Wednesday, 16 November 2016

डीके पुरोहित की रचनाएं

सीधी-सादी सरकार चाहिए
तीर न तलवार चाहिए
सीधी-सादी सरकार चाहिए
न दलाल न व्यापार चाहिए
हर दिन त्योहार चाहिए
खुशियों का पारावार चाहिए
मुस्कुराता घर-बार चाहिए
कांटों की न बाड़ चाहिए
फूलों की बहार चाहिए
स्वागत है ईद-दिवाली का
आप भी हमारे घर आइए।
……………….
यह न सोचो डर गया
यह न सोचना की डर रहा हूं
हां, कुछ देर ठहर रहा हूं
उनसे लड़ने के लिए तैयार हूं
परिवार को संभालने घर रहा हूं
क्रांति की लौ तो जला चुका हूं
जोत बडी न हो तेल भर रहा हूं
मेरी जंग में हथियार नहीं
कलम में स्याही भर रहा हूं
उन्होंने कागज छीन लिया
नई जमीन तलाश कर रहा हूं
मेरी मौत का फरमान निकला
सामना उनसे कर रहा हूं।
………………
चींटी के पर निकल रहे हैं
नोट जल रहे हैं, खोटे सिक्के चल रहे हैं
नेताजी कब विदेश को निकल रहे हैं?
अगली बार लौटो तो फिर जुमला फेंकना
अजगर सारे मिल देश को निगल रहे हैं
श्रमिकों की किस्मत कब जागेगी
फैसले सारे फाइलों में टल रहे हैं
आप तो हमारे माई-बाप हो श्रीमान
बताओ ट्रम्प से कब मिल रहे हैं?
आप तो शूट-बूट में खूब जंच रहे
हरिया नाई के तो पेबंद निकल रहे हैं
चलो आज गरीब-अमीर एक है
हमारे खाते में नोट कब डल रहे हैं
सुना है आपकी पार्टी भी नुकसान में है
फिर किस दम अकड़ चल रहे हैं
इसके पीछे का कोई राज बताओ
नेता कब टकसाल में ढल रहे हैं
माफ करना कुछ बुरा लगा हो
इस चींटी के पर निकल रहे हैं
……………
हुनर
आपमें कई हुनर है, मुझमें नहीं कोई
कुछ कमा ले बेटा, मां बहुत रोई
मैं मां को दिलाशा देता रह हर बार
उसकी आंख में आंसू थे जब वो सोई
नेताजी आपने नारे तो खूब दिए
मुझे काम देता नहीं साहूकार कोई
पढ़ाई की सब व्यर्थ गई, पत्नी कोसे
इस गरीब बेकार को संभाले कोई
चलो नोट बंद किए कुछ नहीं
इस नाचीज के लिए किवाड़ खोले कोई
आपको बीज के पूरे दाम मिल रहे
ऐसा हुनर मुझे भी सिखाए कोई
…………..
आप समझदार हैं
घर जाने में पांच मिनट बाकी है
रुको, सामने कोई बिल्ली डाकी है
राजाजी मुझे माफ कर देना
इस कलम में नहीं चालाकी है
आप तो समझदार है, बड़े हैं
आपने कई बिल्लियां हांकी है
चाय तो अब मिलेगी नहीं
बगल में खाली दुकां हाला की है
आओ कभी हमारे साथ बैठो
सत्ता की दोस्ती खाला की है
जुआ खेल रहे हैं महलों में
पुलिस उस तरफ नहीं झांकी है
अब बस आज इतना ही
कल आपसे मुलाकात बाकी है
………….
मां और मोदी
कवि की मां का घर से फोन आया है
बेटा मोदी के खिलाफ मत लिखना
मां तक भी पहुंच गई खबर
मोदी के गुर्गों ने उसे भी धमकाया होगा
मैं मां को क्या कहता
उसके लिए बेटा घर का चिराग है
उसकी बहू, पोता
घर पर इंतजार कर रहे हैं
इन दहशतगर्दों के आगे
 
मां बेबस है
मगर कब तक?
मेरी मां ने मोदी को वोट दिया
मेरे भाइयों ने भी मोदी को वोट दिया
मेरी पत्नी वोट नहीं देती
मेरा बेटा अभी छोटा है
मैं तो खुद वोट नहीं दे पा रहा
क्योंकि अखबार की नौकरी है
छुट्टी लेकर पैसे खर्च कर
वोट देने जाना जरूरी नहीं समझता
वो भी तब
 
