Wednesday, 9 November 2016

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डीके पुरोहित की कुछ क्रांतिकारी रचनाएं

मन की बात वे ही बोले
मन की बात 
वे ही बोले
सधे हुए और
नापतोले
भीतर उनके
भरें हैं शोले
भगवा रंग
बम-बम भोले
हमला करते
होले-होले
जनता रोए
रोती रो ले
फर्क नहीं
पोलम-पोलें
मन की बात
वे ही बोले
दर्द सुनामी
खाए हिचखोले
बारूद खरीदे
असला मोले
उनका सोना
असली तोले
बाकी बात
लगे मखोले
मन की बात
वे ही बोले
सत्ता बहके
दागे गोले
दरोगा-जी
चमड़ी छोले
अफसर खाए
रबड़ी-छोले
पिसते रहते
हरिया-भोले
पीके चाय
दारू-सा डोले
मन की बात
वे ही बोले
सिर उठाए
हंटर बोले
मुंह खोलें तो
मुंह की रो ले
चोट करारी
हर जगह फफोले
मन की बात
रहे टटोले
सौदागर वे
मंझे है लोले
मन की बात
वे ही बोले।
झंडे लहरा रहे हैं
झंडे लहरा रहे हैं
खतरे मंडरा रहे हैं
दहशतगर्द डरा रहे हैं
कांटे बिखरा रहे हैं
अपने हरा रहे हैं
प्रश्न गहरा रहे हैं
आशंका पसरा रहे हैं
चारों ओर सहरा रहे हैं
नोट चरमरा रहे हैं
बारूद भरा रहे हैं
शासक बहरा रहे हैं
इस दौर में दोस्तो
हमें गलत ठहरा रहे हैं...।
………
आज की रात
आज की रात 
लगता है कुछ अलग है
रास्ते में
कई रास्ते हो गए हैं
समझ नहीं आ रहा
किधर जाएं
वो झंडा लिए है
आतिशबाजी कर रहे हैं
खूब प्रफुल्लित है
कहा जा रहा है पूंजीवादी ताकतें टूट गई
लेकिन
 
ताकत तो ताकत है
वाकई कोई टूटा है तो हरिया नाई
उसकी बेटी की शादी में खलल पड़ा
उनके चेहरों पर अभी रंज नहीं है
बस कयास लगाते रहो
जिन्होंने उन्हें बनाया
उन्हें मिटाना इतना आसान कहां है
कल अखबार में कई पंक्तियां होंगी
कई जुमले आएंगे
नई बहस होगी
वे अपनी घोषणाओं पर बोरा रहे होंगे
फिर महीनों बहस चलेगी
कहीं आत्महत्या की खबर आएगी
मगर करेगा तो कोई रमनलाल
या मदनलाल
या बाबूलाल या छगनलाल
जिनके घर माल है
वे तो कोई रास्ता निकाल लेंगे
चलो
हम भी खुश हो लेते हैं
उन्हें बधाई देते हैं
असली बधाई तब होगी
जब सीताराम को मेहनत के
पूरे दाम मिलेंगे
श्रमिकों का शोषण रुकेगा
मेरे सवाल अपनी जगह कायम है
वे भी अपनी जगह कायम है
चलो खुश हो लो आज की रात
कल से फिर उसी रास्ते होकर
मुझे काम पर आना है
बस स्टॉप की भीड़ का हिस्सा बनना है
चलो आज की रात खुश हो लो
कल फिर यूं ही चलेगी दुनिया।
………………..

