गीत : डी.के. पुरोहित
जब हम
हम नहीं होते
जब हम हम नहीं होते
गम गम नहीं होते
किसी गीत के रूठने से
नैन नम नहीं होते
चांद की हसरत छलावा है
धोखा सितारों का बुलावा है
वो जो चमक रहे परबत
छुपाए सीने में लावा है
इस लावे के फूटने से
दिल के छाले कम नहीं होते
जब हम हम नहीं होते
गम गम नहीं होते
गीतों में मीठास ढूंढ़ते
गम में अपने हैं रूठते
ऐसे भी पल आते हैं यहां
जब दिल के आइने हैं टूटते
टूटे आइने किस काम के
सूरत देख शायद हम रोते
जब हम हम नहीं होते
गम गम नहीं होते
हंसी के लिए आंसू चुराओ
मुस्कराकर दर्द पीरा छुपाओ
जगत का कल्याण शिव भरोसे
फिर क्यों न हसंकर गरल पी जाओ
यूं गरल पीकर हम
मिथ्या जगत से मुक्त होते
जब हम हम नहीं होते
गम गम नहीं होते
संसार की पहेली के दो रूप
एक सुख की छांव दूजी पीरा धूप
एक के बगैर दूसरी अधूरी
किसे सुंदर किसे कहें कुरूप
सुंदरता चंद क्षणों की मेहमां
बुढ़ापे मौत के ताने बुनते
जब हम हम नहीं होते
गम गम नहीं होते।
गीत : डी.के. पुरोहित
मैं
रहूं न रहूं
मैं रहूं न रहूं
मेरे गीत रहेंगे
तेरी जुबां से
मेरी कहानी कहेंगे
चांद ख्वाब है
सितारे बहुत दूर है
आसमां की झोली में
रोशनी भरपूर है
लेकिन यह दीप सदा
अंधेरे से लड़ेंगे
मैं रहूं न रहूं
मेरे गीत रहेंगे
जिंदगी का क्या भरोसा
कब सांस थमे
ऐ दोस्त याद कर लेना
हमारे ना होने पर हमें
शब्दों की सरगम
फिर किस्से कहेंगे
मैं रहूं न रहूं
मेरे गीत रहेंगे
जीवन तो है पहेली
मौत का प्रश्न मौन है
इस धरा पर शाश्वत
अमर रहा कौन है
जो दरिया में मिले
जाने किस धारा में बहेंगे
मैं रहूं न रहूं
मेरे गीत रहेंगे
आज प्यार करें जी भर
कल तो बस आस है
जीवन की पनघट पर
भला कब बुझती प्यास है
घड़ा तैरता रहेगा
ये धारे यूं ही बहेंगे
मैं रहूं न रहूं
मेरे गीत रहेंगे।
गीत : डी.के. पुरोहित
रात रुसवा हुई
रात रुसवा हुई
दिन परेशान है
चांद खोया-खोया
सूरज हैरान है
अब किससे कहें हम
मनवा अपने दिल की बात
आदमी नाउम्मीद है
उजाला चितचोर हुआ
धूप छांव को तरसती
मौसम खेलने लगा जुआ
द्रोपदी की कौन हरे पीर
बाकी है अभी महाभारत
इन चेहरों की पहचान
कर ना पाया दर्पण
रूप के आगे बुद्धि ने
कर दिया है समर्पण
बगिया में ये भंवरे
क्यों मचा रहे उत्पात
वजूद को तरसती नींव
सदियां हो गई खोखली
वक्त बूढ़ा हो चला
मुंह में दबाए बीड़ी अधजली
नकाबों पे पहने नकाब
क्यों सुलग रहे हालात
इतिहास को कुरेदा तो
दीमक लगे मिले पन्ने
भूत से चिपके-चिपके
भविष्य को भुलाया हमने
वर्तमान की सलीब पर
जिंदगी खा रही है मात
अब किससे कहें हम
मनवा अपने दिल की बात।
गीत : डी.के. पुरोहित
इसी
को जीवन कहते हैं
हंसना इन्हें गंवारा नहीं
वो रोने नहीं देते हैं
घुट-घुट कर रहना सीख लिया
इसी को जीवन कहते हैं
परछाइयों से डर लगता है
दीवारों के भी होते कान
तिल-तिलकर जलते हम
व्यथा न कोई पाया जान
हालातों को किसे बताएं
हम कहने से भी डरते हैं
हंसना इन्हें गंवारा नहीं
वो रोने नहीं देते हैं
जीने मरने की कसमें
जिसके साथ खाई थी
सुख की आस लगाकर
बाबुल ने परणाई थी
होम करते हाथ जल गए