जब देश में मोदी का आना तय हो गया
मेरे पड़ोस में मुसलमान रहते हैं
वे डरे और सहमे है
झंडा लिए
बैनर लिए
आतंक फैलाते
वे कब दस्तक दे दें कह नहीं सकते
उनके पास सत्ता है
ताकत है
लेकिन जिन्होंने देश का भला सोचा हो
वो भला मोदी से कब डरते हैं
मोदी तो एक भूत है
जो इस देश के युवाओं को अपने वश में कर चुका है
देश के जवान वो भी है
देश का जवान मैं भी हूं
लोकतंत्र ने उन्हें भी आजादी दी है
लोकतंत्र ने मुझे भी आजादी दी है
मैं अखबार में कभी खबर नहीं लिखता
क्योंकि अखबार पर
उन पूंजीवादी घरानों का कब्जा है
जिन्होंने मोदी को मोदी बनाया
मैं तो कबीर हूं
मुझे मोदी से डर नहीं
मेरे पास एक कलम है
उनके पास असला बारूद है
वे कभी भी मुझ पर हमला कर सकते हैं
मगर मैंने डरना नहीं सीखा
लिखने की आजादी वे न भी दें तो
 
मैं इमरजेंसी में भी लिखूंगा
मोदी के विरोध का सवाल नहीं है
सवाल देश का है
उस देश का जहां राम-रहीम मिलकर रहते हैं
मुझे पूरे देश को गुजरात बनने से बचाना है
जब तक श्रमिक को उसकी मेहनत के पूरे दाम नहीं मिलते
मुझे मेरी मेहनत का परिणाम नहीं मिलता
मैं इस देश
और इस देश के गरीब-श्रमिक के लिए
 
लिखता रहूंगा
मां ने हालांकि मना किया है
मोदी के खिलाफ लिखने को
मगर जिस दिन मेरी कलम शांत हो जाएग
एक आवेग भीतर का मर जाएगा
मैं अपनी कलम के साथ जिंदा लाश बना रहूंगा
इसलिए मां
मुझे माफ कर देना
मोदी के खिलाफ फिर लिख रहा हूं
मां मुझे माफ करना
तुम्हारा कहना नहीं मान रहा
मगर मुझे लड़ना है
अपनी लड़ाई
सिर्फ कलम से।
…………..
बड़ा कौन?
देशबड़ा या मिर्ची बड़ा
सोच रहा आदमी खड़ा-खड़ा
भूख मिटे तो देश की सोचे
नींद में हरिया रहा बड़बड़ा
नोट बंद हुए, पैंतरा देखो
दुकान पर कोई रहा गिड़गिड़ा
एक आशियां बनाया था
आंखों के सामने भरभरा रहा।
………..
शोर
चारों तरफ शोर है
बगुले नारे लगा रहे हैं
रावण के आदेश पर
कुंभकरण जगा रहे हैं
राम अभी सामने नहीं
मायामृग भगा रहे हैं
इस दौर की शरारत
अपने मोहरे लगा रहे हैं
ठग को मिल रहे ठग
जानकर ठगा रहे हैं
………..
देश
देश नारों में तब्दिल हो गया है
चारों तरफ आग है
बारूद है
गोलियां है
खंजर है
तलवारें हैं
झंडों के साये में वे
भीड़ जुटा रहे हैं
मुट्‌ठी भर लोग
देश को हांक रहे हैं
जिनके घर-दफ्तर
रिजर्व बैंक देते हैं हाजिरी
वहां से एक चिंगाारी निकली
सारे नोटों को आग लगा दी
लेकिन जले तो वो
जो कर्जदार थे
जले तो वो
जो नौकरी-पेशा में थे
जले तो वो
देश का मैला उठाते हैं-
सड़क बनाते हैं
महल बनाते हैं
बड़े नोटों से
बड़े बीमे हो रहे हैं
बड़े नोटों से
बड़े सौदे हो रहे हैं
बड़े लोग
वाकई बड़े हैं
अभी भी शान से खड़े हैं
देश में अफवाहों का दौर है
नमक की दलाली हो रही है
कहीं नमक हरामी हो रही है
मेरा देश सौ करोड़ का देश
एक भेड़ चाल चल रहा है
अपने आका के फैसले पर मचल रहा है
राजाजी आपने जो
 