जाग रहा हूं
या मैं जाग रहा हूं
या वो
जिसने ये आग लगाई
चलो वाह-वाही
देश में एक और देश पल रहा है
उनके कदमों पर
नौजवान मचल रहा है
वहां मातम हैं
जहां बज रही थी शहनाई
चलो आपको बधाई
दोस्तों
कदम-कदम जाल है
मौसम गीला
परींदे पर भ्रमजाल है
घर लौटो
कोई इंतजार कर रहा
इसी में है भलाई
राजनीति है छितराई
चलो एक बार फिर बधाई।

गजल: डी.के. पुरोहित
चलो फिर कोई नई बात करें 
चलो फिर कोई नई बात करें
गैर नही ंतो अपनों पर घात करें
अपराध का कोई समय नहीं होता
इसे हर दिन, हर इक रात करें
सजा कौन दे सकता है हमें
कचहरी में फाइलों से मुलाकात करें
गलती से गर हो गया दुष्कर्म
फिर रुपयों से मामला शांत करें
थाना हमारा, सरकार हमारी
फिर अफसरों से किस बात डरें
अंग्रेज चले गए आजादी देकर
कहां गई आजादी मालूमात करें ।

गजल : डी.के. पुरोहित
आस्तीन में सांप पलते रहे
आस्तीन में सांप पलते रहे
नफरत के सांचों में ढलते रहे
जितना अमृत बांटना चाहा
खुदगर्ज जहर उगलते रहे
हादसे दर हादसे होते रहे
ये नेता पैंतरे बदलते रहे
हमने मांगी थी बस रोटी
वे दवाएं सस्ती करते रहे
जिन्होंने उठाया अपना सिर
वे मुकदमों से कुचलते रहे
यहां अपने हमाम में सब नंगे
रोज तोलिया ही बदलते रहे।                                                                


हर-हर गंगे

हर हर गंगे, हर हर गंगे
चारों ओर सियार है रंगे
बात-बात पर होते दंगे
ऊपर-नीचे ढंके, फिर भी नंगे
उनसे तुम ना लेना पंगे
हर हर गंगे, हर हर गंगे
चोरों से बढ़कर है चोर
चारों ओर मचा है शोर
घायल वक्त, वहशी है दौर
ढूंढ़े आखिर कौनसा ठौर
भूखे भेड़िए बसे हर ओर
बगुले बने हैं मनचंगे
हर हर गंगे, हर हर गंगे।

……..

लिखने से समझौता कर लेते

लिखने से समझौता कर लेते को पूजे जाते
लोग हमारे भी शान में गीत गाते
हमने ऐसा हुनर अभी तक सीखा नहीं
खुशामद से अपनी मंजिल पाते
चाराें ओर नफरत के बाजार पल रहे
आओ कुछ अंगारे हम भी खरीद लाते
शब्दों में प्राण है, शरीर कब अपना है
झुक जाते तो उस घर में मुंह कैसे दिखाते
अगल-बगल घूम रहे हैं भेडि़ए
कब कहां कैसे चाकू-छुरियां चलाते
मिटना तो तय है एक दिन जमाने में
फिर चाहे वे लाख जोर आजमाते।
………. 

मेरी कलम उस कलम के लिए उठती है
साजिशी कागज पर जो नहीं मचलती है
मैंने देखा था जमाना उसका दुश्मन है
मेरी उम्र उस शख्स पर ही मरती है
उन्हें मिल जाए मेरी उम्र और सांसे
जहां क्रांति की मशाल बेखोफ जलती है
फूलों की चाह में जिसने जवानी बर्बाद की
वो नजर मेरी नजर में खलती है
मेरी डगर आसां नहीं है दोस्तो
वो हर दिन मौत जेब में ले चलती है
जो घर फूंक तमाशा देख रहे आओ
मेरे घर भी एक कविता पलती है।
…….

जिसे देखा था कभी वतन पर मरते

जिसे देखा था कभी वतन पर मरते
उसे देखा है बेसमय ढलते
चारों ओर पसर गए हैं जंगल
भेड़िया देखो पगडंडियों पर टहलते
ठोकर खा कर वो गिरा ऐसे
मौत आ गई उसे चलते-चलते
घर से बाहर था जिसे मौत का खतरा
उसे देखा घर में ही उजड़ते
दोस्तों लिखने की सजा मंजूर हमें
देख नहीं सकते आस्तीन में सांप पलते
और अगर हमें कोई सजा दे सच की
देर नहीं लगेगी शरीर से प्राण निकलते।                                                        