आहूति इसी को कहते हैं
हंसना इन्हें गंवारा नहीं
वो रोने नहीं देते हैं
दिन जलता, रात तड़पती
सावन आग लगाता है
लपटें उठतीं ही जाती जब
पानी कोई गिराता है
बादलों का क्या दोष भला जब
वो पानी से रीते हैं
हंसना इन्हें गंवारा नहीं
वो रोने नहीं देते हैं।
गीत : डी.के. पुरोहित
रह
जाती है यादें केवल
रह जाती है यादें केवल
सब कुछ है लुट जाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता
भाव-ताव में लगा यहां हूं
नहीं जानता अपना मूल
सबके दोष लगा हूं गिनाने
पकड़ न पाता अपनी भूल
अपनी राह मैं नहीं जानता
औरों को राह दिखाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता
ठोकर पर ठोकर है खाई
फिर भी मन ना संभला
सुबह को छोड़ अकेला
सूरज किस पार जा ढला
नया सवेरा होना तय है
समीर का झोंका नित आता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता
उजले तन के लोग सभी
मन के मेले निकले
बाजीगर गीतों के घट से
छदम शब्द यहां फिसले
वीणा सुर की सजी रह गई
गीत छला रह जाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता
हार-जीत के कुरुक्षेत्र में
भाइयों से भाई लड़ते
धर्मयुद्ध के नाम पर
नारायण छदम रूप धरते
छल-कपट बाणों की बरसा
तरकस में स्वार्थ क्यों भरता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता
धर्मग्रंथ के नाम पर
शपथ हजारों लेते
न्याय के कटघरे में वो
झूठ की दुहाई देते
कलम हाथ में लिए झूठ की
वो मृत्यु दंड लिख जाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता
यह जग सारा अंगारों पर
इक चिंगारी की देरी है
मक्कार-मतलबी हाथों में
परमाणु बम की ढेरी है
कबीरा गली-गली में घूम
प्रेम की अलख जगाता
जीवन की यह रीत पुरानी
क्यों न समझ मैं पाता।
गीत : डी.के. पुरोहित
जहां
में फिर भी अंधेरा है
दर्पण वही दिखाता है
जैसा सामने चेहरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
वो लोग भी क्या लोग हैं
जो दौलत के लिए लड़ते हैं
मानवता की लांघ कर सीमा
क्यों धरम-जात पर मरते हैं
हिरन पगले भटकते फिरते
बिन पानी यह सहरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
महलों वाले, बंगलों वाले
सीना ताने फिरते हैं
झोंपड़पट्टी वाले उनको
आंखों में रोज खटकते हैं
पीकर मदिरा रोज बहकते
करते तेरा-मेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
ताल-तलैया नदी सूखती
सागर का रहता पेट भरा
बादल बनते बरसा होती
हरियाली चूनर पहनती धरा
सागर लाख कसेला हो
मेघों में अमृत का डेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है
हमने आंखों में पीड़ा को
आंसू बन झरते देखा है
उपर वाले साहुकार के दर
पाप धर्म का लेखा है
जाना अटल सत्य है भाई
फिर भी मोहमाया का घेरा है
सूरज दिन भर तपता
जहां में फिर भी अंधेरा है।
गीत : डी.के. पुरोहित
दुनिया
जहर पिलाती रही
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे
कांटों ने दिए लाख जख्म
फूल थे कि मुस्काते रहे
वो आदमी थे जिनका काम
अपनों से दगा करना रहा
हम तो कुछ थे ही नहीं
हमारा क्या जीना-मरना रहा
शून्य तो परिभाषित होता