गरीबों के खाते खुलवाए थे
क्या अमीरों के नोट
उसमें डलवा रहे हैं?
सौ सवाल
सौ कानून
केवल गरीब के लिए
अशक्त-निशक्त के लिए
राजाजी आपका न्याय दिखता जरूर है
पर होता नहीं
देश जल रहा है
नीरो बांसुरी बजा रहा है
चलो आपके फैसले सर आंखों पर
आपका सच
मेरा सच
अभी बहुत फासले पर है
इसे पूरा करना
बेशक हमारे वेश में नहीं
अभी तो इंतजार है
उनके पूरे कार्यकाल का
आगे कैसे-कैसे मंजर आते हैं
गाते-गाते लोग चिल्ला रहे हैं
वे है कि साज-सुर सजा रहे हैं
बहरों की महफिल में संगीत गूंज रहा है
मैं भी अपनी बात को बीच में छोड़ रहा हूं
मुझे घर पहुंचने की जल्दी है
कोई इंतजार कर रहा है
भीड़ का कोई मजहब नहीं होता
भीड़ का कोई मित्र नहीं होता
इसलिए मुझे
 
कुछ कहना भी जरूरी था
और कहने के लिए अभी खूब वक्त है।
 
हम कल फिर मिलेंगे।
…………
दिल्ली के कानून
दिल्ली के कानूनों से डर लगता है                                                                  तवायफों से भरा घर लगता है
गांव की चौपाल रूठ गई
ऐसा शहर का असर लगता है
गिद्ध दे रहे पहरा कुर्सी पर
भेड़िया रिश्तेदार लगता है
मरना था हाथी, मरी चींटी
जब उसके भी पर लगता है।
……………..
दो दरबारी
दिल्ली में दो दरबारी
राग रहे अलाप
जनता के आड़े आ रहे
पिछले जनम के पाप
एक देश को हांक रहा
दूसरा बन गया सांप
दोनों मिलकर डस रहे
अब करते रहो विलाप
नौटंकी नौ-नौ मील
दिखा रहे प्रताप
जनता के गालों पर
नित पड़ रही थाप।
……………
कैसे मरा?
वो मरा तो कैसा मरा?
कवि जो था शिरफिरा।
आग थी उसकी कलम में
क्या बाइक से गिरा
या फांसी के फंदे पर
फंस गया उसका सिरा
जहर भी उसे देते थे
पीता था खूब मदिरा
भांग से भी दोस्ती थी
महफिल करता किरकिरा
क्या उसका शीश काटा गया
क्यों घूमता वो फिरफिरा
ट्रेन से कटना मंजूर नहीं
जल्दी में न था मित्र मिरा
फिर मरा तो कैसे मरा
कवि जो था शिरफिरा। 
अब क्यों रोते है सब
जमीं फटती न क्यों भर-भरा।
………….
भूकंप-जलजले
देश में कई बार भूकंप आए, जलजले आए। 
न कोई नेता मरे, न अफसर समाए
अवाम मरी, आवाज मरी, मर गए सपने
कोई मेरी ये आवाज उस तक पहुंचाए
क्या प्रभु की इसमें भी कोई साजिश ह
अगर हां, तो फिर मूर्ति को क्यों शीश झुकाएं
पते की बात कहता हूं कवियों-शिल्पियों
आग लगाने वाले खिलाड़ी हैं मंजे-मंझाए।
…………..
पतवार
लड़ रही थी लहरों से जो पतवार
डुबों दी उन्होंने, सावधान-खबरदार
उनके मरने का रंज उन्हें ही है
जो कि बचाने उन्हें ढूढ़ते रहे मझधार
कौन कहता है शराब ने उन्हें लीला
उनकी मौत पर साजिशें थीं हजार
एक न एक दिन उन्हें तो मरना था
क्यों कि वे सौ करोड़ की थी तरफदार
दोस्तों कर लो संगोष्ठियां-चर्चाएं
लौटेगा नहीं जो गया छोड़ संसार
मैंने अभी कुछ आग बचाकर रखी
जलाऊंगा लंका, जब सजेगा दरबार।
(एक काफिर कवि की असमय मौत की कल्पना से सिहर उठा हूं। लोकतंत्र में ऐसे सपने कब सच हो जाए कह नहीं सकता। जागते रहो मेरे भाई, सोने वाला तो सोता रहता है।)
…………..
मौसम
फसल कटने का मौसम आया है। 
रकम बंटने का मौसम आया है
जरूरत नहीं इस कर्मचारी की
फैक्ट्री से छंटने का मौसम आया है
शब्दों को शर्मींदा न करो
कवि घटने का मौसम आया है
तोते बोल रहे हैं पिंजरे में
स्वार्थ रटने का मौसम आया है। 
…….




