Sunday, 3 July 2016

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पांच तत्वों से मानव बना, अब छठे तत्व के साथ देगा अतिमानव दस्तक : रविदत्त मोहता






-डीके पुरोहित-
-प्रख्यात कहानीकार व दार्शनिक लेखक रविदत्त मोहता इन दिनों अपनी ताजा पुस्तक अतिमानव से चर्चा में आए हैं। यह पुस्तक ब्रह्मांडीय रहस्यों की दिशा में नई शोध को उजागर करती प्रतीत हो रही हैं। एक आदिमानव की आत्मकथा, अज्ञातवास से ज्ञातवास उनकी आध्यात्मिक चेतना से परिपूर्ण पुस्तकें हैं। उनका हिमाली उपन्यास जल्द बाजार में आएगा। राजीव गांधी सद्भावना सम्मान से अलंकृत मोहता का दर्शन मानव मात्र व विश्व कल्याण से जुड़ा है। पिछले दिनों जोधपुर में उनके आवास पर वर्ल्ड स्ट्रीट की लंबी बातचीत हुई। यहां प्रस्तुत है प्रमुख अंश :-




वर्ल्ड स्ट्रीट : अतिमानव पर विस्तार से बताएं?

मोहता : जैसा कि हम जानते हैं कि ब्रह्मांड में दो तरह की गतियां चल रही हैं-पहली, गोल-गोल घूमना जिसे नासा के उपग्रह अपनी दूरबीनों के द्वारा ग्रहों को घूमता हुआ देखते हैं, दूसरी गति ब्रह्मांड की गति है। इसका प्रवाह चारों दिशाओं में फैलता रहता है। हालांकि ब्रह्मांड में दिशाएं नहीं होती है, सिर्फ समझाने के लिए यह बात कही जा रही है। इस ब्रह्मांडीय गति के कारण ही अंतरिक्ष कभी भी समाप्त नहीं हो सकता। इसलिए अंतरिक्ष को अनंत कहा गया है और जीव को आदि कहा गया है। जीव हमेशा किसी ग्रह पर जन्म लेते हैं। इसलिए जीवन व मरण चलता रहता है। ग्रहों में जीवन व मरण इसलिए चलता है क्योंकि ग्रहों की गति गोल-गोल हैं। अंतरिक्ष हो या ग्रह हो, जीवन का होना या नहीं होना गति सापेक्ष हैं। इसलिए मैं यह कहना चाहता हूं कि अंतरिक्ष की प्रवाहमयी गति के कारण आकाश गंगाओं में जो घूर्णन गति चल रही हैं वो एक दिन घूर्णन के पार जाकर प्रवाहमयी गति में बदल जाएगी और मनुष्य अमरता को प्राप्त कर लेगा। इसलिए मेरा यह प्रामाणिक विश्वास है कि मनुष्य के अंदर से अतिमानव जन्म लेने वाला है। ये अतिमानव मानव से अगली प्रजाति का पहला कदम होगा।

वर्ल्ड स्ट्रीट : आपने एक शब्द इस्तेमाल किया प्रमाणिक विश्वास, इसका खुलासा करें?

मोहता : हमारे वेदों ने बहुत पहले यह उद्घोष किया था-अमरतस्या पुत्रा: यानी मनुष्य अमरता को प्राप्त कर सकता है। यह अमरता गति साक्षेप होने पर ही प्राप्त की जा सकती है। जैसा कि मैंने पूर्व में बताया कि जो मनुष्य धरती पर रहते हुए इसकी घूर्णन गति में रहते हुए किसी दिन इस गति के पार छलांग लगाकर अपने चैतन्य से अंतरिक्ष की प्रवाहमयी गति में चहलकदमी करने लगेगा। वह मानव धरती का पहला अति मानव हो जाएगा। इसलिए मेरा मानना है कि दुनिया में महान घटनाएं सबसे पहले चैतन्य में घटित होती हैं और उसके बाद वही चैतन्य अपने स्वभाव के अनुकूल शरीर का निर्माण करता है और धरती को अति मानव की प्राप्ति होने वाली है। ये सिद्धांत नया तो नहीं हैं, लेकिन डारबिन और मुझमें थोड़ा भेद यह है कि वे शरीर के क्रमिक विकास की बात करते हैं और मैं चैतन्य के क्रमिक विकास की बात करता हूं। मेरा यह सुस्पस्ट अनुभव है कि चेतना की गति अंतरिक्ष की प्रवाहमयी जैसी गति है और शरीर की गति किसी ग्रह की गोल-गोल घूमने जैसी गति है। जो चीजें गोल-गोल घूमती हैं वे एक दिन घिसकर नष्ट हो जाती हैं, इसलिए शरीर पृथ्वी पर नष्ट हो जाता है, लेकिन चेतना अगर अपने स्वभाव अनुकूल अंतरिक्ष की प्रवाहमयी गति के साथ-साथ चलने लगे तो पृथ्वी को अमरता की प्राप्ति हो जाएगी।