इससे कम खुद को गिनाते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे
खुदा होता जो मैं तो
हर खता की सजा देता
जो होता भगवान तो
मौत का बिगुल बजा देता
शब्दों के रहे जो साधक
खुद को कागज पर गलाते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे
सोचता हूं कभी अकेले में
क्यों बनाते हैं इबादत के घर
क्या कमी है परमतत्व को
क्या कमी है उसके दर
मैं मूरख नादां सही
समझदार तर्क बताते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे
पत्थरों में पत्थर को पूजते
मीनारों में उसे पुकारा
चर्च-मंदिर-गुरुद्वारों में
क्यों ढूंढ़ते रहे सहारा
दुखियारे मां-बाप को
क्यों न गले लगाते रहे
दुनिया जहर पिलाती रही
हम अमृत लुटाते रहे।
गीत : डी.के. पुरोहित
टूटा
एक सितारा
आसमां के आंगन से
टूटा एक सितारा
चाँद खूब उदास हुआ
रात भर रोया बेचारा
खुशियां गम की परछाई हैं
जीवन धूप-छांव हैं
समय के शरीर पर
इतिहास के अनगिन घाव है
भविष्य को संवारने
वर्तमान बाजी हारा
आसमां के आंगन से
टूटा एक सितारा
चाँद खूब उदास हुआ
रात भर रोया बेचारा
जब-जब मन ने उड़ान भरी
दिशाओं ने भ्रमजाल फैलाया
बादलों ने शोर मचाया
हवा ने तांडव रूप दिखाया
घायल पंछी रहा तड़पता
कहीं से ना मिला सहारा
आसमां के आंगन से
टूटा एक सितारा
चंद खूब उदास हुआ
रात भर रोया बेचारा
गीत : डी.के. पुरोहित
प्रेम
का कोई रूप नहीं
प्रेम का कोई रूप नहीं
ना ही कोई आकार
निराकार की भक्ति में
होता प्रेम साकार
मीरा तो बस नाम किसी का
पाया जिसने मोहन
छोड़ निस्सार संसार को
भटकी बनकर जोगन
अमृत बन गया जहर भी
भीतर से हुआ साक्षात्कार
प्रेम का कोई रूप नहीं
ना ही कोई आकार
कबीरा कब पैदा हुआ
वो तो बस थी माया
परमेश्वर ने मानवता की ओर
अपना कदम बढ़ाया
संतों की वाणी है अमृत
सच का है दरबार
प्रेम का कोई रूप नहीं
ना ही कोई आकार
नानक का कहना लोगों से
बांटो जग में प्यार
रसखान की वाणी में थी
गिरिधर की गहन पुकार
सूरदास ने बंद आंखों से
जीवंत देखा संसार
प्रेम का कोई रूप नहीं
ना ही कोई आकार
हम सब ईश्वर के बंदे
क्यों ना बनते नेक
रंग-रूप-आकार अलग पर
जीव सभी में एक
माटी में मिलना इक दिन
डूबेगी सागर में पतवार
प्रेम का कोई रूप नहीं
ना ही कोई आकार।
गीत : डी.के. पुरोहित
जो
टूट गया चां अकेला
एक सितारा टूट गया तो
आसमां की झोली खाली न होगी
जो टूट गया चांद अकेला
फिर रात की रानी निराली न होगी
कुदरत जिसे चाहने लगे
उसे भला कौन मार सकता है
औरों से हमेशा जीतने वाला
केवल अपनो से हार सकता है
सिकंदर मन का क्यों रूठे
रूठा तो जीत मतवाली न होगी
जो टूट गया चांद अकेला
फिर रात की रानी निराली न होगी
हौसलों के बल पर कौन जीतता
जो बुद्धि का जलवा साथ न हो
हर घड़ी बदलता वक्त फैसला
वो जीत ही क्या जो बिगड़े हालात न हो
हमने कभी न सुनी मन की
अहं की फितरत उसने पाली न होगी
जो टूट गया चांद अकेला
फिर रात की रानी निराली न होगी
तेरे फैसले हम आज बदलेंगे
मुझे बसाना है नया जहान
तुझे मारकर मुझे जीना है
सुन सके तो सुन ले भगवान
सुन मैं ही धरा का हूं पोषक