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Wednesday, 9 November 2016

डीके पुरोहित की कुछ क्रांतिकारी रचनाएं

मन की बात वे ही बोले
मन की बात 
वे ही बोले
सधे हुए और
नापतोले
भीतर उनके
भरें हैं शोले
भगवा रंग
बम-बम भोले
हमला करते
होले-होले
जनता रोए
रोती रो ले
फर्क नहीं
पोलम-पोलें
मन की बात
वे ही बोले
दर्द सुनामी
खाए हिचखोले
बारूद खरीदे
असला मोले
उनका सोना
असली तोले
बाकी बात
लगे मखोले
मन की बात
वे ही बोले
सत्ता बहके
दागे गोले
दरोगा-जी
चमड़ी छोले
अफसर खाए
रबड़ी-छोले
पिसते रहते
हरिया-भोले
पीके चाय
दारू-सा डोले
मन की बात
वे ही बोले
सिर उठाए
हंटर बोले
मुंह खोलें तो
मुंह की रो ले
चोट करारी
हर जगह फफोले
मन की बात
रहे टटोले
सौदागर वे
मंझे है लोले
मन की बात
वे ही बोले।
झंडे लहरा रहे हैं
झंडे लहरा रहे हैं
खतरे मंडरा रहे हैं
दहशतगर्द डरा रहे हैं
कांटे बिखरा रहे हैं
अपने हरा रहे हैं
प्रश्न गहरा रहे हैं
आशंका पसरा रहे हैं
चारों ओर सहरा रहे हैं
नोट चरमरा रहे हैं
बारूद भरा रहे हैं
शासक बहरा रहे हैं
इस दौर में दोस्तो
हमें गलत ठहरा रहे हैं...।
………
आज की रात
आज की रात 
लगता है कुछ अलग है
रास्ते में
कई रास्ते हो गए हैं
समझ नहीं आ रहा
किधर जाएं
वो झंडा लिए है
आतिशबाजी कर रहे हैं
खूब प्रफुल्लित है
कहा जा रहा है पूंजीवादी ताकतें टूट गई
लेकिन
 
ताकत तो ताकत है
वाकई कोई टूटा है तो हरिया नाई
उसकी बेटी की शादी में खलल पड़ा
उनके चेहरों पर अभी रंज नहीं है
बस कयास लगाते रहो
जिन्होंने उन्हें बनाया
उन्हें मिटाना इतना आसान कहां है
कल अखबार में कई पंक्तियां होंगी
कई जुमले आएंगे
नई बहस होगी
वे अपनी घोषणाओं पर बोरा रहे होंगे
फिर महीनों बहस चलेगी
कहीं आत्महत्या की खबर आएगी
मगर करेगा तो कोई रमनलाल
या मदनलाल
या बाबूलाल या छगनलाल
जिनके घर माल है
वे तो कोई रास्ता निकाल लेंगे
चलो
हम भी खुश हो लेते हैं
उन्हें बधाई देते हैं
असली बधाई तब होगी
जब सीताराम को मेहनत के
पूरे दाम मिलेंगे
श्रमिकों का शोषण रुकेगा
मेरे सवाल अपनी जगह कायम है
वे भी अपनी जगह कायम है
चलो खुश हो लो आज की रात
कल से फिर उसी रास्ते होकर
मुझे काम पर आना है
बस स्टॉप की भीड़ का हिस्सा बनना है
चलो आज की रात खुश हो लो
कल फिर यूं ही चलेगी दुनिया।
………………..