वर्ल्ड स्ट्रीट : क्या हमारे प्राचीन शास्त्रों में इस तरफ इशारा किया गया है?

मोहता : हां, यह बात इसारों-इसारों में गीता में श्रीकृष्ण ने इस तरह से कही है-ये योग है जो मैंने सूर्य से कहा, सूर्य ने मनु से कहा और मनु ने ईश्वाकु से कहा, लेकिन हे अर्जुन काल के गाल में यह योग विस्मृत हो गया है, इसलिए मैं तुझे यह पुन: स्मरण करता हूं। मेरे कहने का मतलब यह है कि पार्थिव योग अर्जुन को जब पृथ्वी का महायोद्धा बना सकता है तो अंतरिक्ष से योग मनुष्य को अतिमानव बना सकता है।

वर्ल्ड स्ट्रीट : योग को अपने शब्दों में किस तरह कहना चाहेंगे?

मोहता : योग को हमें इस तरह समझने की आवश्यकता है। क्योंकि मनुष्य धरती पर अंतरिक्ष का कुल योग है और ईश्वर अंतरिक्ष का कुलसचिव है। धरती के सभी शास्त्रों में ईश्वर को निराकार बताया गया है। निराकार का मतलब होता है चैतन्य, चैतन्य हमेशा अंतरिक्ष में निवास करता है। चैतन्य इसलिए अमर है, चूंकि अंतरिक्ष अमर है। ईश्वर इसलिए अजन्मा है, क्योंकि अंतरिक्ष अजन्मा है। इसलिए मानव को एक कदम धरती पर रखते हुए दूसरा कदम अंतरिक्ष के प्रांगण में रखना होगा। तभी अंतरिक्ष हमसे संवाद कर पाएगा।

वर्ल्ड स्ट्रीट : गति शब्द की व्याख्या किस तरह करना चाहेंगे ?

मोहता : बात आगे बढ़ाने से पहले धरती की तरफ लौटते हैं और कुछ बातें यहां की करते हैं। हमारे यहां पर मंदिरों की परिक्रमा करने का और पुनर्जन्म का सिद्धांत प्रामाणिक प्रचलन लिए हुए हैं। परिक्रमा व पुनर्जन्म को यूं समझाया जा सकता है, जिस तरह से हम मंदिरों की परिक्रमा करके संतुष्ट होते हैं, ठीक उसी तरह से जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य अपने शरीर की ही परिक्रमा पूरी करता है। और पुनर्जन्म को प्राप्त हो जाता है। मैं यह कहना चाह रहा हूं कि यह दोनों अवस्थाएं पृथ्वी की गति की वजह से है। कभी आप अंतरिक्ष में झांक कर देखें तो पाएंगे कि अरबों-खरबों ग्रह व नक्षत्र सदियों से गोल-गोल घूम रहे हैं। उन्हीं अरबों-खरबों ग्रहों में से हमारा पृथ्वी ग्रह भी गोल-गोल सदियों से घूम रहा है। इस अंतरिक्ष में घूमते हुए हमारी गोल-गोल पृथ्वी के अंदर हम सभी जन्म लेते हैं। स्पष्ट है कि जैसा हमारी माता का स्वभाव होगा वैसा ही उसकी संतान का स्वभाव होगा। यही वजह है कि जीवन अपने गोलाई के अंतिम चरण पर बूढ़ा होकर मर जाता है और हमें पुन: एक नए शरीर की आवश्यकता पड़ती है। वर्षों पूर्व पांडिचेरी में दो महान आत्माओं ने पदार्पण किया। एक थे श्री अरविंद और दूसरी फ्रांस की श्री मां। श्री अरविंद ने गति के इस विज्ञान को श्रीकृष्ण की सहायता से समझा और उन्होंने मानव में आगे की यात्रा आरंभ की, जिसे अति मानसिक योग के नाम से जाना जाता है। यह अतिमानसिक योग शरीर के माध्यम से दिया जाने वाला योग नहीं हैं, बिल्क हमारे मस्तिष्क से ऊपर एक चितआकाश होता है वहां पर स्थापित होकर इस योग का आरंभ होता है। इसलिए अतिमानसिक योग ही अतिमानव को जन्म देने में सहायक होता है।

वर्ल्ड स्ट्रीट : अतिमानव कैसा होगा ?

