Monday, 6 October 2014

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दीये को गले लगाया


गीतः डी.के. पुरोहित

रोशनी की तलाश में
दीये को गले लगाया
खूब पछताए हम, जब
दीप तले अंधेरा पाया

यहां जो दिखता है
मृग मरीचिका का घर है
जो जितना बलवान है
उसी के भीतर डर है

हमने बनाई अपनी पहचान
जब-जब खुद को मिटाया
रोशनी की तलाश में 
दीये को गले लगाया

समय रुकता नहीं दीवार से
जीवन भागा जाए रे
थोड़ी दूर चले ही थे
उसके घर का बुलावा आए रे

सपनों की कंदराओं में
खुद को अकेला पाया


रोशनी की तलाश में

दीये को गले लगाया

क्षण-क्षण क्षय सांसे होती
अब माटी रही पुकार
पहले खुले हाथ लुटाया
अब करने लगे विचार

चिडि़या खेत चुग गई सारा
रे मन अब क्यूं पछताया


रोशनी की तलाश में
दीये को गले लगाया


अनंत आसमां की छाती पर
बादलों का गहन डेरा
सूरज कब तक छुपा रहता
आखिर छंटता है अंधेरा

सुख-दुख धूप-छांव समान
है इंद्रधनुषी यह माया


रोशनी की तलाश में
दीये को गले लगाया। 


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