जाग रहा हूं
या मैं जाग रहा हूं
या वो
जिसने ये आग लगाई
चलो वाह-वाही
देश में एक और देश पल रहा है
उनके कदमों पर
नौजवान मचल रहा है
वहां मातम हैं
जहां बज रही थी शहनाई
चलो आपको बधाई
दोस्तों
कदम-कदम जाल है
मौसम गीला
परींदे पर भ्रमजाल है
घर लौटो
कोई इंतजार कर रहा
इसी में है भलाई
राजनीति है छितराई
चलो एक बार फिर बधाई।

गजल: डी.के. पुरोहित
चलो फिर कोई नई बात करें 
चलो फिर कोई नई बात करें
गैर नही ंतो अपनों पर घात करें
अपराध का कोई समय नहीं होता
इसे हर दिन, हर इक रात करें
सजा कौन दे सकता है हमें
कचहरी में फाइलों से मुलाकात करें
गलती से गर हो गया दुष्कर्म
फिर रुपयों से मामला शांत करें
थाना हमारा, सरकार हमारी
फिर अफसरों से किस बात डरें
अंग्रेज चले गए आजादी देकर
कहां गई आजादी मालूमात करें ।

गजल : डी.के. पुरोहित
आस्तीन में सांप पलते रहे
आस्तीन में सांप पलते रहे
नफरत के सांचों में ढलते रहे
जितना अमृत बांटना चाहा
खुदगर्ज जहर उगलते रहे
हादसे दर हादसे होते रहे
ये नेता पैंतरे बदलते रहे
हमने मांगी थी बस रोटी
वे दवाएं सस्ती करते रहे
जिन्होंने उठाया अपना सिर
वे मुकदमों से कुचलते रहे
यहां अपने हमाम में सब नंगे
रोज तोलिया ही बदलते रहे।                                                                


हर-हर गंगे

हर हर गंगे, हर हर गंगे
चारों ओर सियार है रंगे
बात-बात पर होते दंगे
ऊपर-नीचे ढंके, फिर भी नंगे
उनसे तुम ना लेना पंगे
हर हर गंगे, हर हर गंगे
चोरों से बढ़कर है चोर
चारों ओर मचा है शोर
घायल वक्त, वहशी है दौर
ढूंढ़े आखिर कौनसा ठौर
भूखे भेड़िए बसे हर ओर
बगुले बने हैं मनचंगे
हर हर गंगे, हर हर गंगे।

……..

लिखने से समझौता कर लेते

लिखने से समझौता कर लेते को पूजे जाते
लोग हमारे भी शान में गीत गाते
हमने ऐसा हुनर अभी तक सीखा नहीं
खुशामद से अपनी मंजिल पाते
चाराें ओर नफरत के बाजार पल रहे
आओ कुछ अंगारे हम भी खरीद लाते
शब्दों में प्राण है, शरीर कब अपना है
झुक जाते तो उस घर में मुंह कैसे दिखाते
अगल-बगल घूम रहे हैं भेडि़ए
कब कहां कैसे चाकू-छुरियां चलाते
मिटना तो तय है एक दिन जमाने में
फिर चाहे वे लाख जोर आजमाते।
………. 

मेरी कलम उस कलम के लिए उठती है
साजिशी कागज पर जो नहीं मचलती है
मैंने देखा था जमाना उसका दुश्मन है
मेरी उम्र उस शख्स पर ही मरती है
उन्हें मिल जाए मेरी उम्र और सांसे
जहां क्रांति की मशाल बेखोफ जलती है
फूलों की चाह में जिसने जवानी बर्बाद की
वो नजर मेरी नजर में खलती है
मेरी डगर आसां नहीं है दोस्तो
वो हर दिन मौत जेब में ले चलती है
जो घर फूंक तमाशा देख रहे आओ
मेरे घर भी एक कविता पलती है।
…….

