी महफिल छोड़ जा रहे दोस्त
अब क्या तेरा-मेरा करें
इस जहां को जरूरत नहीं है हमारी
उस जहां में चल बसेरा करें।
फरेब की रोशनी से तंग हो
अपने जहां में लो अंधेरा करें
इस जहां को जरूरत नहीं है हमारी
उस जहां में चल बसेरा करें
कल जब हमारा इतिहास लिखेगा वक्त
हम हारे मुसाफिर कहाएंगे
जग के जुआघर में यारों
अपना सब कुछ लुटा जाएंगे
आंगन की आंच में जलते हुए
फिर से कोर्इ पगफेरा करें
इस जहां को जरूरत नहीं है हमारी
उस जहां में चल बसेरा करें
कल भी जलेंगे दीये हजारों
पर वो तारा नजर नहीं आएगा
कुछ रोज अफसोस करेगी दुनिया
फिर हर कोर्इ भूल जाएगा
जीवन के श्यामपट पर लो
अब हम कोर्इ घेरा करें
इस जहां को जरूरत नहीं है हमारी
उस जहां में चल बसेरा करें
न हम बदल सके न दुनिया बदली
यह गम ले हो रहे हैं जुदा
सौ सौ शिकवा लेकर मन में
आ रहे तेरे पास ओ खुदा
भरी महफिल छोड़ जा रहे दोस्त
अब क्या तेरा-मेरा करें
इस जहां को जरूरत नहीं है हमारी
उस जहां में चल बसेरा करें।
0 comments:
Post a Comment