मोहता : अब हम समझते हैं कि अति मानव कैसा होगा? और वह धरती पर क्यों होना चाहिए? तो मैं आपको संन्यास काल की प्राचीन परंपरा की ओर ले जाता हूं। जब पहला संन्यासी किसी वन में जन्मा था। उस पहले संन्यासी को यह अनुभव हुआ कि संसार मरण धरना है। संसार माया है। जो जन्म लेता है वो मर जाता है। यानी संन्यास की वजह उस पहले संन्यासी की यह थी कि मनुष्य मर क्यों जाता है? उस संन्यासी ने यह सोचा कि जब मनुष्य मर ही जाता है तो पैदा ही क्यों होता है? यह अमरता की खोज का पहला स्टेप था जो उस संन्यासी के माध्यम से वेदकाल के बागिचों से होता हुआ उपनिषद की सड़कों पर टहलता हुआ व्यासपीठों व आश्रमकों में बैठता हुआ आज तक अपने उत्तर को ढूंढ़ रहा है। अगर मुझे क्षमा कर दिया जाए तो मैं यह कहना चाहता हूं कि हमारी संन्यास परंपरा ने अपने चैतन्य को धरती के घर्णन गति के बाहर की तरफ ले जाने का प्रयास नहीं किया। वो पार्थिव चैतन्य में ही सोचते रहे, साधना करते रहे, दीक्षा लेते व देते रहे। और पार्थिव चेतना गोल-गोल घूमती रहती है। इस वजह से लाखों बरस हो गए उत्तर आज तक नहीं मिला। यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि श्री मां ने इस बात को पहचाना और उन्होंने अरविंद से कहा कि अति मानव को जन्म देने के लिए हमें पृथ्वी की पार्थिव चेतना से बाहर निकलकर अंतरिक्ष की चेतना से संधी करनी पड़ेगी। और इस वजह से हम दोनों को बहुत शारीरिक पीड़ाएं सहन करनी पड़ेगी। यही हुआ समय से पहले ही श्री अरविंद को अपना शरीर त्यागना पड़ा। और श्री मां भी शरीर के महानतम कष्टों से गुजरते हुए शरीर को त्यागकर चली गईं।

वर्ल्ड स्ट्रीट: शरीर की गति और शरीर के स्वभाव पर कुछ बताएं?

मोहता : यह बात मैं क्यों बता रहा हूं। इसलिए कि शरीर की गति और शरीर का स्वभाव ठीक वैसा ही है, जैसा इस धरती का है। यानी गोल-गोल सोचना, गोल-गोल कर्म करना, गोल-गोल जन्म लेना और मर जाना। लेकिन अंतरिक्ष की गति चूंकि ऐसी नहीं हैं, इसलिए जैसे ही हम उस प्रवाहमयी गति से संपर्क करते हैं, वैसे ही मानव शरीर क्षतिग्रस्त होने लगता है। अत: शरीर छोड़ने के बाद श्री मां व श्री अरविंद आज भी पृथ्वी लोक के चैतन्य में मौजूद हैं और वे मनुष्य के नए शरीर के निर्माण के लिए कार्य कर रहे हैं।

वर्ल्ड स्ट्रीट: अतिमानव का निर्माण कैसे होगा ?


मोहता : अतिमानव का शरीर पांच तत्वों से मिलकर नहीं बना होगा, बल्कि छठा तत्व और होगा बल्कि छठा तत्व और है,