जिसे देखा था कभी जिंदादिल

जिसे देखा था कभी जिंदादिल
उसने तलाश लिया अपना बिल
वो लिखता रहा गम के गीत
अब रोने लगा है तिल-तिल
ब्रह्मांड में जगह ढूंढ़ना मुश्किल
खलने लगी है बहरों की महफिल
कलम पर भी यारों सेंसर है
वक्त बना देता है सबको बुझदिल
जो अजातशत्रु है, उसकी बात करें
सहरा में भी मिल जाता है साहिल
हमने गमो-दिल-अधीरता पर
कर ली है दोस्तों एमफिल
जिसने मरने का हुनर सीख लिया
फिर लाख जमाना हो संगदिल।
…………..

गजल: डी.के. पुरोहित 
वे नारों से देश बदल रहे हैं
वे नारों से देश बदल रहे हैं
मुंह में राम बगल में छुरियां ले चल रहे हैं 

पानी मिले न मिले गांव-शहर में 

दारु के दरिया हर गली निकल रहे हैं
विकास के नाम पर पेड़ कट रहे
 
धुंआ घड़ी भर का चैन निगल रहे हैं
 
जिधर देखो उधर हालात विकट है
 
परछाइयों के भी अब पर निकल रहे हैं
 
हत्या, लूट, डकैती और दुष्कर्म
 
अपराध की होड़ में आगे निकल रहे हैं
देश अपना है रहम करो
 
यारों घर में ये कैसे जंगल पल रहे हैं
……………….

दिल वालों की दिल्ली में.

दिल वालों की दिल्ली में सौदागार मौत के बसते
हमारी छत आसमां और वे किले-महलों में रहते
हमें मारना बड़ा आसान, उन तक भला कैसे पहुंचते
बाहर निकलते तो गार्ड साथ में, कैसे भला फरियाद देते
एसी चैंबर में बैठ नेताजी गरीबों को आश्वासन देते
लिए कैमरे-कलम मीडिया, उनकी नई पहचान बनाते
सत्ता-कुर्सी-शासन उनका, हारे को जासूस समझते
गरीब की बेटी होना अपराध, हत्या-रेप नित सहते
जो आवाज उठाई तो बुलडोजर से छत रौंदते
नारों पर तालियां पीट रहे, भीड़ में ठेकेदार निकलते
पीढ़ियां देश में बीती, फिर भी देशभक्ति के प्रमाण मांगते
दहशत-दहशत गांव में ऐसी, दरक गए सारे रिश्ते
हमारी कोई आवाज सुने, आओ अब ऐसे फरिश्ते।
……………..

घायल दिल्ली 

घायल दिल्ली चिल्ला रही है, कोई नहीं सुनने वाला
सत्ता के नीचे सत्ता है, नहीं रास्ता मिलने वाला
वो कदम उठाते सागर में, सुनामी रोक रही रास्ता
जिन्हें गरीबों का दर्द है, उन्हें कुचलना किसे कहें दास्तां
हमने जीती पूरी दिल्ली, वे देश के ठेकेदार बने हैं
अपनी ताकत से बारूब-असलेदार बने हैं
हार-हार कर वार करते, प्रेम कपास नहीं बुनने वाला
मां-बेटी-बहन सहमी है, कदम-कदम कुचलने वाला।

…………..

पीके चाय बहकने वालों

पीके चाय बहकने वालो हम हाला के आभारी है
शूट-बूट में जा रहे विदेश, देश बेचने की तैयारी है
नशा सत्ता का देखो यारों, हमें मधुशाला प्यारी है
चेहरे पर खून के छींटे, 
आंगन बारूद की फुलवारी है
दुनिया की चकाचौंध में चारों मक्कारों से यारी है
बॉर्डर पर मर रहे सैनिक, श्रेय लेने की होशियारी है
गलती से गर किया विरोध, पड़ना उस पर भारी है
लो हम भी कबीर बने, अलख जगाने की बारी है।

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