जिसे देखा था कभी वतन पर मरते

जिसे देखा था कभी वतन पर मरते
उसे देखा है बेसमय ढलते
चारों ओर पसर गए हैं जंगल
भेड़िया देखो पगडंडियों पर टहलते
ठोकर खा कर वो गिरा ऐसे
मौत आ गई उसे चलते-चलते
घर से बाहर था जिसे मौत का खतरा
उसे देखा घर में ही उजड़ते
दोस्तों लिखने की सजा मंजूर हमें
देख नहीं सकते आस्तीन में सांप पलते
और अगर हमें कोई सजा दे सच की
देर नहीं लगेगी शरीर से प्राण निकलते।                                                        

जिसे देखा था कभी जिंदादिल

जिसे देखा था कभी जिंदादिल
उसने तलाश लिया अपना बिल
वो लिखता रहा गम के गीत
अब रोने लगा है तिल-तिल
ब्रह्मांड में जगह ढूंढ़ना मुश्किल
खलने लगी है बहरों की महफिल
कलम पर भी यारों सेंसर है
वक्त बना देता है सबको बुझदिल
जो अजातशत्रु है, उसकी बात करें
सहरा में भी मिल जाता है साहिल
हमने गमो-दिल-अधीरता पर
कर ली है दोस्तों एमफिल
जिसने मरने का हुनर सीख लिया
फिर लाख जमाना हो संगदिल।
…………..

गजल: डी.के. पुरोहित 
वे नारों से देश बदल रहे हैं
वे नारों से देश बदल रहे हैं
मुंह में राम बगल में छुरियां ले चल रहे हैं 

पानी मिले न मिले गांव-शहर में 

दारु के दरिया हर गली निकल रहे हैं
विकास के नाम पर पेड़ कट रहे
 
धुंआ घड़ी भर का चैन निगल रहे हैं
 
जिधर देखो उधर हालात विकट है
 
परछाइयों के भी अब पर निकल रहे हैं
 
हत्या, लूट, डकैती और दुष्कर्म
 
अपराध की होड़ में आगे निकल रहे हैं
देश अपना है रहम करो
 
यारों घर में ये कैसे जंगल पल रहे हैं
……………….

दिल वालों की दिल्ली में.

दिल वालों की दिल्ली में सौदागार मौत के बसते
हमारी छत आसमां और वे किले-महलों में रहते
हमें मारना बड़ा आसान, उन तक भला कैसे पहुंचते
बाहर निकलते तो गार्ड साथ में, कैसे भला फरियाद देते
एसी चैंबर में बैठ नेताजी गरीबों को आश्वासन देते
लिए कैमरे-कलम मीडिया, उनकी नई पहचान बनाते
सत्ता-कुर्सी-शासन उनका, हारे को जासूस समझते
गरीब की बेटी होना अपराध, हत्या-रेप नित सहते
जो आवाज उठाई तो बुलडोजर से छत रौंदते
नारों पर तालियां पीट रहे, भीड़ में ठेकेदार निकलते
पीढ़ियां देश में बीती, फिर भी देशभक्ति के प्रमाण मांगते
दहशत-दहशत गांव में ऐसी, दरक गए सारे रिश्ते
हमारी कोई आवाज सुने, आओ अब ऐसे फरिश्ते।
……………..

घायल दिल्ली 

घायल दिल्ली चिल्ला रही है, कोई नहीं सुनने वाला
सत्ता के नीचे सत्ता है, नहीं रास्ता मिलने वाला
वो कदम उठाते सागर में, सुनामी रोक रही रास्ता
जिन्हें गरीबों का दर्द है, उन्हें कुचलना किसे कहें दास्तां
हमने जीती पूरी दिल्ली, वे देश के ठेकेदार बने हैं
अपनी ताकत से बारूब-असलेदार बने हैं
हार-हार कर वार करते, प्रेम कपास नहीं बुनने वाला
मां-बेटी-बहन सहमी है, कदम-कदम कुचलने वाला।

…………..

पीके चाय बहकने वालों

पीके चाय बहकने वालो हम हाला के आभारी है
शूट-बूट में जा रहे विदेश, देश बेचने की तैयारी है
नशा सत्ता का देखो यारों, हमें मधुशाला प्यारी है
चेहरे पर खून के छींटे, 
आंगन बारूद की फुलवारी है
दुनिया की चकाचौंध में चारों मक्कारों से यारी है
बॉर्डर पर मर रहे सैनिक, श्रेय लेने की होशियारी है
गलती से गर किया विरोध, पड़ना उस पर भारी है
लो हम भी कबीर बने, अलख जगाने की बारी है।