मार सके वो जहर की प्याली न होगी
जो टूट गया चांद अकेला
फिर रात की रानी निराली न होगी।
गीत : डीके पुरोहित
तेरे
गीतों को सुन
तेरे गीतों को सुन
आंसू निकल आए
कतरा-कतरा गिरे
फिर भी न संभल पाए
जिधर देखा उधर
अंधेरा घेरने लगा
विधाता भी नाराज हो
अब मुंह फेरने लगा
छल की पगडंडी पर
एक कदम न चल पाए
तेरे गीतों को सुन
आंसू निकल आए
यह दुनिया है दुरंगी
नित रंग बदलती है
सच्चाई का दंभ भरते
झूठ की चादर मचलती है
समय के आसमां पर
बेवक्त सूरज न ढल पाए
तेरे गीतों को सुन
आंसू निकल आए।
गीत : डीके पुरोहित
आंसुओं
का मोल
दर्द ही जानता है
आंसुओं का मोल
दूर से लगते हैं सुहाने
बैंडबाजे और ढोल
सच हमेशा कड़वा होता है
झूठ के नहीं होते पैर
गली-गली घूमे जोगी कबीरा
मांगता है सबकी खैर
बावरी दुनिया उड़ाती है
खुदा के बंदों का मखौल
दर्द ही जानता है
आंसुओं का मोल
लोग शीशे के घर में रहते
खुद पत्थर बन गए हैं
अपना ही वजूद लगा दांव
अपने ही सामने तन गए हैं
झगड़े फसाद में भूल गए
प्यार के दो मीठे बोल
दर्द ही जानता है
आंसुओं का मोल
जीवन समझौतों का नाम
शर्तों में जी रहे हैं
खुदगर्जी की डगर चलते
स्वार्थ की हाला पी रहे हैं
अपनी धुरी पर घूमती धरा
आदमी भी है गोल-मोल
दर्द ही जानता है
आंसुओं का मोल।
गीत - डीके पुरोहित
आंसू
न होते तो
आंसू न होते तो
दर्द का भार कम न होता
मुटठी में होता भविष्य
समय बेरहम न होता
हर कदम बढ़ रहे आगे
मंजिल से बेखबर हम
कहां ले जाएगा कारवां
कहां पहुंचकर लेंगे हम दम
यह अगर मालूम चलता
हमें हारने का गम न होता
आंसू न होते तो
दर्द का भार कम न होता
शिकायत करना बुझदिली है
अपने पर रखना होगा भरोसा
रास्ते पथरीले, मौसम खराब है
अनिष्ट का लग रहा अंदेशा
खुद दीप बन जाते तो
घर-घर यहां तम न होता
आंसू न होते तो
दर्द का भार कम न होता
इन आंखों ने देखे सपने
टूट गए बीच राह में
धोखा मिला हर बार हमें
लुटते ही गए वफा की चाह में
पूरी हो जाती अगर मुराद भी
हौसला हमारा कम न होता
आंसू न होते तो
दर्द का भार कम न होता।
गीत -डी के पुरोहित
बता ए चांद जरा
बता ए चांद जरा
बारात में अपनी ये अनगिन सितारे
कहां से लाया है
चांदनी का वरण किया
आसमां की सेज सजाई
रात के गहन अंधेरे में
प्रणय की लगन लगाई
ब्रहमाण्ड की रचना में निराकार निर्गुण ने
अपना दिमाग अजब लगाया है
बता ए चांद जरा
बारात में अपनी ये अनगिन सितारे
कहां से लाया है
धरती के आंगन में फूलों सी तेरी मुस्कान
सूरज से चंद सांसे लेकर
नित होता तू प्राणवान
यह धरती, पर्वत नदियां, पेड़-पौधे
कायनात ने करिश्मा दिखाया है
बता ए चांद जरा
बारात में अपनी ये अनगिन सितारे
कहां से लाया है
सितारे बने हुए हैं आसमान के पहरेदार
टिमटिम करते ये चमकते
हमारे बन गए हैं राजदार
विरह की रात में पीरा की जुबां बन
सपनों पर मन आज आया है
बता ए चांद जरा
बारात में अपनी ये अनगिन सितारे
कहां से लाया है।
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डीके पुरोहित, सीनियर सब एडिटर, दैनिक भास्कर, जोधपुर-राजस्थान
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