जिसको विज्ञान प्रकाश कहता है। मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि प्रकाश और अग्नि में बहुत अंतर है। पृथ्वी सूर्य की पुत्री है और पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य के भीतर एक तत्व अग्नि है और अग्नि स्थूल तत्व है
, जिसका नष्ट होना स्वभाविक है, लेकिन अंतरिक्ष में घनघोर अंधकार है। लेकिन वहां फिर भी इतना प्रकाश है जो अंतरिक्ष को जागृत और प्रवाहमय बनाए हुए हैं। यह प्रकाश अंतरिक्ष में किसी विस्फोट की वजह से नहीं है, जैसा कि सूर्य में विस्फोट की वजह से धरती को प्रकाश मिलता है। अंतरिक्ष का प्रकाश उसकी प्रवाहमयी गति की वजह से है। और यह प्रवाहमयी गति खरबों वर्षों से अपने केंद्र से दूर दौड़ रही है। और पहली बार मैं इस राज को स्पष्ट करना चाहता हूं कि जब कभी भी कोई वस्तु अपने केंद्र से दूर प्रवाहमयी गति से चल पड़ती हैं तो उसमें विस्फोट नहीं होता बल्कि प्रकाश निकलता है। उसको यूं समझिए कि सूर्य में उसके केंद्र पर इस समय भयानक विस्फोट हो रहे हैं, लेकिन उसमें से निकलने वाली अग्नि जब अंतरिक्ष में बहने वाली प्रवाहमयी गति के साथ धरती पर पहुंचती है तो वह प्रकाश में बदल जाती है। यानी अग्नि पृथ्वी को जला नहीं पाती बल्कि अंतरिक्ष के प्रवाहमयी गति के साथ मिलकर प्रकाश में बदल जाती है। इसलिए सूर्य धरती के अंदर प्रकाश को पैदा करता है, लेकिन फिर भी यह प्रकाश अपने स्वरूप में नहीं हैं, क्योंकि अभी भी इसमें अग्नि है। यही वजह है कि पृथ्वी पर दो पत्थरों को रगड़ने से इसमें अग्नि निकलती है प्रकाश नहीं निकलता। कहना मैं यह चाहता हूं कि पृथ्वी पर हम सभी अग्नि पुरुष हैं इसलिए हम सभी भष्म हो जाते हैं और जिस प्रकाश की बात मैं कर रहा हूं वह ग्रह नक्षत्रों में नहीं पाया जाता है। बल्कि ब्रह्मांड की घुप काली कंदराओं के मध्य मौजूद हैं। इसलिए विज्ञान जिसे अंतरिक्ष का डार्क मेटर कहता है मैं उसे स्पार्क मेटर कहता हूं। इसको यूं समझिए जब धरती पर दो पत्थरों के टकराने से अग्नि पैदा होती है तो अंतरिक्ष के डार्क मेटर में प्रकाश अवश्य हैं। आवश्यकता हमारा उससे टकरा जाना है। तभी प्रकाश जन्म लेगा। अंतरिक्ष की वजह से पृथ्वी का अतिमानव जन्म लेगा। इसलिए अतिमानव का शरीर छठे तत्व का बना होगा-प्रकाश से बना होगा। और अतिमानव का निवास कोई ग्रह नक्षत्र नहीं होगा बल्कि वह समूचे अंतरिक्ष में घूमता फिरेगा। और पहली बार अपने वजूद के इतिहास में अंतरिक्ष मां बनेगा। और आपको यह जानकर तसल्ली होगी कि अंतरिक्ष का बन जाना ब्रह्मांड के सभी ग्रहों को बचा लेना है। इसलिए आइए हम मनुष्य का अतिक्रमण करें और भविष्य के अतिमानव का स्वागत करें। क्योंकि मनुष्य के पास इतना बल नहीं है कि वह अतिमानव को आने से रोक सकें। अति मानव के पास पार्थिव चेतना की कोई ऐसी बृद्धि नहीं है, जिससे वह मनुष्य पर कोई दया करे, कोई करुणा करे, ऐसा स्वभाव उसका नहीं हैं। उसका स्वभाव है मनुष्यता को अमरता प्रदान करना। और यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि धरती पर पहले संन्यासी ने ही उससे पूछा था कि मनुष्य जब जन्म लेता है तो मर क्यों जाता है। उस पहले संन्यासी के प्रश्न का उत्तर देने के लिए अतिमानव धरती पर उतर रहा है। शीघ्र ही कुछ ऐसी घटनाएं घटित होंगी जो अंतरिक्ष के सामने समर्पण करना होगा। और अंत में एक लाइन कहना चाहता हूं कि पार्थिव चेतना में श्रीकृष्ण ही ऐसे देव हैं जो हमारे अति मानव से मुलाकात करवा सकते हैं। यानी श्रीकृष्ण मनुष्य और अतिमानव की मुलाकात कराने के सेतू हैं। इसलिए कृष्ण साधना करेंं।



 





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